कविता, लाल रंग: पिछले होली रंगा था, जो तुमने मुझे.......

Update: 2018-02-28 10:25 GMT

आर्यावर्ती सरोज

सुनो !

पिछले होली रंगा था,

जो तुमने मुझे.......

वो रंग अभी उतरा नहीं

जब वाह्यांतर रंग चुका हो

प्रीत के गुलाबी रंग से....

फिर कैसे चढ़ेगा ?

कोई और रंग??

मेरे कपोल गुलाबी,

मेरे अधर गुलाबी,

अंग गुलाबी-रंग गुलाबी,

हाव-भावसब भए गुलाबी

अब ये रंग न उतरेगा

और न इस पर चढ़ेगा

अब कोई भी रंग।

 

सुनो !

अबकी होली में जब आना

सूर्खलाल रंग लेकर आना

मेरी मांग भर जाना ........

जो जीवन में कभी न उतरे

प्रेम का रंग वो लेकर आना

साल भर पर नहीं............

सिफऱ् फागुन में नहीं,

नित-दिन मेरी मांग भरे

वो सूर्ख लाल रंग लेकर आना

चूडिय़ाँ, बिंदी, होठों की लाली

और मेरी साड़ी.............

सुहागन बन रंग जाऊँ मैं

भीतर -बाहर लाल रंग

जो तुम्हारे साथ होने का प्रतीक हो।

वो चटक, गहरा लाल रंग।।

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