राजनीतिक दलों को मिलने वाले विदेशी चंदे का मुद्दा एक बार फिर गरमा गया है। मामला 2016 में बने विदेशी चंदा नियमन कानून और 2018 में उसमें किए गए संशोधन का है। वर्ष 2019 में होने वाले आम चुनाव से पूर्व राजनीतिक दलों के पास आ रहे धन का नियमन एवं नियंत्रण जरूरी है। लोकतंत्र की एक बड़ी विसंगति या समस्या उस धन को लेकर है, जो चुपचाप, बिना किसी लिखा-पढ़ी के दलों, नेताओं और उम्मीदवारों को पहुंचाया जाता है, जिससे देश के बड़े आयोजन चलते हैं राजनैतिक रैलियां, सभाएं, चुनाव प्रचार होता है। उम्मीदवारों के साथ-साथ मतदाताओं को लुभाने एवं उन्हें प्रलोभन देने में इस धन का उपयोग होता है।
राजनीतिक चंदे का मामला 1976 में शुरू हुआ था, जब विदेशी चंदा लेने पर पूरी तरह रोक लगा दी गई थी। यह रोक उन कंपनियों से चंदा लेने पर भी थी, जिसमें 50 फीसदी से ज्यादा हिस्सेदारी विदेशी हो। 1976 वह समय था, जब देश में आपातकाल लगा हुआ था। वर्ष 2010 में इस कानून में संशोधन करके इस रोक को खत्म कर दिया गया।
प्रश्न यह है कि वर्ष 2016 में बने विदेशी चंदा कानून में संशोधन की जरूरत क्यों पड़ी? क्योंकि राजनीतिक दलों को मिलने वाले घरेलू चंदे का पहले नियम यह था कि राजनीतिक दल अगर किसी से 20,000 रुपये तक का चंदा लेते हैं, तो उन्हें उसके नाम का खुलासा नहीं करना पड़ेगा। हालांकि उन्हें इससे ज्यादा चंदे की रकम भी मिलती थी, लेकिन कोई भी चंदादाता अपना नाम किसी दल विशेष के साथ नहीं जोडऩा चाहता था, इसलिए ऐसे कई ट्रस्ट बनाए गए थे, जो राजनीतिक दलों को चंदा देते थे। अब सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे चंदे की वैधता जांचने के आदेश दिये हैं। इस बीच केंद्र सरकार राजनीतिक चंदे के कई नियम बदल चुकी है।
अब तो 2,000 रुपये से भी ज्यादा चंदा लेने पर चंदा देने वाले का नाम बताना जरूरी कर दिया गया है। इसके अलावा चंदे के बांड की व्यवस्था भी बनाई है, लेकिन यह सुधार कितना कारगर हुआ है, अभी नहीं कहा जा सकता। यह कहना भी मुश्किल है कि राजनीतिक दलों को विदेश से मिलने वाली मदद इस कानून के बन जाने के बाद कितनी प्रभावित हुई है। आज चुनाव में होने वाले खर्च लोकतंत्र की एक बड़ी समस्या बन गयी है। राजनीतिक चंदे को पारदर्शी बनाकर ही इस समस्या का समाधान हो सकता है।
जब प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी लोकतंत्र को मजबूत करने की दिशा में सक्रिय हैं तो उनके प्रयत्नों में भी वैसा होता हुआ दिखाई देना चाहिए। लेकिन राजनीतिक चंदे को नियंत्रित करते एवं उसे पारदर्शी बनाने की वकालत करते-करते चुनावी बॉण्ड कहां से आ गया? क्योंकि यहां सवाल दुहरे मानदंडों का उतना नहीं, जितना संवैधानिक संस्थाओं और लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति राजनीतिक वर्ग के रवैये का है। प्रत्येक राजनीति पार्टी चाहती है कि जब वह सत्ता में हो, उसके ऊपर किसी का अंकुश न हो। ये सब उसे तभी याद आते हैं जब वह सत्ता से बाहर होती है। ऐसे में राजनीतिक चंदे के नाम पर लोकतंत्र को दूषित करने की कोशिशों पर विराम लगना जरूरी है। सुप्रीम कोर्ट की सक्रियता से यह मुद्दा गर्माया है तो इसका निष्कर्ष लोकतंत्र को मजबूत करने का आधार बनना चाहिए।
(लेखक, वरिष्ठ पत्रकार हैं)