अचानक उत्तराखंड सरकार के एक विज्ञापन पर निगाह पड़ गई जिसमें हेडिंग थी सेवा ही सर्वोपरि और उसके नीचे मुख्यमंत्री श्री त्रिवेंद्र रावत जी की फोटो बड़े ही स्टाइल के साथ लगी थी। समझने की तब से कोशिश में लगा हूं कि सेवा का अवसर केवल सीएम साहब ने ही ले रखा है या इसकी सुविधा बाकी नेताओं को भी है। सेवा शब्द का अर्थ बहुत व्यापक है..खासकर तब जब सेवा का माध्यम सरकार बन जाए और मुखिया इनका कॉपीराइट अपने नाम कर ले।
यह समस्या यूं तो पूरे देश की है लेकिन दाजू हमें क्या? हम पहाड़ देखें कि पहाड़ा पढ़ें। अपने यहां एक से बढक़र एक सेवादार हैं। जब से उत्तराखंड बना है एक दूसरे की सेवा में ही लगे हैं। जिसको मौका मिला वह ही सर्वोपरि.. बाकी लोग क्या करें? अवसर की तलाश करें या अवसर की स्थितियों को उत्पन्न करें.. तलाश करने और प्रतीक्षा करने का धैर्य यहां बड़ी ही कठिनाई से ढूंढने को मिलता है। ठाकुरों और ब्राह्मणों का प्रदेश है, न तो यहां तलवार विश्राम करते शोभा देती है और न शिखा बंधन को बहुत देर तक स्वीकार करती है। सत्ता का मिजाज ही ऐसा है हर सत्ताधीश के अंदर घनानंद की आत्मा प्रवेश कर ही जाती है और हर घनानंद न जाने कितने स्वघोषित चाणक्यों को चुनौती देता प्रतीत होता है।
गंगा की अविरल निश्चल प्रवाह की तरह उत्तराखंड में यह सिलसिला अनवरत रूप से प्रवाहित हो रहा है। भागीरथ की पुण्य भूमि है यह प्रदेश। हर एक को अपने पुरखों से ज्यादा अपने वंशजों की चिंता खाए जा रही है। सेवा तो शब्द है प्रतीक है। सर्वोपरि तो है इसका प्राप्त हो जाना। खासकर उस प्रदेश में जहां पर कई महानुभाव खुद को ही इस का एकमात्र उत्तराधिकारी होने का दम रखते हैं। यहां यह समस्या दलगत भावना से ऊपर उठकर है। न इस के मोह से कमल के अनुयाई बचे हैं, न ही पंजे वाले.. अंधी महत्वाकांक्षाएं में किसी भी हद तक कीचड़ में सनने को आतुर करती हैं, प्रेरित करती है।
पांडवों की धरती है उत्तराखंड। गुरु द्रोणाचार्य ने यहां तपस्या की थी। कौरवों को भी उन्होंने ही शिक्षित किया था। शक्ति समान रूप से बांटी गई थी। दुश्शासन भी और अर्जुन भी दोनों ही यही शस्त्रों का अभ्यास करते थे। कुछ तो असर रहेगा दाजू.. बहुत देर तक वनवास सहन नहीं होता। युद्ध यहां स्वभाव में है। हस्तिनापुर के सिंहासन पर जो भी विराजेगा सामने वाले को 1 इंच भी भूमि नहीं देगा। यह यहां के डीएनए में है और उसके बाद फिर महाभारत..।
इतिहास दुनिया मे दोहराता है या नहीं इसका प्रमाण देखना हो तो उत्तराखंड जरूर आइए। आपको निराशा नहीं मिलेगी। महाभारत काल से सारे करेक्टर आपको यहां मिल जाएंगे। परिस्थितियां न भी हों तो यहां निर्माण करते भी दिख जाएंगे। नौ महीने से शांतिपर्व चल रहा था वही हुआ जो होता है इतना समय काफी होता है। अंतत: चौरस बिछ ही गई शह और मात के खिलाड़ी अपने अपने शकुनी मामाओं के साथ फिर मैदान में.. फिर होगा मर्यादाओं का चीर हरण, धर्म अधर्म की फिर नई व्याख्याएं लिखी जाएंगी।
मुझे लगता है कि उत्तराखंड के पर्यटन विभाग को भी अपनी प्रचार की भाषा बदलनी चाहिए यहां चलने वाली सतत महाभारत के साक्षात दर्शन कराने की टैगलाइन का सहारा लेना चाहिए यकीन मानिये बहुत पर्यटक आएंगे, कई राज्यों के दुखी पांडवों को यहां से प्रेरणा मिलेगी। मन तो था कि उत्तराखंड की महाभारत के एक एक चरित्र से आपका परिचय कराता लेकिन मेहनत आप भी करिए एक एक करेक्टर को सामने रखिए.. हर करेक्टर के पीछे आपको दो दो नेता अपना विशेषाधिकार जताते दिख जाएंगे। बहुत आनंद आएगा इस हफ्ते आप कोशिश कर दीजिए नहीं तो मैं हूं ही अगले हफ्ते से एक एक चरित्र में दो दो नेताओं को फिट करके ना दिखा दिया तो उत्तराखंड में रहना मेरा व्यर्थ मान लीजिएगा। चलिए गांडीव की टंकार पर ध्यान लगाते हैं और शकुनि के जालों को समझने का प्रयास करते हैं इसको देखना सुनना और समझना भी किसी पुरुषार्थ से कम नहीं है। जय श्री कृष्ण।
(संपादक उत्तराखंड संस्करण)