गठबंधन में पलीता: सपा-बसपा की ताल पर मुलायम का चरखा दांव

राजनीतिज्ञ भी मानते हैं कि मायावती का गठबंधन का शिगूफा अखिलेश के सहयोग से राज्यसभा पहुंचना है। राज्यसभा जाने के बाद मायावती चुनाव के समय कभी भी पलटी मार सकती हैं जिससे 2019 के लोकसभा चुनाव के गठबंधन की राजनीति ऐन मौके पर बिखर सकती है।

Update:2017-04-17 19:56 IST

Vijay S. Pankaj

लखनऊ: पिछले 22 वर्षो की उत्तर प्रदेश की राजनीति में समाजवादी पार्टी के नाम से भड़कने वाली मायावती अब गठबंधन के बोल बोलने लगी हैं। सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने गठबंधन पर हामी भरी तो आजम खां ने मिलन की आस में पलक पावड़े बिछा दिये। बुआ मायावती और भतीजे अखिलेश की यह कार्ययोजना बयानबाजी से आगे बढ़ती, कि मुलायम सिंह के एक चरखा दांव ने दोनों को ही चित्त कर दिया।

 

इस बीच प्रदेश की राजनीति में हाशिये पर चले गये तमाम नेता एवं राजनीतिक दल गठबंधन को लेकर कांग्रेस पर भी दबाव बनाने लगे। यह तो कांग्रेस की राष्ट्रीय राजनीतिक परिप्रेक्ष्य की गंभीरता का परिणाम रहा कि अभी उसने पत्ते नही खोले।

गठबंधन के पीछे

राजनीतिक हलके में यह चर्चा गर्म है कि मायावती की गठबंधन की राजनीति के पीछे अगले वर्ष होने वाला राज्यसभा का चुनाव है। 19 विधायकों के बल पर बसपा सुप्रीमो राज्यसभा के दरवाजे तक भी नही पहुंच पाएंगी। लोकसभा में बसपा का एक भी सदस्य नहीं है और अगले वर्ष राज्यसभा से भी बाहर होने के बाद केन्द्रीय राजनीति में मायावती का दबाव खत्म हो जाएगा। इसके साथ ही बसपा सुप्रीमो की बढ़ती चिन्ता भ्रष्टाचार के मामलों में चल रही जांचों को लेकर भी है।

भयभीत मायावती को यह चिन्ता सताने लगी है कि राज्यसभा का सदस्य न होने की स्थिति में जांच के मामलों में उन्हें जेल की भी हवा खानी पड़ सकती है। यही वजह रही कि अपने छोटे भाई आनन्द को भी भ्रष्टाचार एवं आय से अधिक संपत्ति के मामले में चल रही जांच से भयभीत होकर मायावती ने अपने ही नियमों को शिथिल करते हुए बसपा का उपाध्यक्ष बना दिया।

यह वही मायावती हैं जो नोटबंदी के दौरान स्वयं तथा आनन्द के बैंक एकाउन्ट में सैकड़ों करोड़ जमा करने को चुनौती देते हुए केन्द्र को कार्रवाई करने की धमकी दी थी। इस तमाम राजनीतिक उठापटक के बाद आनन्द के खिलाफ ईडी की एक छापे की कार्रवाई ने सारे कलपुर्जे ढीले कर दिये। कुछ इसी तरह के हालात पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के भी हैं। योगी सरकार की तमाम जांच संबंधी कार्रवाइयों में अखिलेश को विपरीत स्थितियों का सामना करना पड़ेगा।

अखिलेश के सामने चुनौतियां

अखिलेश ने चुनाव के दौरान परिवार और पार्टी में जिस प्रकार खाई डाली है, उसका भी उन्हें खामियाजा भुगतना पड़ेगा। राजनीतिक महासमर में अखिलेश परिवार में अलग-थलग पड़ गये हैं। बिखरे कुनबे को समेटना फिलहाल अखिलेश के लिए संभव नही लग रहा है तो दूसरी तरफ करारी चुनावी हार के बाद संगठन को मजबूती और स्थिरता देना कठिन चुनौती बन गया है।

इसके विपरीत यादवी कलह में अखिलेश के विरोधी चचा शिवपाल यादव तथा सौतेले भाई प्रतीक यादव एवं उनकी पत्नी की भाजपा से बढ़ती नजदीकियां घर से लेकर राजनीतिक सफर में कई दुश्वारियां पैदा कर सकती हैं। ऐसे में अखिलेश भी बसपा जैसे एक मजबूत सहयोगी की फिराक में हैं। वैसे मायावती के स्वभाव को जानने वाले कहते हैं कि अपना मतलब निकलने के बाद वह कभी भी किसी को झटका दे देती हैं।

पलटी मार राजनीति

भारतीय राजनीति में मायावती और मुलायम सिंह यादव सबसे अविश्वसनीय किरदार माने जाते हैं। यही वजह है कि मायावती के गठबंधन की पहल पर कांग्रेस ने चुप्पी साधे रखी। मायावती सपा, भाजपा और कांग्रेस को गठबंधन कर झटका दे चुकी हैं। मायावती के विश्वासघात का सबसे ज्यादा शिकार भाजपा रही है। राजनीतिज्ञ भी मानते हैं कि मायावती का गठबंधन का शिगूफा अखिलेश के सहयोग से राज्यसभा पहुंचना है। राज्यसभा जाने के बाद मायावती चुनाव के समय कभी भी पलटी मार सकती हैं जिससे 2019 के लोकसभा चुनाव के गठबंधन की राजनीति ऐन मौके पर बिखर सकती है।

यही वजह रही कि सपा संस्थापक मुलायम सिंह यादव ने साफ तौर पर बसपा से गठबंधन की बात को सिरे से ही नकार दिया। मुलायम को वह दिन याद है जबकि 1993 में सपा-बसपा गठबंधन की सरकार बनने पर मायावती हर माह गेस्ट हाउस में आकर मुलायम सिंह यादव से पार्टी खर्च के नाम पर धन की मांग करती थीं। यह मांग दिनोंदिन इतनी बढ़ती गयी कि अंत में मई 1995 में मुलायम के इनकार करने पर बसपा ने 1 जून को सरकार से समर्थन वापस ले लिया जिसके बाद 2 जून को स्टेट गेस्ट हाउस कांड जैसी घटना हु़ई।

मुश्किल है साथ

बसपा का पूरा आर्थिक तंत्र कार्यकर्ताओं से लेकर नेताओं तक पार्टी फंड के नाम पर धन उगाही करने का है। यह बात मायावती भी कई बार सार्वजनिक तौर पर कह चुकी हैं कि उनके पास जो भी पैसा है, वह कार्यकर्ताओं द्वारा दिया गया चन्दा है।

मायावती के स्वभाव और अखिलेश के अड़ियल रवैये को जानने वालों का कहना है कि इन दोनों के बीच एकता होना संभव नही है। अखिलेश जब कांग्रेस के राहुल गांधी से विधानसभा चुनाव में टिकट को लेकर तालमेल नहीं बिठा पाये तो लोकसभा के चुनाव में बसपा के साथ मिलकर लड़ना सांप और नेवले की दोस्ती करने जैसा होगा।

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