Zila Panchayat Election UP 2021: जिला पंचायत अध्यक्ष चुनाव- वर्तमान के परिणाम में भविष्य के संकेत

Zila Panchayat Election UP 2021: उत्तर प्रदेश के जिला पंचायत अध्यक्ष चुनाव में 67 सीटों पर भाजपा ने जीत हासिल कर ली है।

Report :  Anurag Shukla
Published By :  Vidushi Mishra
Update: 2021-07-04 14:46 GMT

जिला पंचायत चुनाव (फोटो-सोशल मीडिया)

Zila Panchayat Election UP 2021: उत्तर प्रदेश में हुए जिला पंचायत चुनावों को सत्ता के सेमीफाइनल बताया जा रहा था। चुनाव के परिणाम को राजनीतिक सेहत का इंडीकेटर माना जा रहा था। अगर इस पैमाने को सही माना जाय तो जिला पंचायत चुनाव ने राजनीतिक संकेत दे दिये हैं। हर पार्टी के लिए इसमें कुछ ना कुछ इशारा है। राजनीति में संकेतों की समझदारी सत्ता से आपकी दूरी को तय करती है। जिसने संकेत समझे उसकी राजनीति में राह आसान हो जाती है।

उत्तर प्रदेश के जिला पंचायत अध्यक्ष चुनाव में 67 सीटों पर भाजपा ने जीत हासिल कर ली है। सत्ता के दुरुपयोग के परंपरगत आरोपों के साथ सपा को सिर्फ 5 सीटें हासिल हो पाईँ और कांग्रेस का तो सूपड़ा ही साफ हो गया है।

प्रत्याशियों ने बहुत बड़ा डेंट 

जिला पंचायत चुनाव में सदस्यों के निर्वाचान को अगर सेमीफाइनल का पहला राउंड माना जाय तो इस राउंड में सपा ने अपनी जीत का जश्न मनाया था। भाजपा को सपा से कम सीटें मिली थी।भाजपा को बागी प्रत्याशियों ने बहुत बड़ा डेंट लगाया था। पार्टी के अधिकृत प्रत्याशियों इन बागियों की चुनौती पार नहीं कर सके।

ऐसी स्थितियों को प्रमुख विपक्षी दल अपने मुफीद मानकर भाजपा के सियासी अखाड़े में ताल ठोंक रही थी। लेकिन अध्यक्ष पद के चुनाव परिणामों में भाजपा ने सपा को ही चारो खाने चित कर दिया। यहां तक कि उसके परंपरागत गढ़ में भी परिणाम सपा के खिलाफ आ गये।

सपा के गढ़ मैनपुरी, कन्नौज, फिरोजाबाद, फर्रुखाबाद, बंदायू, अमरोहा, रामपुर, संभल और मुरादाबाद में भी साइकिल रेस से बाहर हो गयी। राजधानी लखनऊ में भाजपा के सिर्फ तीन सदस्य जीते थे पर निर्दलीय आरती रावत ने भाजपा का चोला ओढ़ा और सपा की मजबूत उम्मीदवार को अध्यक्ष के चुनाव में पटखनी दे दी।

पंचायत चुनाव सत्ता के चुनाव माने जाते हैं। जिसकी सत्ता चुनाव में जीत उसके लिए आसान होती है। य़ही वजह है कि 2016 में सत्ताधारी सपा को 63 सीटें मिलीं थीं। जिला पंचायत चुनाव और यूपी के विधानसभा चुनाव में एक साल से काम का समय होता है।

ऐसे में इन चुनावों पर सबकी नज़र थी। ये स्थापित सत्य नहीं है कि इन चुनावों को विधानसभा का पूर्वाभास माना जाय पर आज की परिस्थितियों में ये समर्थ राजनीतिक संकेत तो देते ही हैं। समाजवादी पार्टी इन चुनावों को लेकर उत्साहित थी, सपा के नए सुप्रीमो अखिलेश यादवको उम्मीद थी कि ये चुनाव यूपी की राजनीति के टर्निंग प्वाइंट साबित होंगे और इनसे बना माहौल उनकी बाइस में बाइसिकल मुहिम को बल देगा।

सियासत में संकेतों की अहमियत को समझते हुए भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने विधानसभा चुनाव के पहले हाथ से फिसलती बाजी को थामने की रणनीति बनाई। समन्यवय को हथियार और टीमवर्क को इसका रास्ता बनाया। जिन बागियों को फिर से पार्टी में न लेने का दबाव बनाया जा रहा था उन्हें अभियान के तहत पार्टी में वापस लाया गया, बल्कि कई जगह उन्हें अध्यक्ष का प्रत्याशी बना दिया गया।

इन बागियों का दूसरे दलों के साथ जाने का खतरा खड़ा था उसे दूर किया गया। इतना ही नहीं विरोधी दलों के सदस्यों को साथ जोड़ने की भी मुहिम चलाई और जहां वे जिताऊ लगे, उन्हें अध्यक्ष की कुर्सी का प्रत्याशी बना दिया। पंचायत आम चुनाव में सदस्यों के टिकट बंटवारे की नाराजगी को काफी हद तक दूर किया गया।

चुनाव विधायक और सांसद की तरह लड़े जाने लगे

इन चुनावों ने भाजपा को सीख दी है कि एकता की शक्ति से सत्ता हासिल करना ज्यादा मुश्किल नहीं होता। पिछले साढ़े चार वर्ष में सरकार और संगठन के बीच सबसे बेहतर समन्वय सामने आया है।संगठन व और सरकार के मंत्रियों ने जमीन पर पूरे समन्वय से काम किया है। इसे पहला मौका कहा जाय तो अतिश्योक्ति नहीं होनी चाहिए।संगठन व सरकार के मंत्रियों ने फील्ड में पूरे समन्वय से काम किया है।

पिछले दो दशक से कुछ अधिक समय में पंचायत चुनाव में प्रतिष्ठा और पैसा इस कदर बढ गया है कि अब इसके चुनाव विधायक और सांसद की तरह लड़े जाने लगे हैं। जीत के लिए साम दाम दंड भेद सबका प्रयोग होना लाजमी है।

तभी तो चंदौली में पूर्व सपा सांसद रामकिशुन यादव अपने भतीजे को जिताने के ले बाकायदा मतदाताओं के पैरों में गिरे नज़र आए, पर वो भी काम आया। सपा और उनके थिंकटैंक को ये समझना होगा कि सत्ता बिना कुछ किए वापस नहीं आएगी। सोशल मीडिया के बलबूत सत्ता हासिल करना बहुत मुश्किल होता है।

कांग्रेस को फिर से इन चुनावों ने आइना दिखाया है। कांग्रेस जिस परिवर्तन की शुरुआत यूपी की खिसकी जमीन से करना चाहती है वो अभी बहुत दूर की कौड़ी है। कांग्रेस के संगठन और शक्ति दोनों की विफलता ने ड्राइंग रूम पॉलिटिक्स के औचित्य पर फिर से सवाल खड़े कर दिए हैं।

बसपा विधानसभा चुनाव से पहले किसी चुनाव में भाग ना लेने की अपनी पुरानी रणनीति अपनाई है पर विधानसभा चुनाव में उसे नए सिरे से सियासी चालें सोचनी होंगी। रालोद ने पश्चिम में भाजपा की आंधी के बाद भी एक सीट जीत ली है यानी पश्चिम उत्तर प्रदेश में रालोद को इस बार नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता है।

सत्ता के चुनाव में शानदार सफलता ने भाजपा को इन चुनावों ने संघे शक्ति के मंत्र को फिर से समझाया है। यही मंत्र सत्ता फिर से हासिल करने के चुनाव यानी अगले विधानसभा चुनाव और इसके बाद भी कायम रहे तो 2022 की राह आसान हो जाएगी। 

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