ममता दीदी का ''खेला'' चालू छे !

यही कांग्रेस पार्टी थी जिसने 2011 में विधानसभा के निर्वाचन में कुख्यात नारद चिट फण्ड घोटाले पर ममता बनर्जी को घेरा था।

Written By :  K Vikram Rao
Published By :  Shraddha
Update:2021-05-18 21:15 IST

फाइल फोटो (सौ. से सोशल मीडिया)

भारतीय गणराज्य से बंगभूमि के ​''मुक्ति'' का संघर्ष विप्र विदुषी ममता बंधोपाध्याय (Mamta Bandhopadhyay) ने तेज कर दिया है। यूं भी ''आमी बांग्ला'' बनाम ''तू​मि बाहरी'' के नारे पर उनकी तृणमूल कांग्रेस पार्टी (Trinamool Congress PartyTrinamool Congress Party) विधानसभा का चुनाव गत माह लड़ी थी। अत: अब अपने अधूरे एजेण्डे को अंजाम देने में प्राणपण से वे जुट गयी हैं।

सारे मसले से जुड़े चन्द तथ्यों का उल्लेख पहले हो जाये। भले ही सोनिया कांग्रेस तथा अन्य दल आज भाजपा (BJP) के विरुद्ध लामबंद हो जाये, पर याद रहे कि यही कांग्रेस पार्टी थी जिसने 2011 में विधानसभा के निर्वाचन में कुख्यात नारद चिट फण्ड घोटाले पर ममता बनर्जी को घेरा था। तब कोलकाता हाईकोर्ट में सोनिया कांग्रेस ने याचिका दाखिल की थी कि ममता के खिलाफ भ्रष्टाचार के इल्जाम में सीबीआई द्वारा जांच के आदेश पारित करें। उस वक्त मार्क्सवादी तथा अन्य वामपंथी पार्टियां भी कांग्रेस के सुर में सुर मिला रही थीं। यह दिलचस्प बात दीगर है कि इन दोनों आलोचक पार्टियों का एक भी विधायक, सात दशकों में पहली बार, गत माह जीता ही नहीं।

उसी दौरान कोलकता हाईकोर्ट ने 17 मार्च 2017 नारद चिट फण्ड के मामले की तहकीकात सीबीआई के सुपुर्द कर दिया। ममता बनर्जी ने सर्वोच्च न्यायालय में इस आदेश को निरस्त करने की 21 मार्च 2017 अपील की। मगर वह खारिज हो गयी। जांच चलती रही। सोनिया कांग्रेस ने जांच और उचित दण्ड का आग्रह दोहराया। हाईकोर्ट के निर्देश के बाद ही उसने मांग की थी कि तृणमूल कांग्रेस के दोषी नेताओं को जेल भेजा जाये। कांग्रेस की इस मांग के बाद ममता शासन भी तत्काल हरकत में आ गया। पचास वर्ष पूर्व सीबीआई को प्रदत्त बंगाल के कार्यक्षेत्र के निर्णय को उन्होंने निरस्त कर दिया। अर्थात इस केन्द्रीय ब्यूरो से बंगाल स्वतंत्र हो गया। मगर उच्चतम न्यायालय के आदेश से कार्यवाही रोकी नहीं गयी।

कल सरकारी पार्टी के विधायकों ने कोलकता की सड़कों पर ताण्डव किया, राजभवन पर धावा बोला, दिनरात व्यस्त रहने वाला महानगर रेंगने पर विवश कर दिया गया। यह सब अखबारों में आज सुबह छप चुका है। इस तकरार की नायिका ''वीरांगना'' ममता बनर्जी ने छह घंटे तक भारत सरकार के कार्यालय भवन निजाम पैलेस के समक्ष धरना दिया। उनका स्वयं का कार्यालय राइटर्स बिल्डिंग ठप रहा। कोरोना का राहत कार्य थम गया। दो हजार तृणमूल पार्टी कार्यकर्ताओं ने लॉकडाउन को तोड़कर, बिना मास्क लगाये, पूरी राजधानी को रेहन पर रख दिया।

ममता बनर्जी के पैर की हड्डी भी खूब फुर्ती से काम पर रही थी। राज्य पुलिस बनाम केन्द्रीय बल वाला नजारा बन गया था। स्वयं प्रदेश के काबीना मंत्री भारत सरकार के आदेशों को बाधित करते रहे। राज्य के कानून मंत्री स्वयं सीबीआई अदालत में डटे रहे। दोषी मंत्रियों को जमानत मिल गयी। तत्काल हाईकोर्ट ने उसे रद्द कर मंत्रियों और विधायकों को जेल भेज दिया। स्वयं मुख्य न्यायाधीश राजेश बिन्दल ने मुख्यमंत्री द्वारा धरना की भर्त्सना की। सीबीआई ने मांग की कि मुकदमा बंगाल के बाहर चलाया जाये।

इसी बीच बंगाल विधानसभा के अध्यक्ष विमान बनर्जी ने संवैधानिक पहलू उठाया कि विधायकों तथा मंत्रियों को बिना उनकी अनुमति के क्यों गिरफ्तार कर लिया गया है? बिहार और उत्तर प्रदेश के विधानसभाई अधिकारियों के अनुसार ऐसा कोई भी प्रावधान नहीं है कि विधायक को हिरासत में लेने के पूर्व स्पीकर की अनुमति ली जाये।

अब ममता बनर्जी के ''जनवादी'' अभियान पर तनिक विचार कर लें। वे बोलीं थीं कि उनके काबीना मंत्रियों की गिरफ्तारी स्पष्टता गत माह के जनादेश का अपमान है। राजनीति शास्त्र का यह नया नियम और परिभाषा बंगाल की मुख्यमंत्री ने निरुपित कर दिया है। यदि यह मान भी लिया जाये तो भ्रष्टाचार की परिभाषा वोटर करेंगे, न कि न्यायाधीश जन। अर्थात जो जीता वही ईमानदार है। अगर इसे स्वीकार कर ले तो माफिया सरगना मियां मोहम्मद मुख्तार अंसारी, जो कई बार विधायक बने, जिस को जेल में रखना गैरकानूनी है। उनके द्वारा भाजपाई विधायक कृष्णानन्द राय की हत्या राजनीतिक रुप से औचित्यपूर्ण है। अत: अब विधि- विधान की दिशा और अर्थ केवल मतपेटियां तय करेंगी।

ममता बनर्जी के आज के महाकाली वाले रौद्र रुप को देखकर चालीस वर्ष पूर्व उनका युवा जोश से भरा जनांदोलकारी दौर याद आता है। वे तब युवा कांग्रेस में थीं। मार्क्सवादी कम्युनिस्टों ने राज्य और पार्टी में सीमा रेखा मिटा दी थी। वहीं जो इन्दिरा गांधी ने 1975 में इमरजेंसी काल में किया था। तब यह बहादुर लड़ाकन पांच रुपये की हवाई स्लिपर, बीस रुपये वाली सूत की सफेद नीले बार्डरवाली साड़ी पहनकर हुगली में आग लगाती थी। काली बाड़ी के निकट एक झोपड़ीनुमा मकान में रहती थीं। वहीं उनकी मां भी जिनका चरण स्पर्श प्रधानमंत्री अटल बिहार वाजपेयी करते थे।

बंगाल के मसीहा ज्योति बसु विशाल भव्य भवन में अध्यासी थे। उनका पुत्र चन्दन उद्योगपति बन रहा था। इस अनीश्वरवादी कम्युनिस्ट मुख्यमंत्री की पत्नी धर्मप्राण थी, कालीपूजा करती थी। हर धर्मोत्सव में सक्रिय रहती थी। तब बंगाल की जनता ममता में तारक का रूप देखती थी। ममता ने संकल्प लिया था कि माकपा तथा वामपंथ को बंगाल की खाड़ी में डूबो देंगी। गत माह यही कर दिखाया। विधानसभा में कांग्रेस और कम्युनिस्टों का नामलेवा, तर्पण करने वाला भी नहीं रहा।

इसीलिए अचंभा होता है कि ऐसी न्यायार्थ योद्धा बनी ममता क्यों नारद चिट फंड घोटाले में आमजन के मेहनत की कमाई को लूटने वालों की हिमायती बनीं ? फिर कहावत याद आई कि ब्राह्मण मरता है तो ब्रह्म राक्षस बनता है। शायद नियति का यही नियम है। इससे बंगाल अछूता नहीं रहा।

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