समाजवादी पार्टी के रजत जयंती समारोह में जोश पर भारी पड़ा होश

शिवपाल सिंह यादव ने साबित कर दिया कि जोश पर होश भारी पड़ता है। उनकी इसी कोशिश का नतीजा था कि तीन पांच की लडाई में 5 साफ साफ विजित होते हुआ दिखा। यही नहीं तीन नवंबर के विकास रथ के आयोजक सरीखी तल्खी भी पांच तारीख के पार्टी के स्थापना कार्यक्रम में नहीं दिखी। यह जरुर अंदाजा लगता रहा कि चाचा-भतीजे पास-पास तो हैं पर साथ-साथ नहीं हैं।

Update:2016-11-05 23:48 IST

योगेश मिश्र

लखनऊ: हम भी दरिया हैं हमें अपना हुनर मालूम है।

चल पड़ेंगे जिधर उधर रास्ता हो जाएगा।।

शक्ति प्रदर्शन के दौर में युवा जोश का जवाब शिवपाल सिंह यादव ने कुछ इस तरह दिया। उन्होंने साबित कर दिया कि जोश पर होश भारी पड़ता है। उनकी इसी कोशिश का नतीजा था कि तीन पांच की लडाई में 5 साफ साफ विजित होते हुआ दिखा। यही नहीं तीन नवंबर के विकास रथ के आयोजक सरीखी तल्खी भी पांच तारीख के पार्टी के स्थापना कार्यक्रम में नहीं दिखी। यह जरुर अंदाजा लगता रहा कि चाचा-भतीजे पास-पास तो हैं पर साथ-साथ नहीं हैं।

लालू प्रसाद यादव की मध्यस्था, देवगौडा और शरद यादव की मौजूदगी के बीच मुलायम सिंह की नसीहतें यह बता और जता रही थीं जो कुछ है, सब ठीक करना है। शक्ति प्रदर्शन के सिलसले में शिवपाल ने अखिलेश से बाजी मारी। यही नहीं उन्होंने यह भी बता दिया कि उनका जनाधार सिर्फ सूबे की सीमा तक सीमित नहीं है वह विस्तार पा चुका है।

गृहस्थ जीवन की दहलीज पर खड़ी उन झगड़ों से दो चार हो रही हो जो आमतौर पर गृहस्थ जीवन में होते हैं। पावर पॉलिटिक्स के साथ ही सरकार से बड़ी संगठन की ताकत जताने की कोशिश में तीन और पांच (नवंबर) के आयोजन कई ऐसी अनकही कहानी भी कह रहे थे जो तमाम दावों प्रतिदावों के बाद भी यह बता रही थी कि कुछ भी ठीक नहीं है।

पंडाल में अपने अपने नेताओं के समर्थन में लग रहे नारे और मंच पर पास-पास होने और साथ-साथ न होने की तस्वीर यह चुगली कर रही थी कि उपहार में तलवारे दी गई हैं वह म्यान में जल्दी जाने वाली नहीं है। अखिलेश यादव ने यह कहकर पुष्ट किया कि तलवार दे दी है, चलाने का हक नहीं।

अल्हा, बिरहा और फिल्मी पैरोडी से गर्माते माहौल की गर्मी को नेताओं के ईनाम ने और गर्म कर दिया। शह और मात के इस खेल में दिल की टीस भी निकली, मुख्यमंत्री की ओर से सबकुछ गवांकर होश में आने की बात भी कही गई। शिवपाल ने अखिलेश के लिए खून का कतरा देने की बात कहकर काफी दिनों से चली आ रही तल्खी में संवेदना घोलने की कोशिश तो की पर यह पता नहीं चल पाया कि इस खेल बिगाड़ने के खेल में कौन बड़ा कौन खिलाड़ी है और कौन छोटा। खेल को बिगाड़ने का ठीकरा किसके माथे फूटना चाहिए। क्योंकि एक पैर छू रहा था तो दूसरा विजयी भव कह रहा था।

लोहिया और छोटे लोहिया याद किए गए। आपातकाल की बात दोहराई गई। शिवपाल अखिलेश के बीच मान मनौव्वल और सबकुछ सामान्य दिखाने की कोशिश करता हुआ हर नेता दिखा। लालू यादव ने तो यहां तक कहा कि हमसे कोई नहीं लड़ता हम आपस में ही लड़ते हैं।

वह हम को जाति के प्रतीक में जता रहे थे पर यह भी कहा कि लड़कर जब एक होते हैं तो मजबूती से खड़े होते हैं। मजबूती से ख़डे होने का यह दृश्य तो सारे लोग देखना चाहते थे पर लालू की तरह आश्वस्त नहीं थे। तभी तो अभय चौटाल को चेताना पड़ा कि कहीं ऐसा न हो कि लम्हों की खता सदियों को भुगतनी पड़ें। छोटी से भूल से समाजवाद बड़ी लडाई न हार जाए।

अजित सिंह मंच पर गठबंधन की संभावनाएं तलाशते हुए मुलायम सिंह यादव को जिम्मेदारी निर्वहन करने की नसीहत दे रहे थे। मंच पर बैठे सभी नेता बीजेपी के रोकने के लिए एक नई रणनीति पर काम करने की जरुरत जता रहे थे। उनकी बातों में विश्वास भी था कि वे पास-पास हैं इसलिए बीजेपी को बिहार की तरह रोक लेंगे। नेता और सांसद-विधायक का फर्क भी दिख रहा था। तभी तो नेताओं को लोगों ने खामोशी से सुना लेकिन जेठमलानी को अनसुना कर रहे थे। अखिलेश और शिवपाल के भाषण मे तंज भी थे, शिकायत भी और ताऱीफ भी।

अखिलेश नौजवानो के संघर्ष की गाथा सुना रहे थे तो शिवपाल समाजवादी पार्टी की लडाई में खड़े, लड़े मुसलमान, महिला और बाकी सब लोगों की गौरवगाथा पढ़ रहे थे।

चाचा भतीजे के इस जंग में काफी दिनों से अनिश्चय भरे मुलायम सिंह यादव ने न सिर्फ पार्टी की 25 साल की लडाई में अखिलेश की तरह सिर्फ युवाओं के योगदान का बखान किया बल्कि उन्होंने सबके योगदान और संघर्ष की बात कही। कहा कि मंच पर बैठे सभी नेताओं ने मिलकर समाजवादी आंदोलन को यहां तक पहुंचाया है वे चाहे जिस दल के हों। हर नेता की बातचीत में नरेंद्र मोदी का भय साफ झलक रहा था जो बाइंडिंग फोर्स की तरह एक मंच पर होने को मजबूर कर रहा था।

मोदी के खिलाफ कालाधन से लेकर कश्मीर के सारे मुद्दे उछले। सपा के रंग में भंग तब पड़ गई जब मुख्यमंत्री खेमे के दर्जा प्राप्त मंत्री जावेद आब्दी को माइक से हटाने के लिए शिवपाल यादव को धक्का देना पड़ा। हालांकि यह काम भी शिवपाल ने हर काम की तरह मुलायम के निर्देश पर किया। पूरे जलसे में पार्टी के संस्थापक सदस्य रहे आज़म खान और महासचिव अमर सिंह अनुपस्थित होकर भी उपस्थित रहे।

शायद ये जलसे में शरीक होते तो इन्हें सुर्खियां नहीं मिलती। आज़म खान उमरा पर जाने के कारण मौजूद नहीं थे। अमर सिंह की गैरमौजूदगी का कोई कारण नहीं दिखा। मुलायम सिंह यादव गठबंधन की संभावनाओँ पर चुप्पी साधे रहे उनकी चुप्पी ने इस संभावना मे जुटे नेताओं को जरुर निराश किया होगा।

तीन पांच की लडाई में शिवपाल ने जहां भारी भीड़ इकट्ठा कर तीन का करारा जवाब दिया वहीं दूसरे दल के नेताओं के दिल में वो बसते हैं यह साबित करने मे कामयाबी हासिल कर ली। लेकिन अब इस पूरे घटनाक्रम में कामयाबी हासिल करने की जिम्मेदारी मुलायम सिंह पर हैं क्योंकि उन्हें एक ओर शिवपाल की बार बार बर्खास्तगी से उपजे अपमान को सम्मान में बदलने का काम करना है तो दूसरी ओर अपमानजनक ढंग से प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी से बेदखल किए जाने का दर्द झेले रहे अपने मुख्यमंत्री बेटे अखिलेश यादव की नाराजगी को दूर करना है।

जब तक इन दोनों काम को वह ठीक से अंजाम नहीं देंगे तब तक साइकिल के दोनों पहिए ठीक से काम नहीं करेंगे। साइकिल एक पहिए पर नहीं चलाई जा सकती। इस हकीकत से मुलायम जरुर परिचित होंगे क्योंकि उनकी उपलब्धियां विरासत की नहीं है वह उनके संघर्ष की परिणित है। राजनीति के शिखर पर बने रहना उनके तजुर्बे का नतीजा है।

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