यूपी निर्वाचन में वामपंथी करतब !!

अखिलेश यादव तो किसी भी कम्युनिस्ट को खींच भी नहीं पाये ? तो अब कौन खिंचेगा? यूं भी यूपी में सोशलिस्टों और कम्युनिस्टों में गोटी कभी सही बैठ नहीं पायी ।

Written By :  K Vikram Rao
Published By :  Shashi kant gautam
Update:2022-01-20 20:43 IST

उत्तर प्रदेश में वामपंथी राजनीति: Photo - Social Media

एक देसी कहानाउक्त (लोकोक्ति) है : ''हाथी—घोड़े बहे जायें, गदहा पूछे कितना पानी ?'' ऐसा प्रतीत होता है कि यूपी के चुनावी मंजर (UP Election 2022) का यही यथार्थवादी चित्रण है। खबर आई कि भाजपा—विरोधी वोटों के अहितकारी बंटवारे को थामने हेतु वामपंथी दल (leftist party) अब संयुक्त आघाड़ी (Sanyukt aghadi) (मोर्चा) की रचना की कोशिश में जुट गये। (हिन्दुस्तान टाइम : 20 जनवरी, पृष्ठ—4—कालम 6—8 पर)।

मकसद है कि एक पताका तले सभी प्रगतिशील दलों को बटोरकर समस्त प्रत्याशी नामित हों। करीब 40 सीटों (403 में से) के लिये सभी तरक्कीपसंद दलों को लाल वाहटा (पताका) तले लायें। मूल प्रश्न, बल्कि वस्तुत: धर्म संकट यह है कि समाजवादी (लाल टोपी) पार्टी और उससे जुड़े लोकदल आदि लोग काहे इसे मानें ? वे दोनों उन्नीस तो हैं नहीं। लाल टोपीधारी अखिलेश यादव तो अकेले ही सत्ता की ढय्या छूने पर आमादा है। फिर वे छुटभैइयों को क्यों ढोयें? खींचते चले ? भाजपा तो रक्तिम वर्ण से ही बिदकती है। वह गेरुआ से मेल कदापि नहीं खाता !

वामपंथी दलों का यूपी में उभरना

तो पहले परख लें इन कम्युनिस्ट पार्टियों का यूपी के राजनीतिक इतिहास की कसौटी पर कितना बल—तेज है ? विगत तीन विधानसभाओं (पन्द्रहवीं, सोलहवीं और सत्रहवीं) में इन वामपंथी दलों का कोई नामलेवा तक नहीं था। कई जगहों से लड़े थे। परिणाम शून्य ही रहा। तो अबकी कहां से समर्थन पाते अथवा लाते? कम्युनिस्टों के महान पुरोधा थे डा. जेड.ए. अहमद पर उन्हें भी राज्य सभा में सीट देने के आकर्षण से मुलायम सिंह यादव (Mulayam Singh Yadav) समाजवादी पार्टी में लुभाकर ले आये थे।

अखिलेश यादव तो किसी भी कम्युनिस्ट को खींच भी नहीं पाये ? तो अब कौन खिंचेगा? यूं भी यूपी में सोशलिस्टों और कम्युनिस्टों में गोटी कभी सही बैठ नहीं पायी । संयुक्त विधायक दल गठित हुआ था। उसकी अल्पायु में ही मौत हो गयी। तब झारखण्डे राय, रुस्तम सैटीन, उदल, मित्रसेन यादव, चन्द्रजीत यादव आदि नामी गिरामी थे। मगर ये लोग पार्टी को यूपी—व्यापी तक नहीं गठित कर पाये। सरयू पार ही रह गये।

उनमें एक थे सरजू पाण्डेय। एकदा लखनऊ में यूपी विधान परिषद की लाबी में उनके पास कुछ पार्षदों के साथ (1984 जनवरी) मैं बैठा था। तभी आंध्र प्रदेश में एनटी रामा राव की तेलुगु देशम पार्टी ने पच्चीस साल से सत्तासीन रहे इन्दिरा—कांग्रेस को हरा कर टीडीपी वाली सरकार बनायी थी। उन्हें तीन चौथाई बहुमत मिला था। कौतूहल में सरजू पाण्डेय ने पूछा कि ''नौ माह पूर्व बनी तेलुगु देशम पार्टी के नेता ''नचनिया'' एनटी रामा राव (वे फिल्म हीरो होते थे) ने ऐसी अभू​तपूर्व विजय कैसे हासिल कर ली?'' ''नचनिया'' शब्द पर मुझे ऐतराज हुआ। आंध्र प्रदेश में नीलम संजीव रेड्डि और पीवी नरसिम्हा राव को मिलाकर इतने जबरदस्त कांग्रेसी वोट बैंक पर विपक्ष का कोई राजनेता विजयी नहीं हुआ था। फिर मैंने सरजू पाण्डेय से पूछा : ''आपकी साठ साल पुरानी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (स्थापित 1921 : कानपुर) से छह दशकों में प्रथम विधानसभा (1952) से आज तक छह सीटें भी नहीं जीत पायी। ऐसा विफलताभरा करिश्मा सीपीआई ने कैसे कर दिखाया, पाण्डेय जी?'' जवाब नहीं मिला।

वामपंथी दलों की मतदाताओं से अपेक्षा

तो इस संदर्भ में इन सियासी हालातों की पड़ताल करनी चाहिये कि अगली विधानसभा के निर्वाचन में ये वामपंथी पार्टियां कितनी सीटें जीत पायेंगी अथवा क्या सदन सीपीआई हेतु बंजर ही रहेगा? अर्थात वामपंथी दलों की इस बार मतदाताओं से कैसी अपेक्षा है? वे गत चुनावों में 140 सीटों पर लड़े थे। कुल स्कोर ''डक'' (शून्य) ही रहा। संकट गहराया है। इसीलिये कि भाजपा और सपा अपने पृथक गठबंधन के भरोसे चुनावी मैदान में हैं। अब वामपंथियों को कौन चारा डालेगा? भाकपा नेता गिरीश का तो ऐलान है कि वामपंथी ''एकला'' चलेंगे। वे सारी प्रगतिशील दलों को यूपी में गठबंधन हेतु पत्र भेज चुके हैं। जवाब आजतक कही से भी नहीं आया। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के हीरालाल यादव ने कहा कि वे समाजवादी पार्टी से जोड़ बनाना चाहते है। कारण हैं कि : समाजवादी जनवादी हैं। मगर अखिलेश की मर्जी क्या है?

समाचारपत्र की रपट के अनुसार पश्चिम यूपी में भी वामपंथी लड़ सकते हैं। मगर उन्हें कोई जाट—बहुल क्षेत्र का मतदाता वोट क्यों दे दे? वे सब कम्युनिस्टों की नजर में ''कुलक'' (अमीर किसान) हैं जिनके नेता चौधरी चरण सिंह थे। खेतिहर मजदूरों वाली पार्टी अब कुलक से साझेदारी कैसे बनायेगी? तो उन्हें ठौर कहां मिले? उनका आरोप भी है कि ''कमंडल—मंडल के कारण समतामूल वामपंथी के लिये अब दोआबा उर्वरा नहीं रहा। पूर्वांचल के आसपास की भूमि कभी लाल हुआ करती थी। अब तो गेरुआ हो गयी। बाबा विश्वनाथ के विकास के बाद तो सभी ''हर—हर, बम—बम'' हो गया है। तो एक और कहावत सुन लें। ''भागते भूत की लगोटी ही सही।'' तो वामपंथ को कथित प्रगतिवादियों की लंगोट का मात्र टुकड़ा पाने में ही प्रयासरत रहना चाहिये।

इस बीच केरल में माकपा के वरिष्ठ नेता कोडियारी बालकृष्णन ने (20 जनवरी 2022) को कोची नगर में कहा कि स्थानीय सांसद (वायनाड से) राहुल गांधी ने घोषणा कर दी है कि ''भारत हिन्दुओं का है। अत: हिन्दू ही राज कर सकता है।'' लखनऊ का दैनिक पायोनियर (20 जनवरी 2022 पृष्ठ—4 पर कालम 2—4 में विशेष संवाददाता कुमार चेल्लपन की रपट)। तो क्या यूपी में गुंजाइश है गैर हिन्दू मुख्यमंत्री बनने की?

अर्थात बड़ा नैराश्य उभरा है चुनावी पटल पर। तो बचाये कौन ? सरयू—गंगा—यमुना तटवर्ती के भगवान शिवरामकृष्ण के क्षेत्र में? अखिलेश के सपने में आकर यदुवंशी कृष्ण द्वारा फिर बताया जायेगा। दस मार्च के पूर्व। प्रतीक्षा करें तब तक।

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