बिल्कुल नियमों की अनदेखी करके विवाह करने वालों पर एक्शन जरूर लीजिए। पर सरकारी अफसर को यह किसी ने अधिकार नहीं दिया कि वह सड़क छाप भाषा बोले। उन्हें इस सवाल का जवाब तो देना होगा कि उनके जिले में कोरोना की चेन को ध्वस्त करने के लिए नियमों का पालन अधिकारी स्वयं क्यों नहीं कर पा रहे थे? शैलेश कुमार यादव जब अपने खुद के वीडियो देखेंगे तो खुद ही संभवतः शर्मसार हो जाएंगे।
क्या जिलाधिकारी यादव ने सरदार वल्लभभाई पटेल से कुछ नहीं सीखा? सरदार पटेल ने 21 अप्रैल, 1947 को दिल्ली के मेटकाफ हाउस में आजाद होने जा रहे देश के पहले बैच के आईएएस और आईपीएस अफसरों को संबोधित करते हुए कहा था कि "उन्हें स्वतंत्र भारत में जनता के सवालों को लेकर गंभीरता और सहानुभूति का भाव रखना होगा।" सरदार पटेल ने बाबुओं को स्वराज और सुराज का भी अंतर समझाया था। लगता है कि यादव ने लौह पुरुष से कुछ नहीं सीखा-समझा। वे तो अपनी हनक में थे।
काश, यादव जी ने जगदीश खट्टर और जगमोहन जैसे बेहतरीन आईएएस अफसरों से भी कुछ सीखा होता। जिन दिनों स्वर्गीय जगदीश खट्टर मारुति उद्योग लिमिटेड (एमयूएल) के मैनेजिंग डायरेक्टर थे, उस दौरान वे राजधानी के कस्तूरबा गांधी मार्ग की इंदिरा प्रकाश बिल्डिंग में बैठते थे। वे दफ्तर आते-जाते समय लिफ्ट मैन से लेकर गॉर्ड तक के नाम के आगे जी लगाकर नमस्कार का उत्तर देते थे। वे स्तरीय हिन्दी बोलते थे। उनकी भाषा में उर्दू के शब्दों का भी खुला प्रयोग हुआ करता था। मूल रूप से पंजाबी परिवार से संबंध रखने वाले जगदीश खट्टर ने हिन्दी भाषा पर अधिकार अपने उत्तर प्रदेश रहने के दौरान हासिल किया था। वे उत्तर प्रदेश कैडर के आईएएस अफसर थे। क्यों नहीं शैलेश कुमार यादव ने खट्टर जैसे आईएएस रहे इंसान से भाषा के संस्कार नहीं जाना-समझा ?
बेशक, सरकारी बाबुओं को गर्वनेंस का जो मूल मंत्र दिया गया था उसका वे कोरोना वायरस से लड़ने में इस्तेमाल कर रहे हैं। पर यादव जैसे कुछ तीसमारखान किस्म के अफसर भी हैं। ये अपने को कानून से ऊपर मानने लगते हैं। सरदार पटेल ने 21 अप्रैल, 1947 को आजाद होने जा रहे देश के शिखर पर बाबुओं को संबोधित किया था। इसलिए हर साल 21 अप्रैल को लोकसेवा दिवस के रूप में मनाया जाता है। अखिल भारतीय सेवाओं के विभिन्न अधिकारियों को उनकी सर्वश्रेष्ठ सेवा के लिए सम्मानित किया जाता है। यादव की हरकत की चौतरफा निंदा के बीच एक बात लग रही है कि अब भारत को एल.पी. सिंह, ए.के. दामोदरन,के.सुब्रमण्यम टी.एन.शेषन और जगमोहन जैसे अफसर शायद ही मिलें। ए.के.दामोदरन ने ही भारत-सोवियत संघ के बीच साल 1971 में हुई एतिहासिक संधि का मसौदा तैयार किया था। स्वाधीनता के बाद भारत की विदेश नीति की रूप-रेखा को दिशा देने में 1953 बैच के आईएफएस अफसर दामोदरन साहब की अहम भूमिका थी। हालांकि उन्होंने अपनी लम्बी सरकारी सेवा के दौरान तमाम प्रधानमंत्रियों और दूसरे अहम मंत्रियों के साथ काम किया पर उन्होंने कभी किसी के साथ टुच्चा व्यवहार नहीं किया। अब उनके जैसे नौकरशाहों का टोटा है। उन जैसे तटस्थ और ईमानदार सरकारी अफसरों की प्रजाति तेजी से विलुप्त हो रही है।
अब सिविल सेवा के माध्यम से आए तमाम आला अफसर नौकरी पर रहते हुए ही किसी बड़े रसूखदार नेता के खासमखास बन जाते हैं, जिससे कि रिटायर होने के बाद भी उन्हें कोई बढ़िया सी पोस्टिंग मिल जाए या वे राजनीति में अपने भाग्य को बिना किसी समाज सेवा के चमका सकें। देखिए आईएएस, आईपीएस या आईएफएस अधिकारी बनने से ज्यादा अहम यह है कि आप अपने दायित्व का ईमानदारी से निर्वाह करें। आपका आचरण और व्यक्तित्व पर कभी कोई सवाल खड़े न करें। आपको देश याद तो तब करता है जब आप कुछ अलग हटकर करके दिखाते हैं। भारत में पहली बार चुनाव सुधार लागू करने वाले पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टी.एन. शेषन ने एक नई परंपरा की शुरुआत की थी। उन्होंने साबित किया था कि इस सिस्टम में रहते हुए भी बहुत कुछ सकारात्मक किया जा सकता है । वे अपने दफ़्तर में बैठकर काम करने वाले अफ़सर नहीं थे। वे चाहते थे कि चुनाव सुधार करके भारत के लोकतंत्र को मजबूत किया जाए। अगर वे चाहते तो वे भी किसी बड़े नेता या किसी पार्टी का हित भी साध सकते थे। पर शेषन ने अपने लिए एक कठिन और कठोर राह को पकड़ा। उन्होंने इंदिरा गाँधी को नाराज करके भी चुनाव सुधार का ऐतिहासिक कार्य करके विश्व भर में नाम कमाया। उन्होंने देश को जगाने के उद्देश्य से 1994 से 1996 के बीच चुनाव सुधारों पर देश भर में सैंकड़ों जन सभाओं को संबोधित किया।
कोई शक की बात नहीं कि कोरोना के खिलाफ जंग जटिल है। इसके लिए सख्ती भी जरूरी है। पर सरकारी अधिकारी को सार्वजनिक रूप से गाली-गलौच करने का अधिकार किसी ने नहीं दिया है। यह तो हाथ जोड़कर भी किया जा सकता था। यह बात शैलेश कुमार यादव जैसे नौसिखुये अफसर अच्छी तरह जान लें।
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तभकार और पूर्व सांसद हैं।)