Murli Manohar Joshi: समस्याओं का हल केवल तर्क के आधार पर नहीं होता

Murli Manohar Joshi: सबसे पहले अनेक बंधुओं को इस बात का आश्चर्य हुआ होगा कि आज तक जिसे हम प्रज्ञा भारती इस नाम से संबोधित करते थे वह अचानक प्रज्ञा प्रवाह कैसे बन गया।

Newstrack :  Network
Update:2022-11-29 07:05 IST

Dr. Murli Manohar Joshi (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

Murli Manohar Joshi: मान्यवर, ठेंगजी तथा देशभर में प्रज्ञा के प्रवाह को पुल बनाने के लिए बद्ध परिकर उपस्थित बहनों एवं भाइयों। सबसे पहले अनेक बंधुओं को इस बात का आश्चर्य हुआ होगा कि आज तक जिसे हम प्रज्ञा भारती इस नाम से संबोधित करते थे वह अचानक प्रज्ञा प्रवाह कैसे बन गया। सर्वप्रथम जब इस प्रकार के एक बौद्घिक आन्दोलन को प्रारम्भ करने का निश्चय हुआ कलकत्ता में, उस समय यह सोचा गया था कि प्रत्येक प्रान्त में अलग-अलग नामों से स्वयं स्फूर्ति ढंग से चले। अब प्रज्ञा भारती नाम केवल इस आन्दोलन का रहे किन्तु प्रारम्भिक उत्साही कुछ प्रान्तों ने अपने वहां प्रज्ञा भारती नाम से ही अपने आन्दोलन को प्रारम्भ कर दिया। न तो उनसे यह कहा गया कि अपना नाम बदलो, प्रज्ञा भारती तो इस आन्दोलन का नाम है। इसमें भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रवाह भिन्न-भिन्न प्रान्तों के जुड़ने दो।

तो जैसे राजस्थान ने अपना नाम बदल दिया, उत्तर प्रदेश ने अपना नाम बदल दिया, किन्तु आंध्र प्रदेश के लोगों ने कहा कि हम लोगों ने तो अब इसको पंजीकृत भी करा लिया है और पिछले तीन-चार वर्षों में वह यहां के जनमानस में प्रस्थापित भी हो चुके हैं और इसलिए अब इस नाम को बदलना हमारे लिए कठिन है। तो फिर यह सोचा कि उनके लिए अगर कठिन है तो यह जो आन्दोलन का नाम है इसी को क्यों न बदल दिया जाए तो फिर इसलिए सोचा गया कि क्या करना चाहिये ? उसमें से यह नाम स्पष्ट कि प्रज्ञा प्रवाह रखा पाए। प्रवाह एक प्रवाह है, एक आन्दोलन है लेकिन प्रज्ञा भारती में जो भारतीय प्रज्ञा का बोध होता है वह इस प्रज्ञा-प्रवाह में नहीं होता है लेकिन विचार-विमर्श के उपरान्त यही नाम सबसे अच्छा लगा किन्तु उसमें एक विचार यह भी आया कि प्रज्ञा शब्द जो है, यह तो पूर्णतः एक भारतीय अवधारणा है।

हमारे यहां पर एक शब्द प्रयोग होता है अधिइति। अधिइति का मतलब होता है देव निन्दन। अनुभव के आधार के ऊपर अपने अध्ययन को परखना, उसकी परीक्षा करना, उसको और अधिक सार्थक बनाना। अब इस प्रकार के प्रयोग क्रिश्चियन लोग भी करते हैं कि जहां-जहां जो भिन्न-भिन्न कार्यकर्ता काम करते हैं उनको जो नये-नये अनुभव आते हैं, वह सारे अनुभवों को लिखकर के भेजते हैं, फिर उनका सम्मेलन होता है। उन सारे अनुभवों पर विचार होता है और विचार होने से फिर उसमें से क्या बदल करना चाहिये, कौनसी रणनीति अपनानी चाहिये, इस पर वह लोग सोचते है।

हमारे यहां पर भी हर तीन साल के बाद जो कुंभ मेला होता है, उस कुंभ मेले में भी इसी प्रकार की प्रक्रिया है कि देश भर के जितने साधु, सन्यासी, चिन्तक, योगी, यह सब लोग एकत्रित हों और विचार करें। आज कल तो थोड़ा सा कम हो गया, नहीं तो पहले हम अपने पुराणों में पढ़ते है "एकदा नैमिषारण्य" नैमिषारण्य में सारे लोग इकट्ठा हुआ करते थे, अनेक दिनों तक उनके बीच में चर्चाएं चला, चर्चा सत्र चला करते थे और फिर क्या चीजें सामने लाना चाहिए, क्या चीजें छोड़नी चाहिए, इसका विचार होता था। उनसे नये आये है, कौन गये या प्रसंग इसके अन्दर जुड़ सकते हैं तो कभी नैमिषारण्य में होता था, कभी दण्डकारण्य में होता था। तो इस प्रकार के और प्रज्ञा के जो आन्दोलन हैं यह सब समय में चलते आये हैं। महाभारत का भी इतना बड़ा ग्रंथ जो है, वह प्रारम्भ में केवल पच्चीस हजार श्लोकों का था। वह आज लगभग डेढ़, दो लाख श्लोकों का हो गया है। इसका मात्र कारण यह है कि उसमें अनेक चीजें अपने अपने अनुभव के आधार के ऊपर जुड़ती चली गयीं।

लेकिन इस अधिइति शब्द के साथ एक और शब्द है अधिइतिबोध। उनका कहना है कि जो भी समस्याएं हैं उनका हल केवल तर्क के आधार पर नहीं होता। हम लोगों को जो अनुभूति प्राप्त होती है काम करते-करते; काम करते करते जो अनुभव प्राप्त होता है उस अनुभव के कारण हमारी एक विशेष प्रकार की प्रज्ञा का विकास होता है और उस प्रज्ञा के विकास में से हमको समस्याओं के समाधान प्राप्त होते हैं, समस्याओं के उत्तर प्राप्त होते हैं और जिसकी प्रज्ञा जितनी अधिक प्रगत होगी, जितनी अधिक उन्नत होगी उस व्यक्ति से उतने ही अधिक अच्छे समाधान की हम अपेक्षा कर सकते हैं। हम जानते हैं कि स्वमी रामकृष्ण परमहं पढ़े-लिखे तो "नहीं" ये शायद दो कक्षा पढ़े होंगे, व्यवहारिक शिक्षा किन्तु उन्होंने • अपनी प्रज्ञा की इतना अधिक उन्नत बना लिया था कि उसके कारण वह कठिन से कठिन प्रश्नों का भी इतना तरल उत्तर दे देते थे और यही कारण है कि स्वामी विवेकानन्दनी जब उनके पास प्रश्न लेकर पहुँचे कि स्वामीजी आपने भगवान को देखा है तो बड़े सहज ढंग से कहा मैं तुमको देखता हूँ, जैसे बाकी लोगों को देखता हूं, जैसे तुमसे बात करता हूँ, बैसे में भगवान से भी बात करता हूं, मैंने देखा है।

ऋतंभरा प्रज्ञा

अनेक लोगों के पास घूमकर आये नरेन्द्रनाथ को पहली बार यह उत्तर सुनने को मिला कि हां, मैंने देखा है और फिर नरेन्द्रनाथ ने अनुभव किया कि लोग कैसे कैसे प्रश्न पूछते थे। लेकिन ऐसा एक छोटा सा उदाहरण देकर उसको ऐसे समझा देते थे। उनको आश्चर्य हुआ कि जरूर यह व्यक्ति जो कहता है निश्चित रूप से अवश्य करता होगा तो जिसकी प्रज्ञा जितनी अधिक प्रबल हो जाती है उसी को हमारे यहां पर एक दूसरा शब्द दिया गया है ऋतंभरा प्रज्ञा। ऋतंभरा प्रज्ञा यानि सत्यनिष्ठ, सत्य अन्वेषी प्रज्ञा | इस प्रकार की प्रज्ञा को हमारे यहां ऋतंभरा कहा गया है। या जैसी परिभाषा किसी ने की है, नव-नवोन्मेषी प्रतिभा, यानी प्रज्ञा है। तो नये-नये प्रकार के विचार नये-नये प्रकार की चीजें,, ये मन के अन्दर उत्पन्न होती रहती हैं। अब इस बात को आजकल का विज्ञान भी मानने लगा है

कि जो कुछ भिन्न-भिन्न अविष्कार होते हैं वह केवल तथ्यों पर या तर्क के आधार पर नहीं होते। तो दिमाग के अन्दर कोई न कोई इस प्रकार की अन्ततः प्रज्ञा रहती है जिसको कई बार की इंट्यूशन कहते हैं। इस अन्तःप्रज्ञा के आधार पर एक नयी चीज लोगों के दिमाग में आ जाती है। डेविड बोम नाम का जो क्वांटम वैज्ञानिक है, वह बोलता है कि Ultimately the origin of all this lies in the creative intelligence which is beyond anything that can be discussed in the manifest physical side. भौतिक ढंग से जिसका हम विचार नहीं कर सकते उससे भी परे इस प्रकार को एक क्रियेटिव इंटेलिजेंस है। यह जो क्रियेटिव इंटेलिजेंस है, इसी को हमारे यहां पर ऋतंभरा प्रज्ञा कहा गया है। गैरीजुको नाम का एक व्यक्ति है, वह कहता है An open mind is of ten the first step in the process of enlightenment. खुला दिमाग़ चाहिये, खुला मस्तिष्क चाहिये। Intuition is what makes the scientists take the critical leap. मन में जो एक विचार आता है, उससे प्रयोग कर रहे हैं, अचानक उसमें से एक दूसरी चीज दूसरा विचार कौंध जाता है । दिमाग में आ जाता है, काँध जाता है, तो इसको हमारे यहां पर प्रज्ञा माना है और इसलिए हमारे यहां पर कहा कि अपना दिमाग बंद मत करो।

बंद दिमाग का अंधेरा अपनी ही सीमा बन जाता है

ऋग्वेद के अन्दर कहा है कि एक बंद मस्तिष्क में उसके स्वयं का अंधकार हो उसको सीमा बन जाता है। The darkness of closed mind becomes its own limit. और इसलिए कहा गया कि जिसका खुला मस्तिष्क है उसमें दुनिया के कोने कोने से विचार उसके पास में आते हैं। हमारे यहां इस प्रकार की प्रज्ञा अगर विकसित करनी हो तो क्या करना चाहिये ? इसका बड़ा अच्छा वर्णन स्थितिप्रज्ञ ज्ञात वर्णन जो गीता में किया गया है उसमें है । लम्बा वर्णन है । उसमें से एक चीज है पृतिष्ठिता। शुभ हुआ, अशुभ हुआ तो भी जिसका मन विचलित नहीं होता है, जो अभिनन्दन से खुश नहीं होता, जिसकी निन्दा हो गयी। तो कोई बुरा नहीं लगता, यह जो व्यक्ति हैं उसको प्रज्ञा स्थिर है और ऐसी स्थिर प्रज्ञा वाला व्यक्ति सब चीजों का ठीक प्रकार विश्लेषण कर सकता है।

इस नाते से यह जो प्रज्ञा का विचार है, यह सत्यान्वेषी, सत्यनिष्ठ प्रज्ञा, इसका इस प्रवाह, हमने यही नाम इस आन्दोलन को दिया है और मैं समझता हूं आप सब लोगों की भी इसमें सहमति होगी, क्योंकि यह कुछ लोगों ने मिलकर किया, आप सब लोग यहां पर एकत्रित हैं, इसमें से और भी अच्छा नाम आपको सूझता है तो वह भी बता सकते हैं। 1994 में हम सब लोग 'जलगांव में मिले थे और जलगांव में हमने अपने आधारभूत तत्वज्ञान पर विचार किया था। डॉ  मुरली मनोहर जोशी ने एक अच्छा प्रबंध लिखा था। उस प्रबंध के ऊपर अच्छा गहराई के साथ विचार-विमर्श हुआ। एक शिकायत तब लोगों की अवश्य थी कि यह प्रबंध हम लोगों को अगर पहले मिल जाता तो इसका हम लोग गहराई से अध्ययन करके आते और यह चर्चा अधिक सार्थक होती। तो यह उस समय कमी रही।

दूसरी बार हम लोग पुणे में मिले। तो डा. मुरली मनोहर जोशी से कहा गया था कि जो भी सुझाव आये हुए हैं, उन सब सुझावों का समावेश हम करके आप उसको अंतिम रूप दे दें, हम उसको पुस्तिका के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं और यह अपने प्रज्ञा प्रवाह की पहली पुस्तिका है, ऐसा हम लोगों के सामने कह सकेंगे। लेकिन वह अपनी राजनीतिक व्यस्तता के कारण पीछे पड़ने के पश्चात भी इन दो वर्षों में अपना काम पूरा नहीं कर सके।

दस दिन पहले तक भी मैंने कहा था कि आप अभी भी कर दीजिए को हम पुस्तिका छपा देते हैं। लेकिन उन्होंने कहा नहीं। अब तो हम दशहरे के बाद ही दो, चार दिन अलग से रहकर ही बैठेंगे और इसको पूरा करने का प्रयत्न करेंगे। पता नहीं वह भी हो पाता कि नहीं। उस अभाव के कारण ही आज यह जो अपना उद्घाटन का सत्र है, इसमें अपने को थोड़ा सा उसका स्मरण करना भी आवश्यक है कि हमारा आधारभूत तत्व ज्ञान क्या हैं। बाद में हम 1995 में हैदराबाद में मिले थे। हैदराबाद में केवल प्रज्ञा प्रकोष्ठ, यानि यह जो सम्पूर्ण आन्दोलन है इसका संचालन करने के लिए हमने एक प्रकोष्ठ बनाया है, उसको भारतीय प्रज्ञा प्रतिष्ठान (Bhartiya Pragya Pratishthan) नाम दिया है और इसके प्रमुख लोग हैदराबाद में मिले थे और उसमें प्रमुखतया हमने अपने सामने जो उद्देश्य रखे हैं, आब्जेक्टिवस रखे हैं, उनका पुनर्विचार किया और पुनर्विचार करके उस समय उसको एक ठीक रूप देने का हम सब लोगों ने प्रयत्न किया।

फिर पिछले साल हम पुणे में मिले थे तो हम सब जानते हैं कि पिछले साल मई मास में 15 दिन के अन्तराल में हो जो सत्ता परिवर्तन जो केन्द्र में हुआ। चुनाव हुए, सत्ता परिवर्तन हुआ और उन दोनों सत्ता परिवर्तनों के समय में जो लोकसभा में बहस हुई उसका सम्पूर्ण भारत में दूरदर्शन के द्वारा प्रसारण किया गया। उन बहसों में से जो विभिन्न प्रकार के विषय निकले उन सारे विषयों पर हम लोगों ने वहां पर चर्चा की कि भारत एक प्राचीन राष्ट्र है या नहीं, एक राष्ट्र एक संस्कृति है कि नहीं है। फिर सेक्युलरिज्म और साम्प्रदायिकता ऐसे सारे विषयों पर हम लोगों ने विचार किया। काफी अच्छे और मौलिक विचार लोगों के आये। लेकिन उस सम्मेलन के अन्दर कमी यह रही कि उन विचारों को संकलित करके उनका सार संक्षेप तैयार किया जाता और आप सब लोगों के पास भेजा जाता। लेकिन यह बात उम्र समय सम्भव नहीं हो सकी। इस अधिवेशन में यह प्रयत्न अवश्य हमारे बंधु कर रहे हैं कि यह दोनों कमियां जो पिछली बार की थी, वह इस बार न रहें और इसलिए प्रयत्न यह किया गया कि यह जो हमने विषय लिया है विकास की अवधारणा, हमारी चुनौतियां और समस्याओं के समाधान, तो इसके सम्बन्ध में एक चार जो प्रबन्ध हैं यह आप लोगों के पास भेजे गये हैं।

एक गुरुमूर्ति जी ने लिखा हुआ है वह प्रबन्ध सबके पास भेजा गया। एक पी. सी. जोशी हैं उनका एक प्रबन्ध भेजा गया, एक हमारे बजरंग लाल जी गुप्त हैं उनका एक प्रबन्ध था और एक स्वदेशी जागरण मंच ने देश के अन्दर एक स्वदेशी व्यवस्था कैसी होनी चाहिए, इसके आधार पर जो उनके अधिवेशनों में दो तीन बार विचार विमर्श करके एक स्वरूप उन्होंने इसक खड़ा किया, उसको भी भेजा गया। अब जिन जिन के नाम पते अपने पास थे उन सबको भेजने का प्रयत्न किया गया। जिनके नाम पते नहीं थे ऐसे प्रान्तों के को एक जगह भेज दिया गया । कम से कम वहां के संघ कार्यालयों में भेजकर के कि जो भी इस समान में रुचि रखने वाले हैं, उनको दे दिया जाय। उनमें से किसी ने दिया या नहीं दिया इसकी हमको जानकारी नहीं हैं। यहां कुछ लोग ऐसे भी आ सकते हैं जिनको एक भी चीज नहीं मिली हो।

हमारी अवधारणा का मतलब राष्ट्र की अवधारणा

अब मुझे पता नहीं कि इसकी कितनी प्रतियां बची हैं, अगर कुछ प्रतियां बची होंगी तो हमारे चड्ढा जी बातचीत करेंगे। अगर कुछ हैं तो यहां पर तैयार करवाकर उनसे आप ले सकते हैं। ताकि विचार विमर्श जो होगें, उन सारे विचार विमर्श में पढ़ने का समय मिलेगा कि नहीं यह तो नहीं कह सकते । दूसरी बात यह है कि अपनी बैठक समाप्त लोग - हो जाने के पश्चात हमारे जितने पूर्ण कालिक लोग हैं। डा. शैनाय है, हमारे राजेन्द्र जी हैं, रमेश जी हैं , यह लोग यहां दो तीन चार दिन यहां पूरा रुकने वाले हैं। यहां जो भी विचार विमर्श हुआ उसको संक्षेप में करके, पूरा तैयार करके आपके पास भेजने का प्रयत्न करेगे । इस बार हम लोगों ने विषय चुना है विकास की हमारी अवधारणा। हमारी अवधारणा का मतलब है हमारे राष्ट्र की अवधारणा। जैसा आप सब लोग जानते हैं राष्ट्र यानि केवल भू-खण्ड नहीं हैं, जमीन का टुकड़ा मात्र नहीं है वह वो राज्य है। इन दोनों से ऊपर है।

मानव जीवन के विकास में एक महत्वपूर्ण कड़ी है और भी इसी अर्थ में हम देखते हैं कि राष्ट्र और नेशन भी पर्यायवाची नहीं है। नेशन जो हैं वह मानव जीवन के विकास की कड़ी के रूप में नहीं है। हमारे यहां, जैसे मनुष्य जीवन के विकास में परिवार है, परिवार के आगे बढ़कर के पास पड़ौस है, ग्राम है फिर अपना समाज है, समाज के बाद में पूरा राष्ट्र है, राष्ट्र के बाद फिर मानव जाति है, मान जाति के बाद में प्रकृति है, परमात्मा है। एक के कदम जो हमें अपना विस्तार और विकास करते जाते हैं उसमें एक कड़ी के रूप में है, हमारे यहाँ हैं। यह विचार पश्चिम में नहीं है। पश्चिम के अन्दर ऐसे ही और बोजें विकसित होती चली गयीं । हम दूसरे से भिन्न कैसे है इस पर ध्यान देते हुए उन्होंने यह किया। डॉक्टर विपिनचन्द्र पाल ने इन दोनों का अन्तर बड़े अच्छे ढंग से समझाया है और उन्होंने कहा है कि जहाँ में भारतवर्ष मे व्यक्ति से लेकर परमात्मा तक की विकास यात्रा में जहां राष्ट्र एक है वहां पश्चिम में अन्दर राष्ट्र एक दूसरे से अलग हैं, हमारे यहां उस मौलिक एकता को तो माना गया है। लेकिन चारों तरफ एक ही जैसा रहा तो एक प्रकार की जो मनोटानी आती है उसको दूर करने के लिए हमने भिन्न भिन्न प्रकार के मुखौटे लगा रखे हैं।

इस नाते ताकि यह दुनिया रंग बिरंगी नजर आए। इसलिए भिन्न भिन्न प्रकार के राष्ट्र एक ही सत्ता के विभक्त होने के पश्चात भी भिन्न भिन्न रूप में हमारे यहां पर खड़े हैं । यह माना गया कि मानव जीवन के सामने जो प्रमुख प्रश्न खड़े होते हैं । उन सारे प्रश्नों में हमको उत्तर देना पड़ता है और इसलिए कहा गया है "बिम् भावयति, कथम भावयति, केन भावयति " यानि किसी भी चीज का क्यों है, कैसे है और किसके द्वारा की गयी । अब यह मूल प्रश्न है कि जिन प्रश्नों के जो उत्तर हैं, वे सभी भूभागों में एक जैसे नहीं मिलते । अलग अलग इसके उत्तर प्राप्त होते हैं और इन अलग अलग उत्तरों के आधार पर वहां अलग अलग जीवन खड़ा होता है। तो जीवन जिस भू-भाग में अभिव्यक्त होता है उसको ही हमारे यहां राष्ट्र कहा है। यानि मानव जीवन की जो भूलभूत समस्याएं हैं, उन सारी समस्याओं की अभिव्यक्ति जिस रूप में जिस देश के अन्दर होती है वही वास्तव में वहां का राष्ट्र है। यह बात सत्य है कि जीवन के संबंध में पश्चिम के जो उत्तर हैं और हमारे वहां के उत्तर समान नहीं है, वे अलग अलग हैं। यह भी हम अच्छी तरह से जानते हैं कि हमारे यहां जो उत्तर होते हैं उन सारे उत्तरों का हमारे चिन्तन पर, हमारे मस्तिष्क पर, हमारे सोचने पर जो परिणाम बनता है, वह हमारे चिन्तन का आधार बनता है, इसका निकस बनता है।

जिस पर चल करके कोई चीज सही है या गलत है, उचित है या अनुचित है इन सारी चीजों को हम परखते हैं और उसी आधार पर उसका समाधान खोजने का प्रयत्न करते हैं । आजकल कई बार वस्तुनिष्ठ चिन्तन आब्जेक्टिव स्टडी कहते हैं । सही अर्थों में देखा जाय तो आब्जेक्टिव स्टडी हो ही नहीं सकती । कारण यह है कि हम जिस चीज को जिस रूप में देखना चाहते हैं उसी रूप में वह चीज हमको दिखाई देती है। कई बार तो लोगों ने कहा कि हम लोग कहते हैं कि जब तक हम किसी चीज को देखेंगे नहीं तब तक हम विश्वास नहीं करेंगे। लोग कहते हैं कि इसका उल्टा अधिक सही है है कि जिस चीज पर हम विश्वास करेंगे ही नहीं उसको देखेंगे ही नहीं। इस रूप में आजकल लोग बोलते हैं। गैरी जुको ने एक बड़ी मजेदार चीज रखी है, आपको भी लगेगा कि कैसा यह गौरखधंधा है।

वह कहता है - Reality is what we take to be true. What we take to be true is what one believes. What we believe is based on our perception. What we perceive depends upon what we look for. What we look for depends upon what we think. What we think depends upon what we perceive. What we perceive determines what we believe. What we believe determines what we take to be true. What we take to be true is our xet reality. पूरा पर चक्कर रहा है तो our रियलिटी out perception है । which is our opinion, which obviously cannot be the ultimate truth. So science offers one perception, religion offers another perception. They are complementary, not exclusive. और इसमें वह कहते हैं, ती plus, inspiration comes from his religion. उसका जो रिलीजियन था, उसका जो सोच था उसमें से, भले ही उसने थोड़ा सा एक प्रकार का विद्रोह किया होगा, लेकिन जो चीज सामने निकली इस आधार पर वह कहते हैं कि पश्चिम में यह माना गया है कि रिलीजन और साइंस यह दोनों अलग अलग है और इसलिए रिलिजन जो है यह तो स्पेकुलेटिव है । यह साइंस जो है यह आब्जेक्टिव है, दोनों आपस में मिल नहीं सकते ।

उन्होंने कहा कि नहीं एक चीज जो है हृदय से सम्बन्धित है, मस्तिष्क से संबंधित है। They both are aspects of our own यानि मनुष्य जीवन के यह दो अलग अलग पहलू हैं । एक हृदय से सम्बन्धित है, एक मन से सम्बन्धित है । हृदय और मन को आप अलग कर सकते हो, अलग अलग नहीं कर सकते दोनों को साथ लेकर ही चलना पड़ेगा वह बड़े मजे से कहता है -Can one bank of the river be opposite to the other? As the river divides two banks, it also connects. To say that river separates the banks is to state the facts, all right, but tantamounts to ignoring the reality because even science proves that facts do not given men a perception of reality. अब इस दृष्टि से जब हम विचार करते है तो पश्चिम के विचार और हमारे विचार में बहुत बड़ा अंतर आता है। हम जानते हैं कि पश्चिम का विकास तीन चरणों में आगे बढ़ा, आज चौथे चरण में वह पहुंच गया है । जो पहला चरण था, जिसको हम ग्रीस देश का चिन्तन है, जो और अवलोकन के उपर आधारित था।। जो भी हम देखते थे और जो तर्क करते थे उसके उपर आधारित था और उस आधार पर किसी ने कहा कि दुनिया का मूल तत्व जल हैं, किसी ने कहा मूल तत्व अग्नि है दुनिया का, किसी ने कहा मूल तत्व यह केवल नंबर्स हैं।

पाइथागोरस का कहना था कि यह सारी दुनिया केवल नम्बर्स है। यह नंबर्स का खेल है, संख्या का खेल हैं, इस प्रकार कहते हैं। तो इन दोनों, तीनों को मिलाकर कहता था कि फ़ायर भी है, नम्बर भी है, सब मिलाकर यह है। ऐसे भिन्न-भिन्न प्रकार से सही अर्थों में वह सत्य की खोज के लिए आगे बढ़ते थे। यह फिजिक्स शब्द जो आया है, उसी में से आया है । फिजिक्स का मतलब ह- " दे नो, दीरियलिटी ।"तो प्रयत्न करते थे कि सत्य क्या है ? तो उसमें अपना अवलोकन भी करते थे, तर्क भी लगाते थे। लेकिन दूसरा जो चरण आया जब इसाइयत वहां पर प्रभावी हो गयी, क्रिश्चियनीति वहां प्रभावी हो गयी, तब उसने तर्क को पूरी तरह ते नकार दिया। और केवल कहा आस्था, जो बाइबिल में लिखा है, उस पर पूरी तरह से विश्वास करो । उसके लिए प्रमाण मत मांगों। कहा है तो मान लो।

वे कहते हैं - Accepting without proof is the fundamental characteristic of western religion. पूछो मत। प्रयत्न मत करो। सेंट अगस्टाइन ने कहा इस्लाम, इसाईम, जूडाइज्म सबके अन्दर यह हैं। लिखा है ना कि प्रश्न नहीं करें। अपने एक बन्धु हैं, जो आज कल अमेरिका में हैं, अपनी जो पहली प्रज्ञाभारती की बैठक हुई थी, उसमें वह उपस्थित थे। उन्होंने बताया कि अमेरिका में उन्होंने एक पादरी से पूछा कि आप लोग कहते हो कि man is a born sinner. मनुष्य पापी पैदा हुआ है। तो क्या भगवान के पास सिवाय पापी पैदा करने के कोई भला आदमी पैदा करने की शक्ति या सामर्थ्य नहीं थी ? केवल पापी हो पापी पैदा करता था। तो उन्होंने कहा that is a question which troubles us also very much.. यह प्रश्न है । लेकिन वे इस प्रश्न का उत्तर नहीं देना चाहते।

मदर टेरेसा के बारे में कहते हैं एक बार मदर टेरेसा से किसी ने पूछा कि बाइबल में लिखा है कि पृथ्वी स्थिर है और सूर्य चन्द्र चारों और चक्कर लगाते हैं । लेकिन आजकल का विज्ञान यह कहता है, कि नहीं सूर्य स्थिर है, पृथ्वी उसके चारों तरफ चक्कर लगाती है । आप किसको सत्य मानेंगी?तो उन्होंने कहा कि मैं तो बाइबल को हो सत्य मानूंगी । क्योंकि अगर बाइबल को सत्य नहीं माना तो बाद में वह क्रिश्चियन नहीं रहे सकती । इसीलिए यह हैं, कि अपना दिमाग नहीं लगाना, अपना तर्क नहीं लगाना, अपनी भिन्न प्रकार की अनुभूति को प्रस्तुत नहीं करना ।और इसलिए शुरू-शुरू में गैली लियो के सामने इन सारे लोगों को भी अनेक प्रकार के कष्ट दिये। भ्रूण को तो जला दिया गया।

गैलिलियो को जिन्दगी भर तक नजरबन्द रखा गया। यह सारी चीजें की गयी। क्योंकि पहली वह ईसाइयत को अवधारणा है । इसकी मुख्य-मुख्य बातें क्या है मुख्य बात: है The man is born out of sin." दूसरी है कि स्त्री आदम की पसली को काटकर बनायीं गयी है । चूंकि आदम को पसली को काटकर बनायी गयी है, इसलिए कि मनुष्य का जो अकेलापन था, आदम का जो अकेलापन था उसको दूर करने के लिए भगवान ने उसकी पसली को काटकर स्त्री को पैदा कर दिया ।

स्त्री के अन्दर कोई चेतना नहीं है। दुनिया, मनुष्य के उपभोग के लिए है और इसलिए मनुष्य को छोड़कर जितनी भी चीजें पेड़, पौधे, पशु, पक्षी, कीट पतंग, इनमें कोई जान नहीं है। कुछ वर्षो पहले इंग्लैंड में एक कानून बना प्रिवेंटिव क्रूअल्टी टू एनीमल्स । हाउस आफ कामन में पारित हो गया । जब हाउस ऑफ लार्डस में वह गया तो वहां उसको उन्होंने निरस्त कर दिया।तो क्या करना चाहिये? तो उन्होंने कहा उसको आर बिशपर्केटबरी के पास में भेजा और कहा कि आप इस पर अपना अभिमत दीजिये। आरविशपकेंटबरी ने कहा चूंकि बाइबल के अनुसार मनुष्य को छोड़कर के और किसी में प्राण नहीं है। इसलिये पशु हत्या करने से कोई पाप नहीं लगता और यही कारण हैं कि यह जो पशुओं को मांसाहारी बनाकर के उनसे अधिक मांस प्राप्त करने का जो प्रयत्न किया गया और उसके परिणामस्वरूप पशुओं को बीमारी हो गयी और मांस खाने के कारण मनुष्य को बीमारी हो गयी  जिसको पागल गाय रोग कहते हैं । पागल गाय रोग हो गया । ज्यों ही लोगों को पता लगा कि इंग्लैंड का मांस खाने के कारण रोग हो जाता है, तो तारे यूरोप ने इंग्लैंड का मांस लेना बंद कर दिया ।

इंग्लैंड की सारी अर्थव्यवस्था उस पर आधारित होने के कारण वह सारी अर्थ व्यवस्था चरमराने लगी तो उन्होंने कहा कि हमारी गलती हो गयी है और जिन जिन गायों को पागल गाय रोग है उन गायों को हम समाप्त कर देंगे । बारह लाख गायों को समाप्त कर दिया गया । गाय पागल थी कि मनुष्य पागल था पता नहीं, समाप्त कर दिया । तो यह चिन्तन है । प्रकृति का भंडार अक्षय है, यह कभी समाप्त नहीं होगा और इसलिये इसका हम मनमाना उपभोग करते हैं । भगवान ने हमको अधिकार दिया हुआ है कि इसका आप मनमाना उपभोग करो । परमेश्वर स्वयं इस ब्रह्मांड में नहीं रहता है, वह सातवें आसमान पर रहता है और वहां से वह हमारी सारी चीजों को केवल देखता है । यह जो सारी अवधारणाएं बनीं, इन सारी अवधारणाओं का उस समय के सामाजिक जीवन पर असर हुआ । बाद में उसमें से कुछ लोग पैदा हो गये जिन्होंने कहा कि नहीं, यह क्या बात है?

आंखें मूंद कर विश्वास क्यों करेंगे?

हम आँख मूंद करके किसी चीज पर क्यों विश्वास करेंगे । जब तक प्रत्यक्ष प्रमाण उपस्थित नहीं हो जाता, तब तक हम उस पर विश्वास करने के लिए तैयार नहीं गया हैं । उन्हें कहा गया कि विश्वास करो, प्रमाण मत मांगो । उन्होंने कहा, प्रमाण दो तब विश्वास करेंगे। भगवान भी अगर है तो पहले दिखाओ कहां हैं भगवान । हमारे टैस्ट ट्यूब में भगवान आएगा, तब उस पर विश्वास करेंगे । क्यों करें ?

तो इस प्रकार से वहां दोनों के बीच में झगड़ा चलना शुरू हुआ और शुरू-शुरू में तो ईसाइयत ने विज्ञान को दबाने का प्रयास किया । लेकिन दबा नहीं सका और विज्ञान केवल तर्क केऊपर, प्रयोगों के आधार पर आगे बढ़ना प्रारम्भ किया ।

उसने आस्था को पूरी तरह से नकार दिया। जबकि जैसे पहले हम लोगों ने देखा कि विज्ञान की प्रगति में भी आस्था का एक महत्त्वपूर्ण भाग होता है। महत्वपूर्ण बात है इक्डोमेटेबल स्प्रिंट अगर न रहे तो कोई भी अन्वेषक लगातार कई दिनों तक उसके पीछे पड़ा नहीं रह सकता। अलेक्जेंडर ग्राहम बेल ने जो टेलीफोन बनाया, तो उसे कान कैसे काम करता है, इसका विचार करने के लिए वह मुर्दों के कान काट-काटकर लाता था और लाकर कान के सामने अनेक प्रकार से आवाजें देता था और उस पर क्या असर होता है, यह देखा करता था । मुंह से आवाज निकलती है तो फिर क्या होता है । आइने के सामने खड़ा होकर अलग-अलग प्रकार में मुंह बनाकर सारी चीजें करता था। बाहर से देखने वाले सोचते कि यह आदमी पागल हो गया । लेकिन यह जो पायस स्पिरिट है, लगातार वह काम करने का सातत्य है, वह कहां से मिलता है उन्होंने इसको पूरी तरह नकार दिया और उस विज्ञान जिसको आजकल हम देकर लोगों को विदेशी वस्तुओं के बजाय स्वदेशी का प्रयोग करने के लिए आव्हान करना होगा।

बड़े पैमाने पर जनसंपर्क करने के लिये समाचार पत्रों में लेख लिखना, पुस्तिकाएं बेचना, पथनाटयों तथा प्रदर्शनी व्दारा विषय समझाना, दीवार लेखन करना, पोस्टर्स लगाना, जुलूस निकालना तथा करपत्र बांटना आदि काम करने होंगे । इस माहौल में सभी संगठनों तथा व्यक्तियों का सहयोग हो इस लिए प्रयास करने होंगे। इस में चेम्बर ऑफ कॉमर्स जैसी अनेक व्यापारी संस्थाएँ भी सहयोग दे सकती हैं। किन्तु सबसे पहले हमें खुद से शुरुआत करनी होगी । क्यों न आज ही हम प्रतिज्ञा करें कि 'मैं विदेशी वस्तुओं के जगह पर स्वदेशी का प्रयोग करूंगा।' हमारे इस दृढ निश्चय से ही देश आर्थिक पराधीनता के संकट से बाहर निकल पायेगा।

( दिनांक 03.oct, 1997 को दिया गया भाषण।)

Dr. Murli Manohar Joshi

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