Book Maa Ki Batein Review: संकोच और दुविधा मन में आ जाए तो अपनत्व समाप्त हो जाता है
Book Maa Ki Batein Review: भगवान श्री रामकृष्ण देव की लीला-सहधर्मिणी श्री माँ सारदा देवी से वार्तालाप इस पुस्तक की महानता है।
Book Review Maa Ki Batein: भगवान श्री रामकृष्ण देव की लीला -सहधर्मिणी श्री माँ सारदा देवी से वार्तालाप इस पुस्तक की महानता है। स्वामी अरूपानन्द, रामानन्द चट्टोपाध्याय द्वारा लिखित स्वामी निखिलात्मानन्द द्वारा अनुवादित पुस्तक में माँ श्री सारदा देवी के जीवन की रूपरेखा को दर्शाया गया है। इस पुस्तक में जितने भी स्वामी गण व माननीय गणमान्य व्यक्तियों से जो भी वार्तालाप माँ से हुआ है । उन सभी बातों का उत्तर माँ ने बहुत ही सरलता से और व्यवहारिक तर्कों से दिया है। इन बातों को व्यक्ति यदि अपने जीवन में उतार लें तो सुख शान्ति बड़े ही आसानी प्राप्त हो जाएगी। श्री रामानन्द चट्टोपाध्याय ने स्पष्ट कहा है कि शास्त्रों में गृहस्थ की प्रशंसा है। संन्यासी की भी प्रशंसा है। हम सहज बुद्धी से भी समझ सकते हैं कि गृहस्थ आश्रम ही समस्त आश्रमों का मूल है। प्रत्येक गृहस्थ का जीवन प्रशंसनीय या निन्दनीय नहीं है, न ही संन्यासी का। भिन्न भिन्न व्यक्तियों द्वारा भगवान से प्राप्त शक्ति तथा हृदय मन की गति के द्वारा यह निश्चित होता है कि भगवान ने किसे किस कार्य के निमित्त किस प्रकार का जीवन बिताने के लिये संसार में भेजा है।
वे जिस आश्रम में हैं, उसके उपयुक्त जीवन बिता रहे हैं या नहीं। किसी को प्राप्त करना है, तो माँ ने श्री रामकृष्ण भगवान से पूछा कैसे वे प्राप्त होंगे ? तब भगवान श्रीरामकृष्ण ने अपनी पत्नी से कहा था, "जैसे चाँद मामा सभी बच्चों के मामा है, वैसे ही ईश्वर भी सबके अपने हैं; सभी को उन्हें पुकारने का अधिकार है। जो भी उन्हें पुकारेगा, उसे वे दर्शन देकर कृतार्थ करेंगे। तुम पुकारो तो तुम्हें भी उनका दर्शन प्राप्त होगा।" कहने का तात्पर्य है, आप जिसे भी लगन से याद करेंगे तो उसे आप प्राप्त कर लेंगे। इस पुस्तक में नारी को माँ जगदम्बा की तरह पूजा जाना चाहिए यह संदेश भी भगवान श्रीरामकृष्ण ने माँ श्री सारदा के प्रश्न का उत्तर देते हुये बतलाया है।
एक बार अपने पति की पदसेवा करते करते माँ ने पूछा, "तुम मुझे किस दृष्टि से देखते हो ?" श्रीरामकृष्ण ने उत्तर दिया था, "जो माँ मन्दिर में विराजित हैं, उन्होंने ही इस शरीर को जन्म दिया है, जो नौबतखाने (मन्दिर) में निवास कर रही हैं और वे ही इस समय मेरी पदसेवा कर रही हैं। सच कहता हूँ, मैं तुम्हें साक्षात् आनन्दमयी माँ के रूप में ही देख पाता हूँ।" श्रीरामकृष्ण प्रत्येक नारी के भीतर, यहाँ तक की अत्यन्त हीन -चरित्र वाली महिलाओं में भी जगदम्बा को ही देखते थे । माँ सारदा देवी कहा करती थीं, "दीपक में बाती किस प्रकार लगानी चाहिए, घर के लोगों में कौन कैसा है और किसके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, दूसरों के घर जाने पर कैसा आचरण करना चाहिए, आदि संसार की सारी बातों से लेकर भजन, कीर्तन, ध्यान, समाधि तथा ब्रम्हज्ञान तक समस्त विषयों की शिक्षा का ज्ञान परिवार के हर सदस्य को होना चाहिए।
माँ का जन्म बाँकुड़ा जिले के जयरामवाटी ग्राम में 22 दिसम्बर1853 ई. में हुआ था। माँ को मूँग के लड्डू, भुजिया, राताबी सन्देश, सकरकन्द के पीठे खूब प्रिय थे। अपनत्व क्या होता है ?एक बार माँ ने कहा था कलकत्ते में वे सर्वदा निःसंकोच बातें करने में कुण्ठा का अनुभव करती थीं। यहाँ पर मुझे सर्वदा हिसाब करके बोलना पड़ता है, चलना पड़ता है। कौन-सी बात से न जाने कौन असन्तुष्ट हो जाय। इसमें अपनत्व नहीं है,अपनत्व तो गांव में है । अपनत्व वह है , जहाँ मुख में आता है, दो चार बातें कह देती हूँ। दूसरे के जी में जो आया बोल दे, दो बातें एक दूसरे से कह जाते हैं। वे लोग भी कुछ बुरा नहीं मानते, मैं भी कुछ बुरा नहीं मानती, बस ! यही अपनत्व है।
मेरा मानना है जहाँ संकोच और दुविधा मन में आ जाए वहां अपनत्व अपने आप समाप्त हो जाता है । इस पुस्तक में कुछ कटु सत्य बातें माँ ने बताई हैं, जो कई लोगों के गले नहीं उतरेगा। माँ ने एक बार की घटना का जिक्र पुस्तक में किया है कि कितने ही लोग कितने ही प्रकार के पाप-ताप के बोझ लेकर माँ के चरण-स्पर्श करते; माँ को शरीर में भयानक जलन का अनुभव करते हुए भी माँ उसे चुपचाप सहन कर लेती। एक दिन शाम को दर्शनार्थियों के प्रणाम के पश्चात् देखा गया कि माँ बरामदे में आकर घुटने तक अपने पाँव धोये जा रही हैं। किसी के पूछने पर उन्होंने बताया, " अब और किसी को पाँवों में सिर रखकर प्रणाम मत करने देना। सारा पाप आकर प्रविष्ट हो जाता है ,मेरे पाँव जल जाते हैं , पाँव धोने पड़ते हैं। इसीलिए तो इतनी बीमारियाँ होती हैं। दूर से ही प्रणाम करने को कहना सभी को।"
आप जो भी आशीर्वाद किसी को देते हैं, तो उसके कष्ट को आप ग्रहण करते हैं। मैं इस पुस्तक की एक और घटना के विषय में जरूर बताना चाहता हूँ । जिसे मेरी दादी भी कहा करती थीं। ठीक वही बातें माँ ने कहीं है यह घटना पढ़ते ही लगा मानो दादी ही माँ है। घटना 14 मार्च, 1913 जयरामवाटी माँ के ग्राम की है। श्याम बाजार के ललित डाक्टर और प्रबोधबाबू आये हैं। शाम के लगभग चार बजे है , वे माँ को प्रणाम करने आये। उनसे बातचीत कर रहे हैं। ललित बाबू ने माँ से कहा ," माँ, खान-पान के बारे में किन नियमों का पालन करना चाहिए?" माँ ने कहा,"मृतक के प्रथम श्राद्ध का अन्न नहीं खाना चाहिए, उससे भक्ति की बड़ी हानि होती है। अन्य श्राद्ध का अन्न खा सकते हो, पर प्रथम श्राद्ध का नहीं ।" विस्तृत घटना के लिये पुस्तक पढ़नी होगी । हाँ, लेकिन माँ ने कहा बहुत जरूरी होगा तो श्राद्ध में देवताओं को जो भोग लगाया गया हो, वही ग्रहण करना। स्वामी अरुपानन्द जी ने "माँ की बातें" पुस्तक में ऐसी बहुत सारी घटनाओं का साक्षात चित्रण किया है। पुस्तक की विशेषता यह है कि पढ़ते समय मानो घटना समक्ष हो रही है ऐसा प्रतीत होता है।
कर्म के विषय में माँ ने कहा, "कर्म तो अवश्य ही करना चाहिए। कर्म से मन अच्छा रहता है , पर जप, ध्यान , प्रार्थना भी विशेष रूप से आवश्यक है। कम से कम सबेरे शाम एक बार बैठना ही चाहिए। संध्या के समय थोड़ी देर बैठने से सारे दिन अच्छा बुरा क्या किया, क्या नहीं किया इसका चिन्तन हो जाता है। चिन्तन करने का तात्पर्य अगले दिन अच्छे कर्म करने से है।" सम्मान के विषय में माँ ने एक समय की घटना का उल्लेख किया है । एक दिन माँ सबेरे नौ-दस बजे बैठी हुई शरीर में तेल मल रही थीं। उस समय एक महिला ने झाड़ू लगाकर झाड़ू किनारे में फेंक दिया । माँ ने यह देखकर कहा, "यह क्या जी , काम हो गया और उसे ऐसे ही अनादर के साथ फेंक दिया ? फेंककर रखने में जितना समय लगा , धीरे से रखने में उतना ही समय लगता,"
साधारण सी वस्तु है, इसलिए क्या उसके प्रति तुच्छता का भाव रखना चाहिए। तुम जिसकी देखभाल करोगी वह भी तुम्हारी देखभाल करेगा। क्या उसकी फिर जरूरत नहीं पड़ेगी? फिर इस संसार का वह भी तो एक अंग है। इस दृष्टि से भी उसकी इज्जत होनी चाहिए। जिसका जो सम्मान है वह उसे मिलना चाहिए | झाड़ू को भी सम्मान के साथ रखना चाहिए। सामान्य कार्य भी श्रद्धा के साथ करना चाहिए | तात्पर्य स्पष्ट है यह पशु-पक्षी, मनुष्य सब पर माँ की बातें लागू होती है। कलंक, दाग, चरित्र पर माँ ने कहा है," चाँदनी रात में चन्द्रमा की ओर ताकती हुई मैं हाथ जोड़कर कहती हूँ कि अपनी ज्योत्स्ना की भाँति मेरा अन्तः करण निर्मल कर दो। फिर रात्रि में जब चन्द्रमा उठता, तब गंगा के स्थिर जल में उसका प्रतिबिंब देख सजल नयनों से भगवान से प्रार्थना करती कि चन्द्रमा में भी कलंक है, पर मेरे मन में कोई दाग न रहे।"
श्री माँ सारदा देवी "माँ की बातें" पुस्तक में सामान्य व्यवहार, जीवन में मनुष्य को कैसे सुख शान्ति पूर्वक रहना चाहिए। इन सभी बातों को माँ ने बहुत सरल भाषा में उदाहरण द्वारा बतलाया है। पुस्तक की विशेषता यह है की 'माँ की बातें' में स्वामीअरूपानन्द, ईशानानन्द, विश्वेश्वरानन्द, परमेश्वरानन्द, शान्तानन्द, आदि महानुभावों ने माँ की बातों को हुबहू माँ की भाषा में विस्तारपूर्वक बताया है।भोजन, आहार, स्वास्थ, पूजा-पाठ, संस्कार, रिश्तों को, औषधि, स्वप्न, जप-तप लाभ, गुरु मंत्र, प्रार्थना, पूजा प्रसाद का प्रभाव, सिद्ध पुरुष, भाव, समाधि , मनौती, गुरु शिष्य, फूल की महत्ता, स्त्री-क्रोध-लाज, धर्म-लाभ, साक्षात ईश्वर, आत्मा, वचन, साधु चरित्र, श्राद्ध भोजन , इन सभी विषयों को सरल भाषा में, विस्तारपूर्वक 'माँ की बातें' पुस्तक में बतलाया गया है। इस पुस्तक का आधार भगवान श्रीरामकृष्णदेव और लीला - सहधर्मिणी श्री माँ सारदा देवी से वार्तालाप का है । इसे पढ़ने से मनुष्य एक नेक रास्ते पर चलकर ईश्वर को प्राप्त कर सकता है।यह पुस्तक नेक रास्ते पर चलने की प्रेरणा देता है ।