कविता: कोई और छाँव देखेंगे

Update:2018-11-17 12:36 IST

डॉ. तारा प्रकाश जोशी

कोई और छाँव देखेंगे

लाभों घाटों की नगरी तज

चल दे और गाँव देखेंगे

 

सुबह सुबह के

सपने लेकर, हाटों हाटों खाए फेरे

ज्यों कोई भोला बंजारा पहुँचे कहीं ठगों के डेरे

इस मंडी में ओछे सौदे कोई और

भाव देखेंगे

 

भरी दुपहरी

गाँठ गँवाई, जिससे पूछा बात बनाई

जैसी किसी गाँव वासी की महानगर ने हँसी उड़ाई

ठौर ठिकाने विष के दागे कोई और

ठाँव देखेंगे

 

दिन ढल गया

उठ गया मेला, खाली रहा उम्र का ठेला

ज्यों पुतलीघर के पर्दे पर खेला रह जाए अनखेला

हार गए यह जनम जुए में कोई और

दाँव देखेंगे

 

किसे बताएँ

इतनी पीड़ा, किसने मन आँगन में बोई

मोती के व्यापारी को क्या, सीप उम्रभर कितना रोई

मन के गोताखोर मिलेंगे कोई और

नाव देखेंगे।

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