जमानत का अधिकार, मौलिक अधिकार के अंतर्गत
चर्चा में आये विष्णु तिवारी भी न्यायिक प्रशासन की लापरवाही का शिकार हो गए और अपने जीवन के 19 साल जेल में बिताने के लिए मजबूर हो गए उस अपराध के लिए जो उन्होंने किया ही नही था।
नंदिता झा
(Nandita Jha)
हाल में इलाहाबाद हाइकोर्ट नें स्वतः संज्ञान लेते हुए जेल में बंद निर्दोष दंपति जो प्रभारी निरीक्षक द्वारा साक्ष्य में लापरवाही और सही ढंग से जांच न करने के कारण दोषी ठहरा दिए गए थे और उनके बच्चों को अनाथालय भेज दिया गया था, 2021 में अदालत द्वारा निर्दोष घोषित किये जाने के बाद बच्चों का पता न चलने पर अदालत द्वारा पता लगाने का निर्देश दिया गया है ।
विष्णु तिवारी मामला
चर्चा में आये विष्णु तिवारी भी न्यायिक प्रशासन की लापरवाही का शिकार हो गए और अपने जीवन के 19 साल जेल में बिताने के लिए मजबूर हो गए उस अपराध के लिए जो उन्होंने किया ही नही था। निर्दोष होते हुए भी उन्हें जमीन के विवाद में झूठे मुकदमे में बलात्कार और अनुसूचित जाति और जनजाति अत्याचार अधिनियम के अंतर्गत दोषी बनाया गया था।
दस अपराधी छोड़ दिये जाए लेकिन एक निर्दोष को सज़ा नहीं चाहिए।
न्यायशास्त्री विलियम ब्लैकस्टोन ने कहा था "दस अपराधी छोड़ दिये जाए लेकिन एक निर्दोष को सज़ा नहीं चाहिए। "भारतीय संविधान के मूल भावना में भी है कि 100 अपराधी सज़ा से छूट जाए लेकिन किसी निर्दोष को कभी सज़ा नहीं होनी चाहिए। अनुच्छेद 14 भारतीय संविधान व्यक्ति को कानून के समक्ष बिना रंग, जाति, लिंग के भेद के समान अधिकार देता है।
अनुच्छेद 21 गरिमामय जीवन जीने के अधिकार को प्रत्येक व्यक्ति का मौलिक अधिकार के तौर पर निहित करता है। डी वी ए बनाम आंध्र प्रदेश केस में अदालत ने कहा था कि" कोई भी व्यक्ति के केवल दोष सिद्ध घोषित किये जानें से उसके समस्त मौलिक अधिकार से व्यक्ति को वंचित नहीं किया जा सकता।"
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बेल इज़ रूल जेल इज़ एक्सेप्शन
राजस्थान बनाम बालचंद उर्फ बलिया केस में सुप्रीम कोर्ट ने अहम फैसला देते हुए कहा "बेल इज़ रूल जेल इज़ एक्सेप्शन, यानी ज़मानत देना नियम है और जेल उपवाद"। ज़मानत मिलना व्यक्ति को दिए गए मौलिक अधिकार अनुच्छेद 21 के तहत जीवन जीने के अधिकार के परिधि के अन्तर्गत आता है। किसी भी आरोपी या अपराधी का ज़मानत बिना युक्तियुक्त कारण के नामंजूर करना उसके दैहिक स्वतंत्रता से वंचित करना है जो असंवैधानिक माना गया है।
पहली जनहित याचिका हुसैन आरा खातून बनाम बिहार राज्य केस में सर्वोच्च अदालत ने अनुच्छेद 21 के तहत जीवन जीने के अधिकार के अंतर्गत व्यक्ति को मुफ्त कानूनी मदद के साथ त्वरित और निष्पक्ष सुनवाई को मौलिक अधिकार के तौर पर दिया है। लेकिन आज भी न्यायिक और प्रशासनिक प्रकिया में कमी की वजह से निर्दोषों को यातनायें झेलनी पड़ती है।कानून के दुरुपयोग न हो पुलिस अपनी शक्तियों का दुरुपयोग न करें और निर्दोषों को गिरफ्तारी और हिरासत की यतनाओं से बचाया जा सके इसलिए 1996 में सुप्रीम कोर्ट ने गिरफ्तारी करते वक़्त पुलिस अधिकारियों के लिए कुछ दिशा निर्देश डी के बसु केस में दिए।
गिरफ्तार करते वक़्त के नियम
गिरफ्तार करते वक़्त पुलिस अधिकारी अपने नाम और पद गिरफ्तार व्यक्ति को जरूर बताएं या उनके बैच पर अंकित हो। गिरफ्तार करते वक़्त अरेस्ट मेमो तैयार किया जाए जिसमें गिरफ्तार करने का वक़्त और दिनांक लिखा हो। किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करते वक़्त उसके परिवार का या फिर किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति जो आस पास का हो उसका गवाह के रूप में हस्ताक्षर होना अनिवार्य है।
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गिरफ्तार व्यक्ति को 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया जाए। गिरफ्तार व्यक्ति की 48 घंटे के भीतर मेडिकल जांच कराई जाए। गिरफ्तार व्यक्ति की इंस्पेक्शन मेमो बनाई जाए जिसमे छोटी बड़ी सभी चोटों का विवरण लिखा जाए हस्ताक्षर होना आवयश्क। पूछताछ के दरम्यान वकील से मिलने अधिकार। पूछताछ के समय दुर्व्यवहार न किया जाए।
बिना न्यायिक मजिस्ट्रेट के आदेश के हथकड़ी न लगाई जाए
बिना न्यायिक मजिस्ट्रेट के आदेश के हथकड़ी न लगाई जाए। पुलिस कंट्रोल रूम में गिरफ्तार व्यक्ति की सूचना अवश्य डैश बोर्ड पर लगाई जाए। 15 वर्ष से कम उम्र के बच्चों एवं महिलाओं को पूछताछ के लिए थाने न बुलाया जाए उनसे पूछताछ उनके परिवार के सामने की जाए।
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ये निर्देश सभी पुलिस अधिकारियों को गिरफ्तार करते वक़्त नियमतः अपनाना अनिवार्य है।ताकि दुरुपयोग को रोका जा सके । जब पुलिस अधिकारी अपनी कार्यशैली को निष्पक्ष रखते हुए अपने कर्तव्यों को जनहित में लगाएंगे तभी एक न्यायसंगत सुचारू व्यवस्था हो पाएगी ।और फिर किसी निर्दोष के मौलिक अधिकार का हनन नही होगा। न्याय के सिद्धांतों की मूल भावनाओं की सुरक्षा अनिवार्य है।
(लेखक दिल्ली हाईकोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता हैं)
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