देश कब समझेगा रील और ऱीयल दुनिया के नायकों का अंतर
हमारे यहां तो सिने जगत के सितारों को ही भगवान मान लिया जाता है। इस तरह की सोच तो बदलनी ही होगी। फिल्म सितारों का भी सम्मान होना चाहिए I लेकिन, देश को अपने असली नायकों की पहचान तो करनी ही होगी ।
आर.के.सिन्हा
अभी हाल ही में देश के दो रीयल और रील लाइफ के नायकों के संसार से विदा होने पर जिस तरह की प्रतिक्रिया देश में देखने को मिलीं वह सबकों हैरान करने वाली थी। पहले सशक्त अभिनेता और पीकू, लंच बॉक्स, पान सिंह तोमर जैसी बेहतरीन फिल्मों में अपने यादगार अभिनय से दर्शकों को मंत्रमुग्ध करने वाले इरफान खान और उसके बाद राज कपूर के छोटे बेटे ऋषि कपूर की मृत्यु पर देश में जिस तरह की शोक की लहर उमड़ी वह निश्चित रूप से अभूतपूर्व और अप्रत्याशित मानी जाएगी। ऋषि कपूर ने अपने लगभग आधी सदी लंबे फिल्मी सफर में बॉबी, मुल्क, लैला-मजनूं जैसी दर्जनों उम्दा फिल्मों में नायक का रोल निभाया । हालांकि वे बीच-बीच में अपने कुछ विवादास्पद बयानों के कारण खबरों में भी आ जाते थे। तो भी यह तो मानना ही होगा कि वे एक लोकप्रिय सितारे थे।
रीयल नायकों के लिए सिर्फ नमन और जयहिन्द
पर इन दोनों के दिवंगत होने के फौरन बाद कश्मीर में आतंकवादियों से लोहा लेते हुए सेना और अर्धसैनिक बलों के कई अधिकारी और जवान भी शहीद हो गए। उत्तरी कश्मीर में हंदवाड़ा क्षेत्र के एक गांव में 1 मई को हुई मुठभेड़ में वहां आतंकवादियों के साथ एक कर्नल और एक मेजर समेत पांच सुरक्षाकर्मी शहीद हो गए।
शहीद सुरक्षाकर्मियों में सेना अधिकारी कर्नल आशुतोष शर्मा और मेजर अनुज और जम्मू कश्मीर पुलिस के उपनिरीक्षक शकील काजी भी शामिल थे। पर जरा गौर करें कि देश के खिलाफ जंग कर रहे आतंकवादियों से लड़ने वाले जब ऱणभूमि में शहीद हुए तो देश में हल्की-फुल्की औपचारिक प्रतिक्रियायें ही हुई।
कुछ लोगों ने इन जवानों के शहीद होने की खबरें अपनी फेसबुक वॉल पर डालीं। तब आभासी दुनिया ‘नमन’ और ‘जय हिन्द’ करके आगे बढ़ गई। इससे अधिक कुछ नहीं हुआ।
तो क्या मिला देश के लिए अपनी जान की कुर्बानी देने वालों को सिला? क्या ये शहीद सिर्फ “जय हिन्द” और “नमन” की औपचारिकता के ही लायक थे? देश को सोचना होगा और अपनी गिरेबान में झांकना होगा। जो बेखौफ नौजवान बेहद कठिन परिस्थितियों में कशमीर में लड़ रहे हैं, उनके बलिदान को हम कितना कम करके आंकते हैं।
शर्मनाक स्थिति है जनता की, पर सुरक्षा बलों को सलाम
मैं इरफान खान और ऋषि कपूर की सेना के योद्धाओं से तुलना नहीं कर रहा हूँ। पर इतना तो कहने का मन कर ही रहा है कि देश अपने असली तथा आभासी दुनिया के नायकों को पहचानना हमने अभी तक नहीं सीखा है। यह एक शर्मनाक स्थिति है। हालांकि इस बात का तो कुछ संतोष है कि सुरक्षा बलों ने अपने जांबाज साथियों कर्नल आशुतोष शर्मा और मेजर अनुज सूद समेत पांच सैन्यकर्मियों के बलिदान का बदला लेने में ज्यादा वक्त नहीं लगाया।
सुरक्षा बलों ने दो मुठभेड़ों में कुख्यात दहशतगर्दो को धूल में मिला दिया। हिजबुल मुजाहिदीन के बड़े कमांडर रियाज नाइकू को भी ढेर कर दिया गया। नाइकू को पुलवामा में उसके घर के पास ही मारा गया। नाइकू को जिन्दा या मुर्दा पकड़ने पर 12 लाख का इनाम था।
नाइकू को बचाने के लिए हो रहा था पथराव
रील लाइफ के नायकों पर लंबी-लंबी बहसें कर रहे कितने लोगों को पता है कि नाइकू को बचाने के लिए देश के कुछ दुश्मन जवानों पर पथराव भी कर रहे थे? इरफान खान और ऋषि कपूर की तमाम फिल्मों पर लिखने-बोलने वाले क्यों नहीं लिखते उन देश के दुशमनों पर भी, जो सेना के जवानों पर पथराव कर रहे थे ?
भूल गए पुलवामा हमले के शहीदों को
चलिए जरा और पीछे मुड़कर देख लेते हैं। क्या देश की जनता ने 14 फरवरी 2019 को पुलवामा में हुए आतंकी हमले मेंशहीद हुए सीआरपीएफ के जवानों को कभी याद किया? क्या कभी उनके परिवारों की सुध ली? सच्चाई तो यह है कि पुलवामा हमले के शहीदों के परिवारों को अब तक सरकार या समाज से अपेक्षित मदद नहीं मिली।
वे लोग सरकारी मदद का अब भी इंतजार कर रहे हैं। हां, जब वह घटना हुई थी तब आंसू बहाने वालों की कोई कमी नहीं थी। सबने पीड़ित परिवारों को भरपूर मदद का भरोसा दिलाया था। पर अफसोस कि उनमें से कुछ वादे कागजों में ही सिमट कर रह गए हैं।
2008 मुंबई हमले की यादें
बात निकलेगी तो बहुत दूर तक जाएगी। अब भी देश को 2008 में मुंबई हमले की यादें हैं। उस हमले के सबसे बड़े गुनाहगार अजमल आमिर कसाब को असिस्टेंट सब इंस्पेक्टर तुकाराम ने जिंदा पकड़ा था।
कसाब ने तुकाराम ओम्बले को गोली मार दी थी ताकि वह अपने आपको छुड़ा ले। पर उस वीर तुकाराम ने कसाब को नहीं छोड़ा था। वीरता तथा कर्तव्यपरायणता की इस तरह की अनूठी मिसाल मिलना कठिन है।ओम्बले को मरणोपरांत अशोक चक्र देकर भूला दिया गया। क्या उस शूरवीर को भूला दिया जाना चाहिए था ?
कारगिल नायकों की स्मृति का भी अनादर
बात से बात निकलेगी ही । हम तो अपनी हाल के समय में हुई जंगों के नायकों की स्मृति का भी घोर अनादर करते हैं। कारगिल की जंग के नायकों में नोएडा के विजयंत थापर भी थे। उस जंग में विजय के बाद उनके नाम पर नोएडा की एक मुख्य सड़क का नामकरण भी हुआ।
सड़क पर जिधर शहीद विजयंत थापर का नाम लिखा है, उस पर लोग पोस्टर लगाने से भी बाज नहीं आते। उनके पिता और भारतीय सेना के पूर्व कर्नल थापर कह रहे थे,' भारत में युद्ध के बाद शहीदों की कुर्बानी अक्सर भुला दी जाती है। सिर्फ करीबी रिश्तेदार और दोस्त ही उन्हें याद करते हैं। यह मानसिकता बदलने की जरूरत है। ”
देश को अपने सच्चे नायकों को तलाशते हुए अपने आसपास के समाज को देख लेना होगा। मौजूदा कोरोना काल में तमाम कोरोना योद्धाओं को हम देख ही रहे हैं। इनमें डाक्टर, नर्स, पुलिस वाले, सुरक्षाकर्मी, सफाई कर्मीं, बैंक मुलाजिम, जल और बिजली विभाग के कर्मी आदि शामिल हैं। क्या हम सफाई कर्मियों को भूल सकते हैं? ये अपनी जान की परवाह किए बगैर ही मोर्चे पर तैनात हैं।
कोरोना वीर क्या राष्ट्र नायक नहीं
ये कोरोना को मात देने के लिए दिन-रात एक कर रहे हैं। दिल्ली-एनसीआर में शहीद भगत सिंह सेवा दल नाम के समाजसेवी संगठन के जुझारू कार्यकर्ता दिन-रात जरूरतमंदों को मास्क और भोजन बांट रहे हैं। शहीद भगत सिंह सेवा दल के प्रमुख जितेन्द्र शंटी एक फरिश्ता का ही कण कर रहे हैं। वह हजारों अनाथों का अपने हाथों से अंतिम संस्कार भी करवा चुके है। इस तरह से अन्य कई समाज सेवी संस्थाएं और उनसे जुड़े लोग जनता के बीच में सक्रिय हैं।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और देशभर के विभिन्न गुरुद्वारों द्वारा देशभर में चलाये जा रहे सेवा कार्य उल्लेखनीय और सराहनीय हैं I इन्हें क्यों समाज नायक नहीं मानता? क्या निस्वार्थ भाव से संकटकाल में किसी के साथ खड़ा होना कोई सामान्य बात मानी जाए। पर हमारे यहां तो सिने जगत के सितारों को ही भगवान मान लिया जाता है। इस तरह की सोच तो बदलनी ही होगी। फिल्म सितारों का भी सम्मान होना चाहिए I लेकिन, देश को अपने असली नायकों की पहचान तो करनी ही होगी ।