हाउसमेकर ही नहीं, लाइफ मेकर भी होती हैं माँ

मां की अहमियत को शब्दो में नहीं बयां किया जा सकता। मां वह टॉनिक है जो बच्चे की हर थकान हर उदासी दूर कर देती है। मां हमारी खामोशी को भी समझ लेती है।मां बहुत नाराज़ होती है तो रो देती हैl एक हाथ से थप्पड़ मारती है तो अगले ही पल दूसरे हाथ से रोटी खिलाती हैl माँ एक आशा होती है। माँ बच्चे की जिज्ञासा होती है। माँ अँधेरे में एक बाती है।

Update:2020-05-10 18:53 IST

योगेश मिश्र

मुझे साल तो नहीं याद है।लेकिन इतना याद है कि जब मैं सिविल सेवाओं के लिए तैयारी कर रहा था तब किसी एक साल की प्रारंभिक परीक्षा के बहुविकल्पीय प्रश्नों में एक सवाल पूछा गया था कि क्या घरों में काम करने वाली औरत का काम राष्ट्रीय आय का हिस्सा होता है ? सीधा और सपाट सा उत्तर है , नहीं। लेकिन आज जब हम लॉक डाउन के दौरान घर की औरतों के कामकाज करने के तौर तरीक़ों, मेहनत मशक़्क़त को क़रीब से देख रहे हैं, तब यह लगता है कि इसे राष्ट्रीय आय का हिस्सा होना ही चाहिए । क्योंकि घर बसाना, चलाना और सुरक्षित रखना अपने आप में बहुत बड़ा काम है। यह काम मनसा वाचा कर्मणा ही हो सकता है। केवल मन से, केवल कर्म से या फिर केवल वचन से यह संभव नहीं है।

घर को समझने का अवसर मिला

लॉकडाउन के दौरान घर में रहने का समय मिला। घर को समझने का समय मिला। लाकडाउन से ठीक पहले तक घर हमारे लिए सिर्फ़ सोने की ऐसी जगह थी, जहाँ दिन भर काम करने के बाद थक हारकर रात गुज़ारने जाना होता था। आप यूँ भी कह सकते हैं कि घर हमारे लिए लॉकडाउन से पहले तक सिर्फ़ घोंसला था।

हमें पता नहीं होता था कि घर में बच्चे कैसे रहते हैं ? माँ क्या करती है ? पत्नी क्या करती है ? बच्चे क्या करते हैं ? रिश्तेदार कहाँ कहाँ कैसे कैसे हैं ? रात को घर पहुँचने के बाद सबके बारे में पत्नी से पूछता था, वो जो बता देती थीं, वही सच था, वह सच बताती क्यूं नहीं, क्योंकि सच नहीं बताने से उसका भला क्या था? यही नहीं, वह सच सच बतायेंगी यह मेरा भरोसा था। मेरे भरोसे पर वह हमेशा खरी उतरी है।

बेटी-बेटे से बात भी होने लगी है

पहले जब मैं घर से निकलता था, घर में बेटा और बेटी या तो सोते रहते थे या स्कूल जा चुके होते थे। जब मैं रात को घर पहुँचता था तो वे या तो सो चुके होते थे या अपने अपने कमरे बंद करके पढ़ रहे होते थे। कई बार, कई दिनों तक उनसे रूबरू नहीं हो पाता था। सिर्फ़ पत्नी सेतु थी। माँ आधार थी।

इस लाकडाउन में घर से थोड़ा देर से निकलता हूँ । घर थोड़ा जल्दी पहुँचता हूँ । घर के लोगों के साथ दोनों वक्त रामायण, महाभारत देखता हूँ । घर में पहुँचते ही बेटी और बेटे के कमरे में जाता हूँ । उनसे थोड़ी थोड़ी बातें करता हूँ । ताकि वे मेरी उपस्थिति का एहसास कर सकें।

कितनी मजबूत थीं चहारदीवारी में महिलाएं

घर में काम करने वाले सारे लोगों की तक़रीबन छुट्टी हो गई है। सिर्फ़ संतोष जी बचे हुए हैं। वह घर के सदस्य सरीखें हैं। उन पर थोड़ा काम ज़्यादा आन पड़ा है। पर पत्नी भी सब काम में हाथ बटाती हैं। उनका काम देखता हूँ तो यह सच हाथ लगता है कि औरतें जो नौकरी नहीं करती हैं, वह घर में रहकर नौकरी करने वाली औरतों से कितना ज़्यादा काम करती हैं। हो सकता है शायद नौकरी करने वाली औरतों को यह बात बुरी लगे। उन्हें हमारी इस धारणा से असहमति हो।

मुझे यह भी लग गया कि अपनी पूरी ज़िंदगी घर की चारदीवारी में काटने वाली औरतें कितनी मज़बूत होती हैं। कितनी पूजनीय होती हैं। मुझे बहुत पुराने दिन याद आते हैं। जब लड़कियाँ विदा होकर जाती थीं, तो उनमें से तमाम लड़कियाँ मैके लौटे बिना ही मर जाती थीं। पहले कई कई दिन तक वह बाहर निकल ही नहीं पाती थीं। घूँघट इतना बड़ा होता था कि रात को चाँद देखने की तमन्ना ग़र हुई तो हाथ से घूँघट को दूरबीन की शक्ल में तब्दील करना पड़ता था। उस दौर में दिन में अपने पति से मिलना भी मुनासिब नहीं था।

घर को बचाना, बनाना, सहेजना और चलाना

घर में रहने वाली औरत बेहद साहसिक होती है। उसका संकल्प दूसरी औरतों की तुलना में ज़्यादा होता है। उसकी निष्ठा ज़्यादा होती है । उसकी लगन और उसका लगाव भी ज़्यादा होता है। लॉकडाउन के दौरान हमें लगा कि पैसा कमाना उतना मुश्किल काम नहीं है, जितना घर को बचाकर,बनाकर, सहेजकर रखना और चलाना।

जो औरतें घर में रहती हैं, बच्चे देखती हैं, पति की ज़िम्मेदारियों में हिस्सा बटाती हैं, सास ससुर का ख़याल रखती हैं, घर की परंपरा और मर्यादाओं से बंधकर कर जीती हैं, वो सब की सब लॉक डाउन के बाद मेरे लिए अतिरिक्त श्रद्धा का पात्र हो गयी हैं। मेरे लिए पूजनीय हो गई हैं।

हममें से तमाम लोग ऐसे हैं जिन्हें लॉक डाउन के दौरान घरों में रहना पड़ा तो उनका चाल, चरित्र और चेहरा बदल गया। यही नहीं, बहुत से ऐसे लोग हैं जिनके छिपे हुए चाल, चरित्र और चेहरे घर वालों और रिश्तेदारों के सामने उजागर हो गये।

इस समय घर की चारदीवारी उनके लिए गर्दन पर किसी फँसे हुए फंदे की तरह नज़र आती है। वह उससे मुक्ति की निरंतर तलाश मे जुटे रहते हैं। अगर बाहर निकलने पर पुलिस का भय नहीं होता तो घर की लक्ष्मण रेखा के अंदर उन्हें बांध कर रखना बेहद मुश्किल होता।

लॉकडाउन से बढ़ गई पत्नी के प्रति श्रद्धा

लॉकडाउन से ठीक पहले तक मैं अपनी पत्नी को भी उतनी श्रद्धा का पात्र नहीं समझता था, जितना लॉकडाउन के बाद समझने लगा हूँ। वैसे हमारे समाज में, हमारी संस्कृति में कभी भी महिला पुरूष को अलग करके नहीं देखा गया। अलग रख कर देखने का हमारा चलन नहीं रहा। ये तो प्रगतिशील विचार का दावा करने वालों का शग़ल है।

उनका अभियान है। वह चाहते हैं कि दोनों को अलग अलग करके देखा जाये। इस अभियान ने हमारा, हमारी संस्कृति का, हमारी सोच का कितना और किस किस तरह नुक़सान किया है, इस पर बाद में कभी विचार किया जायेगा ।

समझने का नजरिया बदलना होगा

हाल फ़िलहाल इसी पर चलें कि महिला पुरूष हमारे यहाँ अलग नहीं हैं। हमारे जीवन और समाज का कोई ऐसा हिस्सा या समय नहीं रहा है, जब चुनौतियाँ न आयीं हो। हम उसका समाधान करते रहे हैं। इसमें कोई शक नहीं कि महिलाओं के साथ ज़्यादती हुई। सीता के साथ। द्रौपदी के साथ । पर हम यह मानते रहे कि पुरूष और स्त्री एक होते हैं, एक होगें, एक रहेंगें, तभी सृष्टि का क्रम आगे चलेगा, बढ़ेगा।

अगर दोनों एक दूसरे के सामने खड़े हो जातें हैं तो सृष्टि का क्रम बाधित होता है। रूक जाता है। सीता को समझने के साथ राम को समझना होगा। द्रोपदी को समझने के साथ पांडवों को समझना होगा। हम सीता को, द्रोपदी को और पांडव तथा राम को अलग अलग समझने की कोशिश करने में जुटे हैं।

स्त्री हमेशा पुरुष से श्रेष्ठ

आप सोचिये सीता के हरण के बाद राम पशु, पक्षी से सीता कहाँ गईं यह पूछते फिर रहे हैं। सीता के साथ हुए अपमान के प्रतिशोध में नंगे पैर हिंद महासागर पार कर लंका पहुँच जाते हैं। महाभारत में द्रोपदी के साथ किये गये अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए पाँचों पांडवों ने दर दर खाक छानी। भीष्म, कर्ण, अश्वथामा, कृपाचार्य, द्रोणाचार्य, युधिष्ठिर जैसे योद्धाओं को अपनी जान गँवानी पड़ी।

हमारे यहाँ स्त्री बराबर कभी नहीं रही। वह हमेशा पुरूष से बड़ी रही। हमारे यहाँ बराबरी का प्रश्न कभी नहीं रहा। हमारे यहाँ जो शक्ति प्रकट होती है वह स्त्री है। वह रोज़ युद्ध नहीं करती। हमारे यहाँ बुद्धि की देवी सरस्वती है, शक्ति की देवी माँ दुर्गा हैं, धन की देवी लक्ष्मी। यानी बुद्धि यानी विद्या, धन और शक्ति किसी पुरूष देवता के पास नहीं है। किसी देवता की थाती नहीं है।

दशकुमार चरितम दंडी का महाकाव्य में भगवान राम अष्टावक्र से कहते है-

स्नेहं, सौख्यं दयां चैव यदि वा जानकीमपि ।

आराधानाय लोकस्य मुंचतो नास्ति में व्यथा।।

राजाराम ने पत्नीत्यागी, राम ने सीता नहीं

प्रजा के हित के लिए मैं अपने दोस्ती, दया, सारे सुख सौख्य और मेरी पत्नी जनक कुमारी सीता को भी छोड़ने को तैयार हूँ।राम अपनी इस प्रतिज्ञा के साथ खड़े रहे। सीता के वन में जाने के बाद राम ने राजभवन में कोई ऐसा सुख खुद नहीं जिया जो सीता को ऋषि आश्रम में न मिलता हो।

वह भूमि पर सोते थे। एक जून खाना खाते थे। जब अश्वमेध यज्ञ का समय आया तब गुरू वशिष्ठ ने कहा कि यज्ञ के पहले राम का विवाह ज़रूरी है। इसलिए राम के विवाह की तैयारी की जानी चाहिए । पहले गुरू के आदेश का निरादर नहीं हो सकता था। गुरू के आदेश का पालन ज़रूर था। पर जब राजा राम को पता चला कि गुरू वशिष्ठ उनके विवाह को कह रहे हैं। तब राम गुरू वशिष्ठ के पास गये और बोले,” राजा राम ने अपनी पत्नी का त्याग किया है, राम ने अपनी पत्नी का त्याग नहीं किया है, सीता पहले मेरे बग़ल में रहती थी। अब मेरे दिल में रहती है।”

इसके बाद राम के बग़ल में सोने की सीता रख कर अश्वमेध यज्ञ संपन्न हुआ। यही नहीं, जो लोग यह कहते हैं कि सीता ने लंका के अशोक वाटिका में रहने के बाद लौटने पर अग्नि परीक्षा क्यों ली? इसका उत्तर रामानन्द सागर ने अपने रामायण सीरियल में बहुत साफ़ तरह से दिखाया है।

सीता को अग्निदेव के पास सुरक्षित रखा

मानस में लिखा है-

सुनहू प्रिया ब्रत रुचिर सुशीला।

मैं कुछ करबि ललित नरलीला।

तुम्ह पावक महुं करहु निवासा।

जौ लगि करौं निशाचर नाशा ।

हे प्रिये! मैं अब कुछ मनोहर मनुष्य लीला करूँगा। इसलिए जब तक मैं राक्षसों का नाश करूं,तब तक तुम अग्नि में निवास करो। राम ने सीता को अग्नि देवता के पास सुरक्षित रहने के लिए भेज दिया था।

दशरथ के आदेश पर कौशल्या का बोलना

हमारे यहाँ यानी हमारी संस्कृति में स्त्री भोग की वस्तु नहीं है। हमारे यहाँ माता- पिता, सीता-राम , राधेश्याम, भवानी-शंकर, लक्ष्मी-नारायण, राधे-कृष्ण है। हमारे यहाँ लेडीज़ आलवेज फस्ट रहीं हैं । कौशल्या पूरे मानस में कुछ नहीं बोलती हैं। पर जब राम उनसे वन जाने के लिए आदेश लेने आते है, उन्हें पता लगता है कि महाराजा दशरथ ने उन्हें वन जाने का आदेश दे दिया है, तब कहती हैं-

जौं केवल पितु आयुस ताता।

तौ जनि ज़ाहु जानि बडि माता।

यानी यदि पिता ने वन जाने को कहा है तो मैं माता हूँ, मेरे पास अधिकार है, मैं पिता से बड़ी हूँ, माँ का स्थान पिता से बड़ा होता है, इसलिए कहती हूँ कि तुम वन नहीं जाओ।वन जाने की ज़रूरत नहीं है। लेकिन राम कहते हैं, सिर्फ़ पिता नहीं, माँ कैकेयी ने भी कहा है।

जब कौशल्या यह सुनती हैं कि माँ ने भी कह दिया है। तब कहती है-

जो पितु मातु कहेहु वन जाना ,

तो कानन सत अवध समाना।

तो वन अवश्य जाओ। वन तुम्हें अयोध्या के समान सुखदायी होगा।

तीन ऋण

हमारे यहाँ तीन ऋण कहें गये हैं। मातृ ऋण, पितृ ऋण, ऋषि ऋण(इसे गुरू ऋण भी कहते हैं)। पितृ ऋण से संतान होने बाद इंसान मुक्त हो जाता है। गुरू ऋण से गुरू दक्षिणा देकर मुक्त होने का चलन है । पर मातृ ऋण से मुक्त हुआ ही नहीं जा सकता ।

जीजाबाई नहीं होतीं तो शिवाजी नहीं होते। बुद्ध के होने के पीछे यशोधरा का होना था। सावित्री ने यमराज से अपने पति का जीवन वापस ले लिया था। शंकराचार्य को मंडन मिश्र के साथ शास्त्रार्थ में उनकी पत्नी को भी पराजित करना पड़ा था।हर सफल इंसान के पीछे किसी न किसी स्त्री का होना आपको ज़रूर मिलेगा।

इस योगदान का नहीं हो सकता मूल्यांकन

ये जो हमारी महिलाएँ चहारदीवारी में रहती हैं। बनी रहती हैं। उन सबके धैर्य को, उन सबके समर्पण को, उन सबके परिवार व समाज के निर्माण में योगदान का मूल्यांकन किया ही नहीं जा सकता। किया ही नहीं जाना चाहिए । क्योंकि उसमें लेने और देने का कोई रिश्ता नहीं है। उसमें लाभ हानि का हिसाब नहीं है। उसमें पाने की कोई मंशा नहीं है। सिर्फ़ देने का मन है। देने का विचार है। देने का आचार है।

मेरा विश्वास है कि कोई भी स्त्री प्रसव पीड़ा से गुजर जाती है तो वह महानता का वरण कर लेती है। माँ बनने की पीड़ा में दुख भी है, सुख भी है। ऐसा संयोग अन्यत्र कहीं नहीं मिलेगा। यह संयोग रचना करता है। भगवान ने रचना का अधिकार प्रकृति को दिया है। पुरूष को नहीं। माँ भगवान से बड़ी होती है क्योंकि उसका ऋण उतरता नहीं। आपके सुख में अपना सुख और आपके दुख में अपना दुख उसे ही दिखाई और सुनाई देता है।

मां की अहमियत बताने में शब्द कम हैं

माँ बनने के बाद उसकी समूची दुनिया बदल जाती है। इस बदली हुई दुनिया को वह पहले की अपनी सभी दुनिया से ज़्यादा प्रेम करती है। ज़्यादा इंज्वाय करती है। हर आदमी को अपनी माँ के हाथ का बना खाना सबसे लज़ीज़ लगता है।

मां की अहमियत को शब्दो में नहीं बयां किया जा सकता। मां वह टॉनिक है जो बच्चे की हर थकान हर उदासी दूर कर देती है। मां हमारी खामोशी को भी समझ लेती है। मां बहुत नाराज़ होती है तो रो देती हैl एक हाथ से थप्पड़ मारती है तो अगले ही पल दूसरे हाथ से रोटी खिलाती हैl माँ एक आशा होती है। माँ बच्चे की जिज्ञासा होती है। माँ अँधेरे में एक बाती है।

माँ बहुत वीर होती है। बच्चे के हर निशाने पर सधे ऐसी ही तीर होती है। मां ही मंदिर, मां ही पूजा, मां से बढ़कर कोई न दूजा।

वृद्धाश्रमों में किसकी माँ

सोशल मीडिया पर मदर्स डे के दिन देखिये किसने अपनी माँ को नहीं पूजा। सोशल मीडिया पर तो माँ को याद करने, नमन करने, माँ के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने और माँ पर तरस खाने को लेकर आये संदेशों की बाढ़ ने हमें बेहद परेशान कर दिया । मेरे ज़ेहन में यह सवाल कौंधने लगा कि आख़िर पूरे सोशल मीडिया की बस्ती में माँ ही माँ छाई है, तो फिर बनारस और वृंदावन की गलियों में वैध्यव काटते हुए भीख माँगते दिखने वाली और देश के वृद्धाश्रमों में किसकी माँ आई है। एक दिन माँ के लिए, एक दिन पिता के लिए बाक़ी सब अपने लिए।

यह चलन ठीक नहीं। इसका कोई रिश्ता हमारी संस्कृति से नहीं जुड़ता है। यह सिर्फ यह बताता है कि हमने जिसे माँ माना उसे कहीं का नहीं छोड़ा, उसकी महज़ तौहीन की। हमने गंगा को माँ माना। हमने गाय को माँ माना। हमने पृथ्वी को माँ माना। सबकी गति, सबकी दुर्गति से आप वाक़िफ़ ही होंगे। फिर जो असली माँ है। जिसे मानना नहीं है। उसके प्रति हमारा नज़रिया केवल मदर्स डे के दिन दिखना बहुत कुछ कह जाता है। इसके अनंत भाष्य हैं। पर जिस भी एंगिल से इसका भाष्य करेंगे। उसमें महज़ पीड़ा होगी। त्रासदी होगी। क्षोभ होगा । ग़ुस्सा होगा। क्योंकि अगर हम मातृ शक्ति का सम्मान करते तो माताओं, बहनों और बेटियों को अपमानित करने वालों को सम्मान व सम्मान वाले पद देते ही नहीं। पर हो ऐसा नहीं रहा है।

मदर्स डे का व्यवसायिकरण पसंद नहीं था

शायद यही वजह है कि दस मई को मदर्स डे मनाने की परंपरा डालने वाली एना जराविस ने अपने जीवन के अंतिम दिनों में इसे ख़त्म करने के लिए हस्ताक्षर अभियान शुरू कर दिया था। उन्हें माँ के नाम पर मनाये जाने वाले इस दिन का व्यवसायिकरण पसंद नहीं था। ग़ौरतलब है कि इसका व्यवसायीकरण उन दिनों ही हो गया था। एना के तेरह भाई बहन थे। पर युवा अवस्था तक चार ही पहुँच पाये। इसमें भी उनके बड़े भाई की ही संतान हो पाई। इनके आख़िरी वंशज की मौत 1990 में हुई। वह मदर्स डे की शुरू में वकालत सिर्फ़ इसलिए करती थीं ताकि माताएँ जो मानवता की अतुलनीय सेवाएँ करती हैं, उन्हें सम्मानित किया जा सके। उन्हें यह प्रेरणा अपनी माँ एन रीब्स जराविस से मिली थी।

एना ने नौ मई की तारीख़ इसलिए चुना

1858 में वह मेथाडिस्ट इपिस्कोपल चर्च से जुड़ी। वहाँ मदर्स डे नेटवर्क चलाती थीं। इसका उद्देश्य ऊँची शिशु मृत्यु दर और बाल मृत्यु दर को कम करना था। एना ने नौ मई की तारीख़ इसलिए चुना क्योंकि इनके माँ की पुण्यतिथि इसी समय पड़ती थी। इस दिन वह महिलाओं को सफ़ेद कार्नेशन का फूल बाँटती थीं। यह उनके माँ का पसंदीदा फूल था। लेकिन फूल वालों ने इस दिन यह फूल इतना महँगा कर दिया कि एना इसे लेकर बुरी तरह नाराज़ हो गईं। हालाँकि 1920 में उन्होंने लोगों से फूल न ख़रीदने की अपील तक की।

लेकिन 1910 में वेस्ट वर्जीनिया स्टेट और 1914 में राष्ट्रपति ने इसे अमेरिका का राजकीय दिवस घोषित कर दिया। पर एना इसको लेकर नाराज़ थीं कि इस दिन माताओं की सराहना की जानी थी न कि उन पर तरस खाया जाना था। उनकी लड़ाई जारी रही। हालाँकि एक धारणा यह भी है कि एना की लड़ाई के चलते ही महिलाओं को वोट देने और राजनीति करने का अधिकार हासिल हुआ। एना ने मई का दूसरा दिन मदर्स डे के नाम से कापी राइट भी करवा लिया था। मदर्स डे की शुरुआत करने वाली एना की मौत एक वृद्धा आश्रम में हुई।

मेरी माँ कितनी अनपढ़ है, एक रोटी माँगता हूँ तो दो लेकर आती है

जब एक रोटी के चार टुकड़े हों और खाने वाले पाँच हों तो मुझे भूख नहीं है ऐसा कहने वाली सिर्फ़ माँ होती है । आज रोटी के पीछे भागता हूँ तो याद आता है मुझे रोटी खिलाने के लिए मेरी माँ मेरे पीछे पीछे भागती थी । मेरी माँ कितनी अनपढ़ है, एक रोटी माँगता हूँ तो दो लेकर आती है। जब तक लोग माँ को कंधे पर नहीं उठा लेते तब तक माँ का कंधा बेटे के सर रखने के लिए हमेशा ख़ाली रहता है । घर में चाहे कितने भी लोग हों पर माँ न दिखे तो घर ख़ाली लगता है। माँ का रोल जीते जी समझ में आ जाता है और पिता का रोल उसके जाने के बाद समझ में आता है । याद कीजिए माँ के पेट पर कितनी लात मारी थी। बिस्तर कितनी बार भिगोया था।

माताओं की तमाम पीढ़ियाँ घरों की चहारदीवारी में ही रचती- बसती है। वह सोने का मृग देख भी नहीं लांघती अपनी लक्ष्मण रेखा। किसी ने माँ को अपनी ज़िंदगी जीते हुए है देखा।

लेखक न्यूजट्रैक/अपना भारत के संपादक हैं

Tags:    

Similar News