90 के दशक में जब कहा जाता था कि अगला विश्वयुद्ध पानी के लिए होगा, तो उस पर विश्वास करना कठिन होता था। आज लगता है कि अगर जल की बर्बादी इसी कदर होती रही तो आने वाले सालों में निश्चित ही पानी के लिए युद्ध कोई अजूबी बात नहीं होगी। नदियों के जल का बंटवारा युद्धों को न्यौता देगा। वर्तमान समय में सबसे ज्यादा अनसुलझे मुकदमे पानी के बंटवारे को लेकर हैं। शहरों में जल स्रोतों की बर्बादी ने यह संकट और बढ़ा दिया है। लखनऊ विधानसभा के प्रिंसिपल सेक्रेटरी ने आदेश जारी किया कि सभी कार्यालयों और कैंटीनों में आधा गिलास पानी दिया जाए। यह आदेश जल की समस्या और उपाय दोनों ओर इशारा करता है। इस तरह के छोटे प्रयास भी मायने रखते हैं। देश में ऐसे दर्जनों छोटे प्रयास हो रहे हैं, जिनका अनुकरण किया जाना चाहिए।
देश की नौंवी जनगणना 1951 में हुई। इसमें प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता को भी रिकार्ड किया गया था। उस समय प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता 5,177 घन मीटर थी, जो घटकर कर सन 2011 में मात्र 1,545 घन मीटर रह गई। जानकारों का कहना है कि आने वाले समय में जल की उपलब्धता बहुत तेजी से कम होनी है। सरकार का आंकलन है कि वर्ष 2025 तक प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता घटकर मात्र 1,341 घन मीटर रह जायेगी और वर्ष 2050 तक इसकी मात्रा 1,140 घनमीटर या इससे भी कम हो जायेगी। इसके बावजूद, सरकारों का ध्यान हर घर में नल लगाकर पानी को बर्बाद करने का प्रतीत होता है।
यह हालात तब पैदा हुए हैं जब नदियों को हमारे समाज में मां का दर्जा दिया गया है। देश में दस हजार से ज्यादा नदियां हैं। तालाब, पोखर, बावड़ी, कुएं आदि प्राकृतिक जल स्रोतों की संख्या लाखों में है। देश में हर साल करीब 4 हजार अरब घनमीटर तक वर्षा होती है। लेकिन, वर्षा जल संचयन की संस्कृति हमने विकसित नहीं किया। जिस कारण 85 प्रतिशत से अधिक जल व्यर्थ बह जाता है। पानी की उपलब्धता कम होने की सबसे बड़ी वजह विकास के नाम पर नदी, तालाबों और कुओं आदि जलस्रोतों को पाटकर अधिकांश हिस्सों पर रिहायशी इलाके बना देना है। शहरों में जिस तरह से तालाब और झील गायब हो रहे हैं, उससे भी संकट बढ़ा है। वाटर रिचार्ज नहीं हो रहा है, जबकि दूसरी ओर हम पानी का अधिक से अधिक उपयोग कर रहे हैं। चेन्नई और मुंबई जैसे समुद्र के किनारे बसे शहरों की हालत देखिए। एक ही बारिश में वह जलमग्न हो जाते हैं। क्योंकि, हर प्रकार के जलस्रोतों को पाट दिया गया है, जिससे न पानी रिचार्ज होता है और ही न बहकर समुद्र में जा पाता है।
सूखते तालाब और नदियों के कारण जल संकट बढ़ा तो बोरवेल व नल आदि से भूजल का दोहन शुरू हो गया। इससे देश में औसतन हर साल भूजल स्तर 0.3 मीटर नीचे जा रहा है। वाटर रिचार्ज और वाटर हारवेर्टिंग जैसी पद्धतियों पर भी समाज व सरकार का कम ध्यान है, जिससे हम पानी का तो उपयोग कर लेते हैं, लेकिन वापस पृथ्वी को नहीं देते। स्थिति यह है कि घरेलू उपयोग में भी हम करीब 80 फीसदी पानी की बर्बादी कर देते हैं, जबकि थोड़ी सी जानकारी व व्यवहार संबंधी आदतों में बदलाव करके हम बर्बाद होने वाले पानी को बचा सकते हैं। पानी की बर्बादी के कारण ही भारत जल तनाव (वाटर स्ट्रेस्ड) वाले देशों की श्रेणी में शामिल हो चुका है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के हाल के आंकलन के अनुसार देश में 351 नदियां प्रदूषित हैं, इनमें भी 45 प्रमुख नदियां बुरी तरह से प्रदूषित हैं जो आने वाले सालों में नालों में तब्दील हो जाएंगी। लगातार गिरते भूजल स्तर के कारण देश में पानी की भीषण किल्लत खड़ी हो रही है लेकिन, सरकार अब भी कोई प्रभावी कदम नहीं उठा रही। सरकारी अध्ययन बताते हैं कि वर्ष 2002 से 2008 के बीच देश ने 109 किलोमीटर भूजल का इस्तेमाल किया है। जिस कारण से भारत दुनिया में सबसे अधिक भूजल का दोहन करने वाला देश बन गया है, दूसरे नंबर पर चीन और तीसरे नंबर पर अमेरिका है।
देश में करीब 6 हजार कंपनियां ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टैंडर्स से पंजीकृत हैं, जो पानी के कारोबार से जुड़ी हुई हैं। यह कंपनियां पानी तो निकालती हैं, लेकिन उसकी भरपाई के लिए कोई कार्य नहीं करतीं। आंकड़ों के अनुसार एक कंपनी हर घंटे औसतन 5 हजार लीटर से 20 हजार लीटर तक पानी निकाल लेती है। पानी निकालने व साफ करने की पूरी प्रक्रिया में करीब 35 फीसदी पानी बर्बाद भी हो जाता है। फिर भी यह हर साल 15 फीसदी की दर से बढ़ रहा है।
आर ओ का पानी भले ही स्वास्थ्य के लिए लाभदायक हो, लेकिन पानी को साफ करने की पूरी प्रक्रिया बहुत ही खराब है। यह पानी तो साफ करता है, लेकिन करीब 75 फीसदी पानी बर्बाद भी करता है, जिसका उपयोग दूसरे कामों में कर सकते हैं। एक मोटे अनुमान के अनुसार आर ओ एक लीटर पानी साफ करने की प्रक्रिया में तीन लीटर पानी बर्बाद करता है। पानी की बर्बादी के कारण ही पिछले आठ सालों में प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता में 70 प्रतिशत की कमी आ चुकी है।
केंद्रीय जलशक्ति मिशन के अनुसार अकेले दिल्ली में 1.1 बिलियन करोड़ लीटर पानी सीवेज बन जाता है। देश में दुनिया की आबादी का 18 प्रतिशत पानी है। हम केवल 4 प्रतिशत पानी को ही पीने के लायक बना पाते हैं। घरेलू जल का उपयोग केवल 6 प्रतिशत और उद्योगों को 5 प्रतिशत पानी की जरूरत होती है, जबकि 89 प्रतिशत पानी का उपयोग कृषि द्वारा किया जाता है। हम कृषि में पानी की खपत को रातों रात तो कम नहीं कर सकते लेकिन बढ़ते जल संकट को देखते हुए हमें कुछ तात्कालिक उपाय करने चाहिए। जैसे कृषि क्षेत्र में ऐसी फसलों का अधिक प्रयोग किया जाए जो पानी कम सोखते हैं। इसके अलावा ऐसे फसलों पर अनुसंधान और नए बीज भी तैयार किए जा सकते हैं, जो भविष्य में कम पानी में अधिक पैदावार दे सकते हों। जल संकट से निपटने का सबसे कारगर तरीका है वर्षा का संचयन करना। देश की बड़ी कपंनियां अपने भवनों में वर्षा जल संचयन के लिए रेन वाटर रिचार्जिंग सिस्टम लगाने लगी हैं, लेकिन अब भी व्यापक स्तर पर इसका प्रयोग नहीं हो रहा है। ‘जल जन जोड़ो’ अभियान के राष्ट्रीय संयोजक संजय सिंह कहते हैं कि नदियां हमारी संस्कृति हैं। छोटी बड़ी हर प्रकार की नदियों को बचाने का प्रयास ककिया जाएगा। जल संरक्षण का अनूठा प्रयोग हुआ है बुंदेलखंड में। क्षेत्र में ‘परमार्थ समाज सेवी संस्था’ ने नदियों को पुनर्जीवित करने के लिए नदी यात्रा का आयोजन किया था। इसकी सबसे खास बात थी कि इसमें छोटी नदियों को चुना गया, जिनका कोई पुरसाहाल नहीं है। यह यात्रा बुंदेलखंड की नदियों के किनारे कई-कई दिनों तक चली। बहरहाल, जल संरक्षण न सिर्फ हमारी तात्कालिक जरूरत है, बल्कि दूरगारी आवश्यकता भी है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)