कौन बनेगा जनरल और पुलिस आयुक्त
दिल्ली पुलिस के आयुक्त पद पर बालाजी श्रीवास्तव की नियुक्ति के साथ ही कुछ स्थायी आलोचक दुखी आत्माओं द्वारा अब यह कहा जाने लगा है
दिल्ली पुलिस के आयुक्त पद पर बालाजी श्रीवास्तव की नियुक्ति के साथ ही कुछ स्थायी आलोचक दुखी आत्माओं द्वारा अब यह कहा जाने लगा है कि कई अन्य आईपीएस अफसरों की वरिष्ठता की अनदेखी करके उन्हें यह अहम पद दिया गया। इस लिहाज से सतेन्द्र गर्ग और ताज मोहम्मद के नाम विशेष रूप से लिए जा रहे हैं। कहने वाले तो यहां तक कह रहे हैं कि चूंकि ताज मोहम्मद के भाई बिहार कांग्रेस के बड़े नेता हैं इसीलिए उन्हें दिल्ली पुलिस का आयुक्त नहीं बनाया गया। ये कभी वरिष्ठता को लेकर आ रहे हैं तो कभी राजनीति को। याद रख लें कोई भी सरकार किसी अफसर को प्रमोशन देने के अपने स्वाभाविक अधिकार को छोड़ नहीं सकती। वह किसी पद पर उसी इंसान को नियुक्त करेगी जिसमें उसे संभावनाएं नजर आती होंगी। ऐसा तो सभी पूर्ववर्ती सरकारों ने बार-बार किया है I हां, आप इस स्तर पर सरकार की निंदा कर सकते हैं। आपको निंदा करने से कोई नहीं रोक सकता। पर सिर्फ़ वरिष्ठता को ही पदोन्नति का आधार भी तो नहीं बनाया जा सकता। देश की ज़रूरतों के अनुसार किसी को कोई पद देना या न देना किसी भी निर्वाचित सरकार का विशेषाधिकार है।
1973 में सैम मानेक शॉ का जब उत्तराधिकारी बनाने का वक्त आया तो सबसे वरिष्ठ होने के वावजूद जनरल पीएस भगत को सेना अध्यक्ष नहीं बनाया गया। वैसे सैम चाहते थे कि भगत ही उनके उत्तराधिकारी हों I लेकिन, इंदिरा सरकार द्वारा जनरल बेवूर को अगला सेनाध्यक्ष बनाया गया। भगत का ट्रैक रिकॉर्ड बेहतरीन था। इसी तरह से जनरल कृष्णा राव के रिटायर होने के बाद जनरल एसके सिन्हा सबसे वरिष्ठ जनरल थे, लेकिन उन्हें शिखर पद से वंचित रखा गया। देश का नया सेनाध्यक्ष जनरल एएस वैद्य को बनाया गया। एसके सिन्हा तो साफ बोलते थे। उन्होंने श्रीमती इंदिरा गांधी को सलाह दी थी कि वह स्वर्ण मंदिर में सेना को न भेजें। उन्हें कथित रूप से इसलिए सेनाध्यक्ष नहीं बनाया गया क्योंकि उनके पिताजी जयप्रकाश नारायण के करीबी थे। जब जयप्रकाश नारायण ने बिहार रिलीफ कमिटी बनाई थी तब उस कमेटी के सचिव का भर जेनरल सिन्हा के पिता और बिहार के रिटायर्ड आई.जी. एम.के. सिन्हा को ही दिया था जिसे उन्होंने बखूबी निभाया I जनरल एसके सिन्हा ने अपनी आत्मकथा 'चेंजिंग इंडिया-स्ट्रेट फ़्रॉम हार्ट' में लिखा है, ' एक बार मैं हवाई सफर कर रहा था। संयोग से मेरे बगल में जय प्रकाश नारायण की सीट थी। जब हम अपने गंतव्य स्थान पर पहुंचे तो मैने उनका ब्रीफ़केस उनके हाथ से ले लिया।
उन्होंने मना भी किया। मैंने कहा कि मैं जनरल होने के साथ-साथ आपका भतीजा भी हूँ। अगले दिन जब मैं तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल टीएन रैना से मिलने गया, तो उन्होंने मुझसे कहा कि मुझे बताया गया है कि आप जेपी के नज़दीकी हैं।' इसी तरह से कुछ साल पहले दो जनरलों प्रवीण बख्शी और पीएम हरीज़ की वरिष्ठता को नज़रअंदाज़ कर जनरल बिपिन रावत को सेनाध्यक्ष बनाया गया था। रावत को सेनाध्यक्ष इसलिए बनाया गया था क्योंकि वे चीन मामलों के विशेषज्ञ थे और जब नए सेनाध्यक्ष को बनाया जाना था तब भारत-चीन के बीच सीमा पर विवाद बहुत तीखा हो चुका था। देखिए हरेक व्यक्ति शिखर पर तो नहीं पहुंच सकता। शिखर पर स्पेस ही सीमित और बहुत कम है। वहां पर वही जाएगा जिसकी योग्यता तथा अनुभव संदेह से परे होगी। इसके साथ ही सरकार को यकीन होगा कि वह व्यक्ति सरकार की नीतियों तथा कार्यक्रमों को अमली जामा पहनाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ेगा। सरकार उस अफसर को तो कोई अहम पद नहीं दे सकती जो काम में निपुण न हो। उसे भी नहीं दे सकती जिस पर कोई आरोप हो। सरकार को तो किसी भी अधिकारी से दक्षतापूर्वक काम करवाना होता है।
अगर वरिष्ठता के अनुसार ही प्रमोशन होने हैं, तो फिर सरकारी या निजी दफ्तरों में पर्सनल डिपार्टमेंट स्थापित करने की क्या जरूरत है। तब तो कंम्यूटर बता ही देगा कि कौन सा अफसर वरिष्ठता क्रम में सबसे ऊपर है। सरकार को ही यह अंतिम अधिकार होता है कि वह किस अफसर प्रोन्नति करे और किस की सेवा में विस्तार करे। उत्तर प्रदेश कैडर के वरिष्ठ आईएएस अधिकारी प्रदीप कुमार सिन्हा को कैबिनेट सचिव पद पर रहते हुए सेवा विस्तार मिले। नियुक्ति से संबंधित मंत्रिमंडलीय समिति ने उन्हें सेवा विस्तार दिए। पीके सिन्हा को 13 जून 2015 को कैबिनेट सचिव बनाया गया था। दो साल के तय कार्यकाल के समाप्त होने के बाद भी उन्हें सेवा विस्तार दिया गया। निजी क्षेत्र की प्रमोशन के मसले पर नीति शीशे की तरफ साफ है। वहां पर उसे ही अहम पद मिलते हैं जो परिणाम देने में सक्षम होते हैं। निजी क्षेत्रों में वरिष्ठता का मसला कोई नहीं उठाता। शायद इसलिए नहीं उठाता क्योंकि वहां पर इस तरह की बातें करने वालों की कोई सुनवाई नहीं होती। अनीष शाह को हाल ही में देश के प्रमुख औद्योगिक घराने महिन्द्रा एंड महिन्द्रा का मैनेजिंग डायरेक्टर और चीफ एक्जीक्यूटिव आफिसर (सीईओ) बनाया गया। टाटा समूह ने एन.चंद्रशेखरन को सन 2017 में ही सारे समूह को चलाने की जिम्मेदारी सौंप दी थी।
वे टाटा समूह के चेयरमेन और मैनेजिंग डायरेक्टर नियुक्त होने से पहले टाटा समूह की बेहद कामयाब कंपनी टाटा कंसलटेंसी सर्विसेज (टीसीएस) के सीईओ थे। अनीष शाह और चंद्रशेखर से भी कई वरिष्ठ अधिकारी इन कंपनियों में थे। पर इन कंपनियों के मैनेजमेंट को इनमें अपाऱ संभावनाएं नजर आईं। इसलिए इन दोनों को खास पद मिल गए। यह समझना जरूरी है कि टाटा और महिन्द्र एंड महिंद्रा समूह भारत के कॉरपोरेट जगत के प्रमुख स्तम्भ हैं। इन दोनों को सालाना हजारों करोड़ का तो मुनाफा ही होता है। इनमें लाखों लोग काम भी करते हैं। अकेले टीसीएस में ही लगभग पांच लाख पेशेवर हैं। आपको कॉरपोरेट संसार में इस तरह के दर्जनों उदाहरण मिलेंगे। वहां पर मैरिट को ही प्रमुखता मिलती है। बाकी सब कुछ गौण है। बिल गेट्स या फेसबुक के फाउंडर चेयरमैन मार्क जुकरबर्ग को लें। ये दोनों अपने संस्थान में युवाओं को ही ज्यादा प्रोत्साहन और अहमियत देते हैं।
गेट्स की कंपनी माइक्रोसॉफ्ट ने अपने भारतवंशी सीईओ सत्य नडेला को कंपनी का अध्यक्ष बनाया है, जिस अतिरिक्त भूमिका में वह ''बोर्ड का एजेंडा निर्धारित करने में अगुवाई करेंगे। कुछ समय पहले माइक्रोसॉफ्ट कॉर्प ने घोषणा की कि बोर्ड के स्वतंत्र निदेशकों ने सर्वसम्मति से ही नडेला को बोर्ड के अध्यक्ष की महत्वपूर्ण भूमिका के लिए चुना गया । नई भूमिका में, 53 साल के नडेला बोर्ड के लिए एजेंडा तय करने के काम का नेतृत्व करेंगे, सही रणनीतिक अवसरों का लाभ लेने और मुख्य जोखिमों की पहचान करने तथा उनके असर को कम करने के लिए कारोबार की अपनी गहरी समझ का लाभ उठाएंगे। कहने का मतलब यह है कि वरिष्ठता के आधार पर प्रमोशन का मसला सिर्फ सरकारी नौकरियों में उठाया जाता रहा है। वहां पर भी सरकार इस फार्मूले के तहत किसी को प्रमोशन देने के लिए बाध्य नहीं है। निजी क्षेत्र के तो अपने नियम है। लब्बो लुआब यह है कि अब प्रमोशन का आधार मात्र वरिष्ठता तो नहीं हो सकता।
(लेखक वरिष्ठ स्तभकार और पूर्व सांसद हैं)