काबुलः भारत की बोलती बंद क्यों है?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले से बहुत लंबा-चौड़ा भाषण दे डाला और 15 अगस्त को जिस समय उनका भाषण चल रहा था, तालिबान काबुल के राजमहल (काखे-गुलिस्तां) पर कब्जा कर रहे थे लेकिन ऐसा नहीं लगा कि भारत को ज़रा-सी भी उसकी चिंता है।

Written By :  Dr. Ved Pratap Vaidik
Published By :  Monika
Update:2021-08-17 08:43 IST

अफगानिस्तान पर तालिबानियों का कब्जा (फोटो :सोशल मीडिया ) 

पिछले दो हफ्तों से मैं बराबर लिख रहा हूं और टीवी चैनलों पर बोल रहा हूं कि काबुल पर तालिबान का कब्जा होने ही वाला है लेकिन मुझे आश्चर्य है कि हमारा प्रधानमंत्री कार्यालय, हमारा विदेश मंत्रालय और हमारा गुप्तचर विभाग आज तक सोता हुआ क्यों पाया गया है ?प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले से बहुत लंबा-चौड़ा भाषण दे डाला और 15 अगस्त को जिस समय उनका भाषण चल रहा था, तालिबान काबुल के राजमहल (काखे-गुलिस्तां) पर कब्जा कर रहे थे लेकिन ऐसा नहीं लगा कि भारत को ज़रा-सी भी उसकी चिंता है।

अफगानिस्तान में कोई भी उथल-पुथल होती है तो उसका सबसे ज्यादा असर पाकिस्तान और भारत पर होता है लेकिन ऐसा लग रहा था कि भारत खर्राटे खींच रहा है जबकि पाकिस्तान अपनी गोटियाँ बड़ी उस्तादी के साथ खेल रहा है। एक तरफ वह खून-खराबे का विरोध कर रहा है और पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई और अशरफ गनी के समर्थक नेताओं का इस्लामाबाद में स्वागत कर रहा है और दूसरी तरफ वह तालिबान की तन, मन, धन से मदद में जुटा हुआ है बल्कि ताजा खबर यह है कि अब वह काबुल में एक कमाचलाऊ संयुक्त सरकार बनाने की कोशिश कर रहा है। लेकिन भारत की बोलती बिल्कुल बंद है। वह तो अपने डेढ़ हजार नागरिकों को भारत भी नहीं ला सका है। वह सुरक्षा परिषद का अध्यक्ष है लेकिन वहाँ भी उसके नेतृत्व में सारे सदस्य जबानी जमा-खर्च करते रहे।

मेरा सुझाव था कि अपनी अध्यक्षता के पहले दिन ही भारत को अफगानिस्तान में संयुक्तराष्ट्र की एक शांति-सेना भेजने का प्रस्ताव पास करवाना था। यह काम वह अभी भी करवा सकता है। कितने आश्चर्य की बात है कि जिन मुजाहिदीन और तालिबान ने रूस और अमेरिका के हजारों फौजियों को मार गिराया और उनके अरबों-खरबों रुपयों पर पानी फेर दिया, वे तालिबान से सीधी बात कर रहे हैं लेकिन हमारी सरकार की अपंगता और अकर्मण्यता आश्चर्यजनक है। मोदी को पता होना चाहिए कि 1999 में हमारे अपहृत जहाज को कंधार से छुड़वाने में तालिबान नेता मुल्ला उमर ने हमारी सीधी मदद की थी। प्रधानमंत्री अटलजी के कहने पर पीर गैलानी से मैं लंदन में मिला, वाशिंगटन स्थित तालिबान राजदूत अब्दुल हकीम मुजाहिद और कंधार में मुल्ला उमर से मैंने सीधा संपर्क किया और हमारा जहाज तालिबान ने छोड़ दिया। तालिबान पाकिस्तान के प्रगाढ़ ऋणी हैं लेकिन वे भारत के दुश्मन नहीं हैं। उन्होंने अफगानिस्तान में भारत के निर्माण-कार्य का आभार माना है और कश्मीर को भारत का आतंरिक मामला बताया है। हामिद करजई और डाॅ. अब्दुल्ला हमारे मित्र हैं। यदि वे तालिबान से सीधी बात कर रहे हैं तो हमें किसने रोका हुआ है? अमेरिका ने अपनी शतरंज खूब चतुराई से बिछा रखी है लेकिन हमारे पास दोनों नहीं है। न शतरंज, न चतुराई !

(लेखक, पाक—अफगान मामलों के विशेषज्ञ हैं)


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