Tulsidas Poetry: तुलसी के राम काव्य पर आक्षेप ?
Tulsidas Poetry: 'रामचरितमानस' का विश्लेषण करते समय मैंने केन्द्र में तुलसी के दृष्टिकोण को रखा हुआ है किन्तु यह आवश्यक नहीं है कि किसी कृति का विश्लेषण करते समय हम कृतिकार के दिये हुए संकेतों को मान ही लें।
Tulsidas Poetry: 'तुलसी काव्य पर आक्षेप' लेख लिखते समय मैंने तुलसी की 'नारी- निन्दा', 'शूद्र-निन्दा', 'वर्ण व्यवस्था-प्रतिपादन', 'अवतारवाद', 'कलिकाल' एवं 'रामराज्य' जैसे विवादित बिन्दुओं पर खासतौर पर चर्चा की है। मैंने 'रामचरित मानस' के अतिरिक्त 'दोहावली', 'कवितावली', 'हनुमानबाहुक', 'विनयपत्रिका' आदि ग्रन्थों की भी चर्चा की है। 'रामचरितमानस' का विश्लेषण करते समय मैंने केन्द्र में तुलसी के दृष्टिकोण को रखा हुआ है किन्तु यह आवश्यक नहीं है कि किसी कृति का विश्लेषण करते समय हम कृतिकार के दिये हुए संकेतों को मान ही लें। लेकिन कृतिकार के संकेतों को खासकर जब तुलसी जैसा कृतिकार हो, पूरा सम्मान देना हमारा कर्त्तव्य बनता है। जब तक गम्भीर अंतर्विरोध न उपस्थित हो कृतिकार के निर्देशों की उपेक्षा करना खतरनाक है। जायसी के संकेतों को आलोचकों ने उपेक्षा की और उसे कवि के बजाय सूफी साबित कर दिया। यह गलती मैं दोहराना नहीं चाहता। अक्सर कृति या कृतिकार का विश्लेषण करने के लिए लोग एक कसौटी बना लेते हैं। यूँ हरेक को उसी कसौटी पर कस देते हैं। लेखक का कद अगर इस कसौटी से बड़ा हुआ तो उसे काट-छाँट कर कसौटी में बैठाने के लिए लहुलुहान कर दिया जाता है। और अगर छोटा हुआ तो उसके साथ खींचतान की जाती है। जाहिर सी बात है, इस प्रक्रिया में कृति और कृतिकार दोनों की दुर्गति हो जाती है। किसी कृतिकार का अध्ययन उसकी समग्रता में करना चाहिए। समग्रता से मेरा मतलब उसकी जीवनी एवं विचारधारा को जानने से है। मैंने इन सारी बातों का ध्यान इस लेख में रखा है-
अवगुण आठ सदा उर रहहीं।
नारि सुभाव सत्य कवि कहहीं।।' (रावण वचन)
सुनहि सती तब नारि सुभाऊ ।
विधि हुँ न नारि हृदय गति जानि। (शंकर वचन)
सकल कपट अघ अवगुन खानी ॥ (तुलसी वचन)
उपरोक्त कतिपय पक्तियों को पढ़कर कुछ विद्वान तुलसी को नारी-निन्दक मानते हैं लेकिन उन सुधी विद्वानों को जानना चाहिए कि मध्यकाल के सारे कवियों (सूरदास को छोड़कर) के यहाँ नारी-निन्दा है। नारी के प्रति जितनी सहृदयता तुलसी काव्य में मौजूद है। उतनी सहृदयता अन्यों के यहाँ नहीं है। नारी के अच्छे बुरे यानी दोनों पक्षों को तुलसी ने दिखाया है। माँ, पत्नी तथा पुत्री, तीनों स्त्री-रूपों का वर्णन तुलसी ने किया। तुलसी ने कभी नारी को यौवनगर्विता के रूप में नहीं दिखाया है।
जनक सुता जग जननि जानकी।
अतिसय प्रिया करुनानिधान की ॥३
नारी के इन तीनों 'रूपों' की चर्चा एक साथ भारतीय साहित्य में कही नहीं मिलती। पार्वती की माँ मैना हिन्दी-साहित्य की पहली नारी-पात्र हैं जो विद्रोह करती हैं। तुलसी अपने समय की नारी की पराधीनता को पहचानते थे-
कत विधि सृजी नारि जग माहि,
पराधीनता सपनेहुँ सुख नाहि।
- बालकाण्ड, रामचरितमानस
सीता, राम को पहली बार देखती हैं पिता के प्रण के कारण राम से प्रणय-निवेदन नहीं कर पाती। यह मध्यकालीन नारी की पराधीनता का सूचक है। मध्य काल के किसी कवि ने तुलसी जैसे एक पत्नी-व्रतधारी का सिद्धान्त नहीं दिया।
एक नारि ब्रतरत सब सारी,
ते मन वचन करम पति हितकारी।।*
सबरी जैसी नारी को अपना प्रेम देने वाले तुलसी कैसे नारी-निन्दक हो सकते हैं। स्वयं राम का चरित्र नारी उद्धारक (अहिल्या) का है। मैं यही कहना चाहता हूँ तुलसी नारी-निन्दक नहीं हैं बल्कि मध्यकालीन नारी की स्थिति को दिखलाया है।
तुलसी काव्य पर दूसरा आरोप लगता है कि तुलसी वर्ण व्यवस्था के समर्थक तथा शूद्र-निन्दक हैं। लेकिन यहाँ पर सवाल उठता है कि तुलसी को अगर वर्ण-व्यवस्था का प्रतिपादन ही करना था तो क्यों राम-केवट, निषाद- भरत का मिलाप करवाया। निम्न पक्तियों का अवलोकन करने पर तुलसी का आशय स्पष्ट हो जायेगा
जाति पांति कुल धर्म बड़ाई, धन बल परिजन गुन चतुराई।
भगति हीन नर सोहड़ कैसा, बिनु जल वारिद दिखअ जैसा ।।
अर्थात् तुलसी के लिए सबसे महत्वपूर्ण भक्ति थी। भक्ति पर आकर सब बराबर हो जाते हैं। 'ढोल गंवार शूद्र ...' वाली तथाकथित पंक्ति का सहारा लेकर विद्वान एक साँस में तुलसी पर नारी-निन्दक, शूद्र-निन्दक जैसे आरोप लगा देते हैं लेकिन वे यह नहीं जानते यह पंक्ति भयभीत समुद्र की है। तुलसी ने 'मानस' में शम्बूक-वध तथा सीता-देश निकाला जैसे प्रसंगों को शामिल नहीं किया है। तुलसी नारी एवं शूद्र-निन्दक होते तो उन्हें इन दोनों प्रसंगों को 'मानस' में शामिल करना चाहिये था। जब-जब तुलसी राम की महिमा गाते हैं तो उन्हें निस्संबल, असहाय, अभागे, गुनहीन, गरीब, दीन, पंगु याद आते हैं। जो दुःखी हैं, दीन हैं, राम उसके साथ हैं। निषाद राम से जिस अनौपचारिक एवं आत्मीय शैली से बात करता है वह जाँति-पाँति के सभी बन्धनों को तोड़ता है। तुलसी के सारे मित्र (रहीम, नाभादास) अवर्ण थे। तुलसी को जिस वर्ण-व्यवस्था ने सताया था वे उसका समर्थन कैसे करते? सभी तो 'कवितावली' में तुलसी बोल उठते हैं- "धूत कहौ अवधूत कहौ- ----।" तुलसी की एक अन्य पंक्ति को देखिए :
मेरे जाति पाँति न चहौं काहू कि जाति पाँति ।
मेरो कोऊ काम को, न हौं काहू के काम को ।
क्या उपरोक्त पंक्तियों का लेखक ब्राह्मणवाद का समर्थक हो सकता है। इससे प्रतीत होता है कि तुलसी शुद्ध जनवादी कवि थे। 'मानस' की आलोचना के सन्दर्भ में एक बात पं. राम नरेश त्रिपाठी ने उठाई है। उनके अनुसार 'मानस' में सबसे पहले 'अयोध्याकाण्ड' लिखा गया था (बाद में 'बालकाण्ड' एवं उत्तरकाण्ड) को जोड़ा गया। अगर ऐसी बात है तो बात स्पष्ट है अयोध्या काण्ड में तुलसी ने राम को एक मनुष्य के रूप में दिखलाया है। अयोध्या काण्ड में तुलसी का अन्तर्मन बोलता है। अयोध्या काण्ड में तुलसी का निम्न वर्ग या शूद्रों के प्रति सहज-प्रेम को देखा जा सकता है। लक्ष्मण को शक्ति लगने पर विलाप करते हुए राम 'दैव' को 'जड़' कहते है:
जथा पंख बिनु खग अति हीना,
मनि बिनु फनि ..... जौ जड़ दैव जिआवै मोही।'
राज करती हुई कैकेयी की बुद्धि को दैव ने बिगाड़ दिया :
राजु करत यह दैव विगोई, कीन्हेसि अस जस करई न कोई।।"
वन मार्ग के पथिक राम-लक्ष्मण-सीता को देखकर लौटते हुए लोग पछताते है तथा मन में 'दैव' को दोष देते हैं।
तुलसी को वर्ण-व्यवस्था का समर्थक कैसे मान लिया जाए जो उसके नैतिक-आधार पर सेंध लगा रहा हो। आधुनिक युग में निराला इसी दैवी- विधान का विरोध करते हुए 'राम की शक्ति पूजा' में लिखते हैं-'आया न समझ में यह दैवी विधान'। तो विद्वान निराला की प्रगतिशीलता पर वाह-वाह करते है तथा दूसरी तरफ तुलसी को धर्म-भीरु कहने से बाज नहीं आते।
तीसरे बिन्दु के रूप में राम राज्य, कलियुग-वर्णन एवं सामन्तवाद जैसी धारणाएँ हैं जिनको लेकर तुलसी के काव्य पर आक्षेप किया जाता है। तुलसी ने अपने युग की विषमता के रूप में कलियुग का वर्णन 'मानस' तथा कवितावली' में किया है। रामकथा को कलियुग के प्रभाव से मुक्ति के रूप में तुलसी ने प्रस्तुत किया तथा राम-राज्य का मॉडल दिया। आरोप लगाया जाता है कि जिस प्रारूप को तुलसी ने 'मानस' में दिया, उसे 'कवितावली' तथा अन्य रचनाओं में तोड़ देते हैं। तुलसी ने 'मानस' में राम-राज्य के रूप में एक प्रारुप दिया क्योंकि एक सजग साहित्यकार का कर्तव्य होता है कि वह समाज को एक आदर्श दे। यही कार्य तुलसी ने किया। प्रेमचन्द पहले आदर्शवादी थे, बाद में यथार्थवादी बने, यही तुलसी के साथ हुआ। तुलसी ने 'मानस' के बाद की रचनाओं में कलियुग-वर्णन के माध्यम से मुगलकाल की बदहाली का वर्णन किया। कोई मध्यकालीन कवि ने प्रत्यक्ष रूप से सामन्तवाद का विरोध नहीं किया लेकिन तुलसी सामन्तवाद पर बेबाक टिप्पणी करते हैं:
गोंड गंवार, नृपाल महि जगन महा महिपाल।
साम न दाम न भेद कलि केवल दंड कराल ।।
तुलसी अपने समय के राणा जी के यहाँ नहीं गए। क्या तुलसी केशव की तरह राजाश्रय नहीं प्राप्त कर सकते थे? लेकिन तुलसी का काव्य तो प्राकृत जन के लिए था :
कीन्हे प्राकृत जन गुण गाना।
कवितावली में उसी प्राकृत जन में व्याप्त दरिद्रता का यथार्थवादी वर्णन करते हैं- "खेती न किसान को ।" "जब वे समाज के पूरे रंग-मंच को देखते-देखते तथा भोगते-भोगते यथार्थवादी एवं व्यावहारिक हो जाते हैं। दोहावली, कवितावली आदि में तब वे कलिकाल की गर्दन-मरोड़ देते है। अपने जीवन के परवर्ती चरण में तुलसी आध्यात्मिक तथा स्वप्नद्रष्टा के बजाय धार्मिक एवं यथार्थवादी द्रष्टा हुए हैं। उन्होंने अन्ततः घोषित किया कि समाज का आधार विचार नहीं है, पेट है यानी आर्थिक-शक्ति।" तुलसी के जीव- ब्रह्म प्रपत्ति आदि के सम्बन्ध में दिये गये प्रवचन तब झूठे लगते हैं जब हम उनकी परवर्ती रचनाओं को देखते हैं। गेटे का उपन्यास 'दी सारोज यंग वेदर' का मुख्य पात्र पूर्वार्द्ध में जिन आदर्शवादी मान्यताओं को गढ़ता है, उत्तरार्द्ध में ढहाता भी है। तुलसी की भी यही जीवन-यात्रा है। 'मानस' में गढ़ी मान्यताएं या आदर्श 'कवितावली', 'हनुमान बाहुक' आदि में आकर यथार्थवाद के आगे टूट जाते है यानी कल्पना तथा वास्तविक की टकराहट में वास्तविकता विजयी हुई है। लेकिन 'मानस' में तुलसी अपनी तरफ से कुछ नहीं कहते बल्कि 'नाना-पुराण निगमागम सम्मत' है। जब वे 'कवितावली' में अपनी तरफ से कहने लगते है तब आदर्श टूट कर यथार्थवादी हो जाते हैं। प्रत्येक साहित्यकार एक आदर्श समाज के लिए देना चाहता है। यह उसका सामाजिक कर्तव्य होता है। यही कार्य तुलसी ने किया तथा रामराज्य मॉडल दिया। 'विनयपत्रिका' में उसे जिस समाज का सामना करना पड़ता है, वह 'मानस के मानसिक समाज से भिन्न है। वस्तुतः यही असली समाज है। यही यथार्थवादी समाज कवितावली' में भी है। 'मानस' में तुलसी ने कलिकाल का लक्षण लिखा 'लेकिन 'विनयपत्रिका', 'कवितावली' तथा 'हनुमान बाहुक' में गहरा द्वन्द्व आरम्भ होता है। मध्यकालीन धार्मिक व्यवस्था में प्रत्येक समस्या का हल 'राम' हैं। वे लिखते हैं:
कलि नाम कामतरु राम को।
दल निहार दारिद दुकाल दुख दोष घोर धन धाम को।'
'कवितावली' तथा 'हनुमान बाहुक' में कलिकाल तथा राम भक्ति का द्वन्द्व धनीभूत हो गया है। मृत्यु-त्रास के साथ तो सभी पुरानी आस्थाओं पर प्रश्नचिन्ह लग जाते हैं 'कवितावली' में तुलसी यथार्थवादी स्तर पर उतर कर
कहते हैं:
तुलसी बुझाई एक राम धनस्याम ते।
आगि बड़वाग्नि से बड़ी है आगि पेट की।।"
कलिकाल तुलसी को गहरा सन्त्रास देता है। किसान न खेती कर पाता है तथा भिखारी को न भिक्षा मिलती है। सभी लोग जीविकाविहीन है। किंकर्तव्यविमूढ़ होकर लोग 'कहे एक एकन सों, कहां जाई का करी।' अन्त में तुलसी पूर्णतः अलगाव की स्थिति में आकर कहते हैं:
भागीरथी जल पान करौं, अरुनाम द्वै राम के लेत निते हों।
मोको न लेनो न देनों कछु, कलि भूमि न रावरी और चितैहों।
जानिके जोर करौं परनाम, तुम्हें पछितैहों पै मैं न मितैहों।
ब्राह्मन ज्यों उरगारि, हौं त्यों ही सिहारे हिये न हितैहों।'
जिस समाज के पुनर्निर्माण के लिए बाबा ने 'मानस' का प्रारूप तैयार किया, वह कलिकाल का कुछ भी नही बिगाड़ सका। इस जटिल जगत में तुलसी अपनी रचनात्मकता से अलग होकर आत्म-निर्वासन की अनुभूति करते हैं। 'हनुमान बाहक' को मृत्यु-पीड़ा की चीख कहा जाता है। बाहपीड़ा से तुलसी की मृत्यु हुई थी। उनका प्राणान्त उतना मायने नहीं रखता, जितना उनके आदर्शों की मौत। हनुमान, तुलसी के इष्टदेव थे, अत्यन्त शक्तिशाली थे। अतः बाहु-पीड़ा के निवारणार्थ उन्होंने उनकी प्रार्थना की :
चेरो तेरो तुलसी तू मेरो कहनो रामदूत।
ढील तेरी, बीर ! मोहि पीर तै पिराति है ।।13
क्या यह राम की ढील स्वयं तुलसी की भक्तिपरक आस्था पर प्रहार नहीं है। सारा-'बाहुक' आर्तनाद से भरा है, करुणा से ओत-प्रोत है। बाहुक में तुलसी की चीख पुकार कोई नहीं सुनता। अन्त में तुलसी कहते हैं :
कहाँ हनुमान सो, सुजान राम राय सों,
कृपानिधान संकर सो, विधान सुनिये।
हरण विषाद-राग रोष गुन-दोष गई,
विरची-विरंचि सब देखियत दुनिये।
माया जीव काल के, करम के,
सुभाय के, करैया राम, वेद-कहै, सांची मन गुनिये।
तुमने कहा न होय, हाहा! सो बुझैये मोहि,
हौ हँ रहौ मौन ही, क्यों सो जानि-लुनिए ।।'(4)
तुलसी इस यातना को नियति मानकर चुप हो जाते है। इतने बड़े भक्त का ऐसा मोहभंग शायद ही कभी हुआ हो। इस मोहभंग के साथ ही तुलसी आधुनिक जीवनबोध के निकट आ जाते हैं। उनकी इतनी लम्बी जीवन-यात्रा मोहभंग की यात्रा है जो स्वयं उनके विश्वासों तथा जीवन दोनों की अत्यन्त- करुण त्रासदी है।
तुलसी पर साम्प्रदायिक या हिन्दूवादी होने का आरोप लगाया जाता है। लेकिन तुलसी के काव्य में कहीं भी साम्प्रदायिक संकीर्णता, नहीं मिलती। कहीं भी इस्लाम के प्रति विद्वेष की भावना उनके मन में नहीं आयी। रहीम से इनकी मित्रता थी। रहीम के कहने पर तुलसी ने 'बरवै रामायण' की रचना की। यही तुलसी की दृष्टि की उदारता का परिचायक है। अपने धर्म की खामियों का परिष्कार करना साम्प्रदायिकता नहीं है अगर तुलसी से मुस्लिमों के खिलाफ पुरोधा बनना था तो राणा की शरण में जाते।
यहाँ पर सवाल उठता है कि 'मानस' का रचनात्मक उद्देश्य क्या है? तुलसी ने 'मानस' की रचना क्यों की? वस्तुतः किसी कृति की रचनात्मक अभिप्राय को दो स्तरों पर दिखाया जा सकता है:
1. साहित्यिक स्तर पर।
2. वैचारिक स्तर पर।
साहित्यिक स्तर पर हर कवि की इच्छा अपने आपको महान कवियों की श्रेणी में दर्ज कराना होता है। तुलसी भी इसके अपवाद नहीं है। तुलसी भले ही कहें कि 'कवित विवेक एक नहीं मोरें' पर उन्हें पूर्ण विश्वास है :
भनिति मोर सब गुन रहित' विश्व विदित गुण एक।
सो विचार सुनहि सुमति, जिनके विमल विवेक ॥
दरअसल सृजनात्मक क्रिया को देव कृपा से अनुकरण मात्र मानना कवियों का शील रहा है। अक्सर महान कवि अपने क्षेत्र की सारी सम्भावनाओं को निचोड़ लिया करता है। तुलसी ने भी राम कथा एवं अवधी भाषा की सारी संभावनाओं को निचोड़ लिया था, इसलिए उनके बाद न तो अवधी भाषा का विकसित रूप मिलता है और न राम कथा का। यही कारण है कि आज भी तुलसी हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ कवि के रूप में स्वीकृत हैं। अतः साहित्यिक उद्देश्य में तुलसी अपने स्तर पर पूर्णतः सफल रहे हैं।
वैचारिक स्तर पर तुलसी का उद्देश्य भक्ति को स्थापित करना है। भक्ति में भी सगुण भक्ति एवं सगुण भक्ति में भी राम की महत्ता । तुलसी के यहाँ निर्गुण ब्रह्म की सत्ता की अस्वीकृति नहीं है-'अगुनहि सगुनहि नहिं कयु भेदा। लेकिन तुलसी सगुण और लोकमंगल राम का ही चित्रण करते हैं। तुलसी ने 'बाल काण्ड' में रूपक बांधने के दरम्यान स्पष्ट किया है- मेरी कविता रूपी सरयू नदी राम-भक्ति की गंगा में मिल गयी है।
राम भगति सुरसरितहि जाई, मिली सुकीरतसरयू सुहाई।
- बालकाण्ड; रामचरितमानस
वस्तुतः बाल काण्ड का यह प्रसंग तुलसी की काव्य प्रतिभा भी है। इसमें तुलसी ने स्पष्ट कर दिया है कि उनकी कविताई अर्थात् 'मानस' की राम भक्ति का एक ही माध्यम है। रामभक्ति के सामने कविताई को कोई खास महत्त्व नहीं देते :
भनिति विचित्र सुक विकृत जोऊ। राम नाम बिन सोभन सोऊ ॥
विधु बदनी सब भाँति सवारी । यहि न बसन बिना नर नारी॥
'मानस' में तुलसी की कविताई एवं भक्ति इस कदर मिल गई है कि
गिरा अरथ जल बीच सम कहियत भिन्न न भिन्न ।'
इतनी चर्चा के बाद यह बात स्पष्ट हो जाती है 'मानस' की रचना का मूल उद्देश्य भक्ति एवं सदाचार था; न कि वर्ण-व्यवस्था का प्रतिपादन।
'मानस' के रचनात्मक उद्देश्य को कुछ सुधी विद्वानों ने अवतारवाद से जोड़ा है। उन विद्वानों का कहना है कि 'मानस' की रचना अवतारवाद के सन्देहों को दूर करने के लिए की गई। चूँकि भक्ति तुलसी का प्रतिपाद्य है- इसलिए वे राम का लौकिक चित्रण करते हुए बीच-बीच में पाठकों को यह एहसास दिलाते हैं कि वह परमब्रह्म हैं लेकिन तुलसी यहाँ रमते नहीं है। जहाँ राम का मानवीय चित्रण होता है, तुलसी वहीं पर ज्यादा रुकते हैं। अकारण ही लोगों के राम-वनगमन प्रसंग मुग्ध नहीं करता है। उत्तर-भारत की जनता ने राम के मानवीय प्रेम को जो इतना स्वीकार किया, वह तुलसी-काव्य के कारण ही।
अब तक की चर्चा से स्पष्ट है कि किसी काव्य में वैचारिक स्तर पर एक साथ विरोध एवं समर्थन हो सकता है। हमें यह देखना होगा कि कवि अपने काव्य में सबसे अधिक महत्ता किस बात को प्रदान करता है। 'मानस' के सम्बन्ध में यह बात एकदम स्पष्ट है कि उसका मूल राम-भक्ति है। राम- भक्ति ऐसी चीज है जिसके आगे तुलसी सारे पूर्वाग्रहों से मुक्त हो जाते हैं :
यों सब धरम करम जरि जाऊ।
जहि न राम पद पंकज भाउ ।।
जाति-पाँति धन धरम बराई।
सब तजि तुमहि रहें लौलाई।।'"
तभी एक विद्वान ने कहा कि- "यह (रामचरितमानस) भक्ति का शास्त्र भी है, भक्ति का दर्शनशास्त्र नहीं, वह भक्ति का काव्यशास्त्र है।" (तुलसी मंजरी)
सन्दर्भः
1. तुलसीदास : रामचरितमानस : उत्तरकाण्ड (मूल गुटका) 98वाँ संस्करण : गीताप्रेस; गोरखपुर, पृष्ठ 507
2. वही; बालकाण्ड : पृष्ठ 57
3. वही; पृष्ठ 46
4. वही; पृष्ठ 67
5. वही, अयोध्याकाण्ड : पृष्ठ 293
कला और संस्कृति में श्रीराम :: 115
6. तुलसीदास : कवितावली : उत्तरकाण्ड : 13वाँ संस्करण (अजिल्द) गीताप्रेस; गोरखपुर, पृष्ठ 219
7. तुलसीदास : रामचरितमानस : लंकाकाण्ड (मूल गुटका) 98 संस्करण, गीताप्रेस; गोरखपुर, पृष्ठ 565
8. वही, अयोध्याकाण्ड; पृष्ठ 268
9. तुलसीदास : दोहावली : 15वाँ संस्करण (अजिल्द), गीताप्रेस, गोरखपुर, पृष्ठ 109
10. तुलसीदास : विनय-पत्रिका : 9वाँ संस्करण (अजिल्द), गीताप्रेस; गोरखपुर, पृष्ठ 97
11. तुलसीदास : कवितावली : उत्तरकाण्ड : 13वाँ संस्करण (अजिल्द), गीताप्रेस; गोरखपुर, पृष्ठ 215
12. वही; पृष्ठ 196
13. तुलसीदास : हनुमान बाहुक 7वाँ संस्करण (अजिल्द), गीताप्रेस; गोरखपुर, पृष्ठ 49
14. वही; पृष्ठ 61
15. तुलसीदास : रामचरितमानस : बालकाण्ड (मूल गुटका) 98वाँ संस्करण, गीताप्रेस; गोरखपुर, पृष्ठ 47
16. वही; पृष्ठ 103
(लेखक मध्यकालीन एवं आधुनिक इतिहास विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज के पूर्व अध्यक्ष रहे है। ‘ कला व संस्कृति में श्रीराम’ पुस्तक से साभार। यह पुस्तक उत्तर प्रदेश के संस्कृति विभाग द्वारा मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ के संरक्षक, संस्कृति व पर्यटन मंत्री जयवीर सिंह के मार्ग दर्शन , प्रमुख सचिव पर्यटन व संस्कृति मुकेश कुमार मेश्राम के निर्देशन, संस्कृति निदेशालय के निदेशक शिशिर तथा कार्यकारी संपादक तथा अयोध्या शोध संस्थान के निदेशक डॉ लव कुश द्विवेदी के सहयोग से प्रकाशित हुई है।)