Landour Tourist Place: बेहद लुभावना घुमावदार सर्पीला रास्ता... चलिए फिर उसी पल को जीती हूं, जब लंढौर में ठहरा वक़्त
Landour Tourist Place: मेरा वक्त भी लंढौर से लौटने के बाद से थम सा गया है (रस्किन बांड बरसों पहले लंढौर में बस गये थे) मन जैसे वश में नहीं रहा। कब पंख फैला उड़़ते-उड़ते ’चार दुकान’ पर उतर जाता है कह नहीं सकती।;
Landour Tourist Place: हिन्दी पाठकों को ये शीर्षक कुछ सुना-पढ़ा सा लग सकता है। दरअसल कहने को अंग्रेजी साहित्यकार, किंतु मन से पूरी तरह से भारतीय रहे रस्किन बांड द्वारा संपादित हिन्दी कहानी संग्रह ’शामली में ठहरा वक्त’ के नामा रूप ही है ये शीर्षक। जैसे शामली में उनका मन रमा था वैसे ही मेरा वक्त भी लंढौर से लौटने के बाद से थम सा गया है (रस्किन बांड बरसों पहले लंढौर में बस गये थे) मन जैसे वश में नहीं रहा। कब पंख फैला उड़़ते-उड़ते ’चार दुकान’ पर उतर जाता है कह नहीं सकती। अभी भी पलक झपकते ही मेरा मन वहां पहुंच जाता और उस वातावरण को महसूस कर गहरी सांस लेने लगता।
चलिए आज आपके साथ उस पल को पुनः आरंभ से जीती हूं। मसूरी चलने के बेटी के आग्रह को पहले मैंने सिरे से नकार दिया था। लेकिन फिर उसके लंढौर के बारे में बताने पर में राजी हो गई। वाकई मैं बहुत पछताती अगर उसकी उस वक्त बात न मानती। यकीनन मसूरी ने इस बार मुझे चौंका दिया। इस से पूर्व ये कभी मुझे आकर्षित नहीं कर सकी। लेकिन इस बार यहां की ठंडी हवा इंद्रियों में सनसनी पैदा कर रही थी, पहाड़ियों की चोटियों से डूबते भास्कर, हरे और भूरे रंग के अलग-अलग शेड दिखाते देवदार और ओक के वृ़क्ष, तैरती धुंध...लंबी घुमावदार सड़कें, छोटे-छोटे कैफ़े....रंगबिरंगे बाजार, हर चीज जैसे मन को मोह रही थी।
लेकिन मैं यहां बात लंढौर की करना चाह रही, जो मसूरी के निकट एक छोटा सा एक विचित्र सा हिल स्टेशन है, जिसे औपनिवेशिक युग का आकर्षण कहे तो गलत न होगा, और जो एक कालातीत आकर्षण को अभी भी बरकरार रखे हुए है। कहा जाता है कि वास्तुकला और विरासत के लिए प्रसिद्ध लंढौर को ब्रिटिश राज के दौरान ब्रिटिश सेना के लिए एक अभयारण्य के रूप में स्थापित किया गया था। यह क्षेत्र ’चार दुकान’ से शुरू होकर विशाल ’कॉटेजों’, ’लाल टिब्बा’, ’ऐतिहासिक चर्च’ और ’बेकहाउस कैफे’ और छोटे से ’सिस्टर हाउस’ पर जाकर समाप्त हो जाता है। लेकिन ये कहने को छोटा लेकिन लंबा सफर आपकी स्मृति पटल पर उम्र भर के लिए अपनी छाप छोड़ने के लिए काफी है।
पहले स्पॉट ’चार दुकान’ पर उतरते ही मंद पर हल्की सर्द हवा के झोंके कानों में कुछ कह बालों की लटों को छेड़ कर निकल गई तो मैं भीतर ही भीतर गुदगुदा कर रह गई। दुकान के पास स्थित सेंट पॉल चर्च जो कि 1840 में बना था, फिलहाल उस दिन बंद था। कुछ देर उसके सामने रूक, कुछ-कुछ यूरोपियन कंट्री साटड से दिखते उस हरे भरे पहाड़ी स्थल से, सहज आकर्षित हो हम चारों तरफ का नज़ारा लेने लगी। आसपास गिने-चुने लोगों भी आश्चर्यजनक रूप से शांत भाव से कुदरत के नज़ारों का लुत्फ उठा रही थी। कुछ शरारती बंदरों की निगाहें खाने-पीने के सामान को हड़पने के ताक में दिख रही थी। उनसे बचते हुए हम भी जाकर उन ’चार दुकान’ में से एक पर जाकर बैठ गये। मैगी, प्याज की पकौड़ी और चाय ने 6000 फीट की ऊंचाई पर उस पल की याद करा दी, जिस पल में ऐसे ही सुकून और तृप्त भाव की कामना की थी। मैंने चांदी से दमकते सूर्यदेव का इस पल के लिए आभार व्यक्त किया, जिनका स्पर्श इस वक्त किसी मां के आंचल सा प्रतीत हो रहा था। उदर संतुष्ट हो चुका था। अब हमें उस स्थान के लिए आगे बढ़ना था जिसे ’लाल तिब्बत’ कहा जाता है।
दूर तक दिखता घुमावदार सर्पीला रास्ता बेहद लुभावना लग रहा था। दोनों तरफ देवदार, बुरूंस के कतारबद्ध तरीके से खड़े वृ़क्ष बांहें फैलाये आपका स्वागत कर रहे थे। यहां आकर महसूस हो रहा था कि मौन कैसे स्वर बन जाते है। इस ध्वनि को अगर आप सुनना चाहे तो ये बहुत कुछ कहती लगती है। घाटी से आती हवा, वृक्षों से टकरा ’यानी’ के प्यानों की द्रुत सुरलहरी सी, तरंगित होकर मेरे कानों को झूमने पर मजबूर कर रही थी। हवा की छुअन से रोम-रोम आहलाद्ति हो रहा था। फिल्म ’सिलसिला’ के गाने के बोेल “ये कहां आ गये“... खुद ब खुद होंठो में उतर आया था। इस करिश्माई अहसास के साथ उस सर्पाकर पगडंडी पर कितना चल चुकी थी, पता नहीं लग पा रहा था। पर जान रही थी अब तक कई मोड़ ले चुकी हूं। पांवों में भी अजब फुर्ती थी। चलते-चलते थकने का नाम नहीं ले रहे थे। चारों ओर घनी हरियाली ही हरियाली, गगनचुंबी लेकिन तन के खड़े वृक्ष, स्वच्छ नीला आकाश और मौन के वशीभूत मैं बस चलती जा रही थी। कोई साथ नहीं फिर भी जैसे कोई साथ चल रहा है। मन खुद ब खुद रोमांचित सा सपनीली दुनिया के जाल बुन रहा था। ये दृश्यमान कुदरती जादू का ही असर था जो मेरे सर चढ़ के बोल रहा था। हर दृश्य को कैद कर लेने की चाहत कैमरे का शटर बंद ही नहीं होने दे रही थी। सच कहूं तो रश्क हो रहा था उन वांशिदों पर जो यहां एक सदी से अपने आलीशान विलॉज में पीढ़ी दर पीढ़ी रह रहे थे। यहां स्थित कब्रगाह इस बात के गवाह है कि इस स्थान को वे मरने के बाद भी नहीं छोड़ना चाहते थे। आपको कुछ अजीब लग सकता है लेकिन लंढौर में 'लंढौर कब्रिस्तान' और 'क्रिश्चियन कब्रिस्तान' के आसपास शांत बैठ कर चिंतन करना या फिर उनके पास से गंजरते हुए उस पल को महसूस करना, दिलचस्प लगता हैं।
मेरे पीछे आते, मेरी बेटी और उसका दोस्त अपने अंदाज में उस खामोशी को सुन रहे थे या कहूं उस पल को जी रहे थे। मुझको उनकी चिंतनशील स्थिति किसी तनावमुक्त साधना सी लग रही थी। मैं उनके उस पल को अनदेखा करती चलती रही। कभी ठहरती, तो कभी मुग्ध सी खड़ी प्रकृति की छटा निहारती रही जब तक कि उन दोनों की आहट ने मेरी तंद्रा को भंग नहीं कर दिया। मैं हैरान थी... उन दोनों के पीछे रह जाने के बावजूद, यहां तक कि आसपास कोई न होने पर भी... उस नितांत घने सन्नाटे में न कोई भय था और न किसी तरह की घबराहट का अहसास। मन शांत संतुष्ट था। सुंदर रास्ते जैसे खुद आपके लिए राह बना रहे थे। और जब इस लंबे रास्ते का पहला ठहराव आया तो वाकई आंखें ठहर सी गई। मेरे आंखों को यकीन नहीं हो रहा था। मेरी ऑखों के सामने चांदी सी चमकती बर्फीली हिमालय की चोटियां नजर आ रही थी, जिनमें चारों धाम केदारनाथ-बदरीनाथ, गंगोत्री और यमनोत्री स्थित है। ये ऑंखों से जितनी दूर नजर आ रही थी, उतने ही दिल के करीब हो रही थी। यहां से हिमालय के दर्शन दूरबीन से कराने वाली बस एक दुकान, जो लगभग 100 साल पुरानी है और जिसके नाम पर इस जगह का नाम ही पड़ गया...’लाल टिब्बा।’
मेरा मन सामने दिख रही बर्फीली पहाड़ियों के साथ-साथ चलते हुए उत्फुलित हो रहा था। कल्पित कल्पनायें उस बर्फीली चोटी की सर्द लहर और उससे निकलती तरंगित ध्वनि को अपने भीतर तक महसूस कर रही थी। ये साथ अपने आप में अद्भुत था..आपके अगल-बगल घने हरे भरे वृक्षों की कतार और नैंनो को दृष्टिगोचर होती चमकती चांदी सी बर्फीली छटा। साथ-साथ चलते हुए जिस आत्मिक अहसास को मैने महसूस किया वह अब समझ आने लगा था। केदारनाथ-बदरीनाथ धाम की ये चोटियां मुझे भावुक कर रही थी। दूर से ही सही केदारनाथ बाबा के प्रतीकात्मक दर्शन हो जाएंगें। वाकई ये दृश्य मेरी सोच से बाहर था। उस वक्त मेरा मन यही कह रहा था, काश! यही सांस थम जाये और सदा के लिए ये वक्त मेरा होकर रह जाये। मेरी ऑंखे इस दृश्य को देख ही नहीं रही थी...कह सकती हूं आंखों में जी भर के भर लेना चाह रही थी। चलते-चलते हम प्राचीन वास्तुशिल्प के सुंदर नमूने 1903 में स्थापित एक और चर्च ’केलॉग चर्च’ (1903) को पार कर एक होम स्टे...’देवदार वुड्स’, पर होते हुए ’लंढौर बेकहाउस’ (इटालियन स्वाद केन्द्र) और लैंडोर के बेहद चर्चित ’सिस्टर बाजार’ की तरफ बढ़ गये। यात्रा का अंतिम पड़ाव पूरा कर वापसी पर प्रफुल्लित मन को लेकर जब हम मसूरी लौटे तो ये तय हो ही गया कि वापसी से पहले लंढौर एक बार और आना ही होगा। और यकीनन लंढौर की दूसरी यात्रा को भी हमने अविस्मरणीय यादों के साथ समाप्त किया।
लंढौर के नयनाभिराम दृश्यों को शब्दों में गूंथना मेरे बस में नहीं लेकिन उस मौन को सुनना, पत्तों की सरसराहट की तरंगिंत ध्वनि पर लहराते मन को कल्पना के पंख देना और महकती शुद्ध हवा को अपने भीतर की गहराई तक महसूस करना मेरे वश में अवश्य है।
लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं