राग - ए- दरबारी, सपा-बसपा गठजोड़: मैं उसके जोर को देखूं, वो मेरा सब्र-ओ-सुकूं

Update: 2018-03-09 08:14 GMT

संजय भटनागर

‘‘मैं उसके ज़ोर को देखूं, वो मेरा सब्र-ओ-सुकूं।

मुझे चिराग बना दे, उसे हवा कर दे।’’

राणा सहरी की ये पंक्तियाँ बयान करती हैं उत्तर प्रदेश में निकट भविष्य में सियासती दांव पेंच की मुकम्मल कहानी। जी हां, सन्दर्भ है प्रदेश में लोक सभा की दो प्रतिष्ठित सीटों पर उपचुनाव और नए समीकरणों के तहत मायावती की बहुजन समाज पार्टी और अखिलेश यादव के समाजवादी पार्टी के बीच समझौता। अब जोर आजमाइश है इन नए सियासी दोस्तों और उनके दुश्मन भारतीय जनता पार्टी के बीच।

उत्तर प्रदेश की राजनीति में समझ रखने वाले यह बात आसानी से जान सकते हैं कि सपा और बसपा का गठजोड़ कितना मजबूत हो सकता है वोट बैंक की राजनीति के हिसाब से। यह देखा जा चुका है 25 वर्ष पूर्व जब दोनों ने उत्तर प्रदेश में मिल कर सरकार बनाई थी। और दोनों के बीच तलाक भाजपा पक्ष में एक शानदार अवसर के तौर पर देखा गया था। लेकिन अब हालात बदल चुके हैं और मोदी-शाह ने जो देश में नयी राजनीति का आगाज किया उसमे यह गठजोड़ पहले जैसा अविजित साबित होगा, इसमें शक है।

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सच तो यह है कि यह भाजपा के लिए बहुत सामयिक होगा कि 2019 के लोक सभा चुनाव के पहले सपा-बसपा के नए समीकरण का टेस्ट हो जाये और अगर कोई शंका है तो इसका निवारण हो जाये। वास्तव में यह स्थिति भाजपा से ज़्यादा सपा-बसपा पर दबाव डालती है क्योंकि गोरखपुर और फूलपुर लोक सभा सीटों पर इसकी सफलता अगले आम चुनाव में ‘महागठबंधन’ का बीज बो सकती है लेकिन दूसरी ओर इसकी असफलता आने वाले समय में भाजपा को अविजयी लीड दे देगी। वैसे भी, बसपा राज्य सभा सीट के लिए अगर पास का फायदा देख रही है तो इस सूरत में भी उत्तर प्रदेश में विपक्षी एकता के लिए कोई साफ तस्वीर नहीं पेश करती है।

दोनों ही स्थितियों में भाजपा नुकसान में नहीं दिखाई पड़ रही है, दोनों सीटों पर जुडी प्रतिष्ठा के बावजूद। सपा-बसपा के लिए यह पास का फायदा दे भी सकती है लेकिन भाजपा के लिए यह दूर की रणनीति बनाने में सहायक ही सिद्ध होगी। भाजपा के पास राजनीतिक रणनीतिकार के रूप में पार्टी अध्यक्ष अमित शाह हैं ही जो 2019 में अपने झोले से क्या निकाल दें, भरोसा नहीं है। यही नहीं, दोनों दलों का समझौता वैसे भी उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव के लिए ही निर्णायक सिद्ध भी हो सकता है, लोक सभा चुनाव तो मोदी लड़ेंगे, शाह लड़ेंगे और मुद्दे भी अलग होंगे, समीकरण भी जुदा होंगे।

देखते हैं सपा और बसपा में अलग अलग न सही, मिलकर कितना दम ख़म है। दिखाना तो इन दोनों को है, भाजपा को तो सिर्फ देखना ही है। सिद्ध तो इन दोनों को करना है, भाजपा तो दर्शक दीर्घा में है, हम सब की तरह।

(लेखक न्यूजट्रैक/अपना भारत के कार्यकारी संपादक हैं)

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