BSP से नहीं होगा 13वां प्रत्याशी, BJP के लड़ने पर बसपा होगी बेनकाब
लोकसभा चुनाव 2019 के बाद से ही बसपा नेत्री मायावती के सुर बदले हुए हैं। पिछले डेढ साल के दौरान उन्हों।ने कई मौके पर सपा व कांग्रेस का साथ देने के बजाय भाजपा के साथ सुर मिलाया है।
अखिलेश तिवारी
लखनऊ: समाजवादी पार्टी ने विधान परिषद चुनाव में दो प्रत्याशी मैदान में उतारने के साथ ही बसपा की राजनीति को भी दांव पर लगा दिया है। अब तक भाजपा को सांप्रदायिक करार देने वाली बहुजन समाज पार्टी अगर अपनी ओर से प्रत्याशी मैदान में उतारती है तो अल्पसंख्यक मतदाताओं की नाराजगी का शिकार बनना होगा। दूसरी ओर समाजवादी पार्टी ने भाजपा व बसपा के बागी विधायकों के साथ ही कांग्रेस व अन्या गैर भाजपा दलों पर अपना दांव लगा रखा है। ऐसे में तय है कि 13वां प्रत्याशी अब बसपा की ओर से नहीं आएगा। भाजपा की ओर से अगर 13वां प्रत्याशी आया तो उसका समर्थन करने पर बसपा भी बेनकाब हो जाएगी।
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लोकसभा चुनाव 2019 के बाद से ही बसपा नेत्री मायावती के सुर बदले हुए हैं
लोकसभा चुनाव 2019 के बाद से ही बसपा नेत्री मायावती के सुर बदले हुए हैं। पिछले डेढ साल के दौरान उन्हों।ने कई मौके पर सपा व कांग्रेस का साथ देने के बजाय भाजपा के साथ सुर मिलाया है। यही वजह है कि पिछले कई चुनाव से समाजवादी पार्टी भी राजनीति के मैदान में बसपा को भाजपा खेमे के साथ खडा दिखाने की कोशिश कर रही है। दो महीने पहले राज्य सभा चुनाव में भी सपा ने ऐसा ही दांव खेला था लेकिन तब चुनाव की नौबत नहीं आई और बसपा को राज्य सभा में अपना प्रत्या शी भेजने का मौका मिल गया। तब मायावती ने बयान देकर कहा था कि वह राज्य सभा में डिंपल यादव को भेजे जाने की उम्मीभद कर रही थीं। इस बारे में उन्होंबने अखिलेश यादव से बात करने की भी कोशिश की लेकिन बात नहीं हो सकी।
विधान परिषद चुनाव में सपा का साथ दे
सपा की ओर से प्रत्याशी नहीं उतारे जाने पर ही उन्होंने बसपा की ओर से पर्चा दाखिल कराया। वह इस बात से नाराज दिखीं कि सपा ने उनसे सलाह किए बगैर अपना प्रत्याशी उतारा और विपक्ष की रणनीति को कमजोर किया है। इससे सबक लेते हुए समाजवादी पार्टी ने इस बार विधान परिषद चुनाव में पहले दौर में ही अपने दो प्रत्याशियों के नाम का एलान कर दिया। ऐसे में बसपा की राजनीतिक मजबूरी है कि वह अपनी ओर से प्रत्याशी न उतारे और इस बार विधान परिषद चुनाव में सपा का साथ दे। अगर वह ऐसा नहीं करती है तो उस पर विपक्ष की एकता को कमजोर करने और भाजपा को मजबूत करने का आरोप लगेगा।
परिषद में हुआ चुनाव तो भी सपा का दावा मजबूत
समाजवादी पार्टी को विधान परिषद की दो सीटों पर चुनाव जीतने के लिए 64 विधायकों के समर्थन की आवश्याकता है। विधानसभा में उसकी मौजूदा सदस्य संख्या6 47 है। इसमें दो विधायकों की स्थिति संदिग्ध है। नरेश अग्रवाल के बेटे नितिन अग्रवाल सांविधानिक वैधता के तौर पर सपा में हैं। ऐसा ही हाल भाजपा और बसपा के विधायकों का भी है। बसपा के रामवीर उपाध्याधय, अनिल सिंह पहले ही साथ छोड़ चुके हैं। छह विधायक पिछले राज्यासभा चुनाव में पाला बदल कर चुके हैं। एक विधायक बीमार है तो मुख्तार अंसारी पहले से ही राज्य से बाहर हैं। बसपा में चार विधायक अल्पेसंख्यधक समुदाय से आते हैं। इस तरह कुल 18 विधायकों में से केवल सात से आठ विधायक ही बसपा हाईकमान के नियंत्रण में हैं।
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भाजपा के कम से कम 15 विधायकों को भी असंतुष्ट बताया जा रहा है
भाजपा के कम से कम 15 विधायकों को भी असंतुष्ट बताया जा रहा है। श्याम प्रकाश, राकेश राठौर व नंदलाल गुर्जर समेत कई लोग खुलकर विरोध कर चुके हैं। ऐसे में चुनाव की स्थिति में भाजपा को भी नुकसान उठाना पड सकता है। दूसरी ओर समाजवादी पार्टी के पास अपने 13 विधायक हैं। बसपा के छह बागी मिलकर 19 होते हैं। कांग्रेस के पांच, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के साथ यह आंकडा 28-29 मतों तक पहुंच रहा है।
ऐसे में सपा अपनी दूसरी सीट जीतने के लिए आश्वस्तक दिख रही है। उसे दूसरे दलों में केवल तीन से चार वोट की सेंध लगानी होगी। यही वजह है कि सपा ने चुनाव में दूसरा प्रत्याशी उतारने का दांव खेला है। इस दांव से उसे सीट जीतने का मौका मिलेगा और चुनाव में बसपा-भाजपा गठजोड़ उजागर करने का राजनीतिक लाभ बोनस में मिलने वाला है।
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