एक साथ तीन तलाक से छुटकारे की जीत का जश्न
मुस्लिम महिलाओं के लिए मंगलवार बड़ा मंगल संदेश लेकर आया। बहुत सालों बाद संसद ने कोई ऐसा बिल पास किया है। जिसने हिंदू और मुसलमान औरतों के बीच की खाई को पाट कर रख दिया है। इन दोनो कौम की औरतों के अहसास को एक बराबर कर दिखाया है।
योगेश मिश्र
कैसे आकाश में सुराख हो नहीं सकता
एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों।
दुष्यंतकुमार की इन लाइनों को रामपुर की गुलशन परवीन, जयपुर की आफरीन रहमान, प. बंगाल की इशरतजहां, काशीपुर की शायरा बानो और सहारनपुर की अतिया साबरी ने एक साथ तीन तलाक यानी तलाके बिद्दत पर लड़ी जा रही अपनी लड़ाई में विजय का परचम फहराकर सच साबित कर दिया।
मुस्लिम महिलाओं के लिए मंगलवार बड़ा मंगल संदेश लेकर आया। बहुत सालों बाद संसद ने कोई ऐसा बिल पास किया है। जिसने हिंदू और मुसलमान औरतों के बीच की खाई को पाट कर रख दिया है। इन दोनो कौम की औरतों के अहसास को एक बराबर कर दिखाया है।
कभी शाहबानो मामले में कठमुल्लों के आगे घुटनों के बल खड़ी संसद तीन तलाक के मुद्दे पर ठीक उलट तन कर खड़ी हुई दिखी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साहस ने मध्य काल से चली आ रही भारतीय मुस्लिम महिलाओं में व्याप्त कुप्रथा को खत्म कर दिया है।
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तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद 24 जुलाई तक 345 मामले सामने आ चुके हैं। लोकसभा और राज्यसभा में तीन तलाक के खिलाफ सभी संशोधन खारिज हो गए हैं। इस बिल के पास होने के बाद तीन तलाक दंडनीय अपराध हो गया। इसके लिए तीन साल की जेल और जुर्माना की सजा भी है। यह महिला सशक्तिकरण और लैंगिक समानता की दिशा में मील का पत्थर है।
तीन तलाक पर बने कानून ने समाज में समानता के मार्ग को प्रशस्त किया। तीन तलाक पाकिस्तान जैसे मुल्क में प्रतिबंधित है। बावजूद इसके भारत में कुछ मुसलमान और उनके कुछ कथित सरपरस्त तीन तलाक को खत्म करने की नरेंद्र मोदी की मुहिम का विरोध करते रहे।
इस विरोध का तर्क इस्लामी कानून था लेकिन दुनिया के 20 इस्लामी देशों पाकिस्तान, बांग्लादेश, टर्की, ट्यूनिशिया, अलजीरिया, मोरक्को, ईरान, मिस्र, साइप्रस, मलेशिया, श्रीलंका, सूडान, सीरिया आदि में तीन तलाक प्रतिबंधित है।
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तीन तलाक का विरोध करने वालों को यह सोचना चाहिए था कि आखिर उन देशों में इस्लाम को लेकर कोई दूसरा कानून तो चलता नहीं है। मिस्र की अलअजहर यूनिवर्सिटी के इस्लामिक स्कालर डा. जफरूल इस्लाम बताते हैं कि कुरान में एक सांस में तीन तलाक का कोई जिक्र नहीं है।
फिर किस आधार पर तीन तलाक के पक्ष में खड़े होकर बात की जा रही थी। वह भी तब जब तलाक एसएमएस, फेसबुक, फोन, चिट्ठी पर दे दिया जाए। खाना खराब बनाए जाने पर दे दिया जाए, शराब पीने के दौरान दे दिया जाए। ऐसे तमाम मौकों पर तीन तलाक का पत्थर मारकर अपनी शरीके हयात से छुट्टी पाना कैसे जायज करार दिया जा सकता है।
1981 में बीआर चोपड़ा ने निकाह फिल्म बनाकर तीन तलाक की इस कुप्रथा का पर्दाफाश किया था। इसकी आड़ में किस तरह हलाला जैसी जघन्य प्रथा को संरक्षण दिया जा रहा है। यह इस फिल्म की विषय वस्तु थी। इस फिल्म की पटकथा अचला नागर ने लिखी थी।
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हम कह सकते हैं कि तकरीबन 37 साल लगे इस कुप्रथा के समूल नाश में। लखनऊ के रामलीला मैदान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साफ तौर पर यह संदेश दे दिया था कि बौद्ध, जैन, सिख, हिन्दू अथवा किसी और संप्रदाय की महिला के अधिकारों में अंतर नहीं होना चाहिए।
तीन तलाक से आजादी और तीन तलाक संविधान व आजादी के खिलाफ है यह स्वर मुस्लिम महिलाओं की ओर से भी बुलंद होने लगे थे। फिर भी मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के लोग तीन तलाक के पक्ष में खड़े थे।
1973 में गैर सरकारी संगठन के तौर पर गठित इस बोर्ड को बोलने का हक कैसे हासिल हुआ, वह भी तब जब कुछ साल पहले तक इस बोर्ड में महिलाओं को सदस्यता ही नहीं दी जाती थी।
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इतना ही नहीं अहमदिया मुस्लिम इस बोर्ड को नहीं मानते हैं और इसके सदस्य भी नहीं बनते हैं। बोर्ड ने तीन तलाक के खात्मे की सरकार की मंशा को समान नागरिक संहिता की ओर बढ़ते कदम की बात कह कर धार्मिक रंग देने की बहुत कोशिश की।
सच्चर कमेटी ने भी तीन तलाक पर सवाल खड़े किये थे। लेकिन इन सब की अनदेखी तीन तलाक समर्थकों ने की। सवाल यह उठता है कि क्या मुस्लिम महिला को हिन्दू महिला की तरह के स्वतंत्रता के अहसास में जीने का हक नहीं है। वह भी तब जब दोनो एक ही समाज में अगल बगल रह रही हों।
तीन तलाक को लेकर इतना हाय तौबा मचाया गया मानो इस्लाम पर खतरा आ गया हो। जिस तरह 20 से 40 साल तक की मुस्लिम महिलाओं के चेहरे पर इस बिल के संसद से पास होने के बाद हर्ष की इबारत पढ़ी जा रही है। उससे यह तो साफ हो ही रहा है कि एक बड़ी जमात तीन तलाक और हलाला की कुप्रथा से मुक्ति के लिए परेशान थी।
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हलाला तो एक ऐसा जघन्य कार्य है जिसे करने की इजाजत धर्म की आड़ में भी नहीं मिलनी चाहिए। तीन तलाक का पारित होना। आजादी के बाद से भारतीय धर्म निरपेक्षता की दिशा में पहला ऐसा कदम है जिसकी बहुत लंबे समय से जरूरत महसूस की जा रही थी। तुष्टीकरण की राजनीति के चलते कोई इसे हाथ लगाने को तैयार नहीं था।
इस आर्थिक युग में तलाकशुदा स्त्री को उसके हर्जे खर्चे के लिए धनराशि न देने के लिए धर्म को ढाल बनाना इसका बेजा इस्तेमाल है। कभी हिन्दू धर्म में व्याप्त सती प्रथा के खिलाफ राजा राममोहन राय ने अभियान चलाया था, ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने विधवा विवाह की वकालत की थी।
हिन्दू कोड बिल लाया गया था तब आज सरीखा कोहराम नहीं मचा था। आज जब सोशल मीडिया आपकी भावनाओं को प्रकट करने का एक बड़ा प्लेटफार्म है। इस मार्फत समाज की भावनाओं को समझने का मौका मिलता है। तब इसकी अनदेखी उचित नहीं होगी।
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मोदी एक ऐसे राजनेता हैं जिन्होंने भारतीय राजनीति के फार्मूले बदले हैं। मोदी से पहले राजनीति इस फार्मूले पर चलती थी कि अल्पसंख्यकों के बिना सरकार नहीं बनती। मोदी ने 2014 में जो फार्मूला दिया वह यह बताता है कि बहुसंख्यक बहुमत की सरकार बना सकते हैं। इस बहुसंख्यक का दायरा उन्हें निरंतर बढ़ाना है। यह दायरा सबके विश्वास से ही बढ़ सकता है।
मोदी ने तीन तलाक पर कानून के मार्फत बहुसंख्यक अहसास का दायरा बढ़ाने की दिशा में तेजी से कदम आगे किये हैं। हिन्दू और मुसलमान के अहसास को बांट कर देखने का नजरिया बीते दिनों की बात होनी चाहिए, मोदी की इसी दिशा में कोशिश जारी है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।