क्या कहेंगे लोग,
कहने को बचा ही क्या?
यदि नहीं हमने,
तो उनने भी रचा ही क्या?
उंगलियां हम पर उठाये-कहें तो कहते रहें वे,
फिर भले ही पड़ौसों में रहें तो रहते रहे वे।
परखने में आज तक,
उनको जंचा ही क्या?
हैं कि जब मुंह में जुबानें, चलेंगी ही।
कड़ाही चूल्हों-चढ़ी कुछ तलेंगी ही।
मु तों से पेट में-
उनके पचा ही क्या?
कहीं हल्दी, कहीं चंदन, कहीं कालिख,
उतारू हैं ठोकने को दोस्त दुश्मन सभी नालिश
इशारों पर आज तक
अपने नचा ही क्या?