Rajasthan Assembly Election 2023: झालरापाटन सीट पर 2003 से वसुंधरा हर बार विजयी, सचिन पायलट की माँ, रमा पायलट भी हारीं, जानिए पूरा इतिहास...

Rajasthan Assembly Election 2023: राजस्थान की राजनीति के लिए एक कहावत मशहूर है, “5 साल का राज फिर 5 साल का बैराग”। ये राजस्थान की राजनैतिक रीत बन चुकी है। फिर भी यहाँ की कुछ विधानसभा सीटों पर जीत का नाम स्थाई बना हुआ है। जैसे भाजपा की कद्दावर नेता वसुंधरा राजे। पर अब वसुंधरा की टिकट पर भी संकट दिखाई दे रहा है।

Written By :  Bodhayan Sharma
Update:2023-01-12 15:32 IST

Rajasthan Assembly Election 2023

Rajasthan Assembly Election 2023: राजस्थान की राजनीति के लिए एक कहावत मशहूर है, "5 साल का राज फिर 5 साल का बैराग"। राजस्थान में सत्तारूढ़ दल हर बार अपनी सरकार दोहराने के लिए हरसंभव प्रयास करती है। परन्तु राजस्थान की जनता हर बार सत्ताधारी पार्टी का, सत्ता दोहराने का सपना तोड़ कर बदलाव को चुनती है। ये राजस्थान की राजनैतिक रीत बन चुकी है। फिर भी यहाँ की कुछ विधानसभा सीटों पर जीत का नाम स्थाई बना हुआ है। सरकार किसी की भी आए, विधायकी कुछ लोगों की निश्चित है। जैसे भाजपा की कद्दावर नेता वसुंधरा राजे। पर अब वसुंधरा की टिकट पर भी संकट दिखाई दे रहा है।

झालावाड़ से 5 बार सांसद, 2003 से लगातार झालवाड़ की झालरापाटन से विधायक, राजस्थान की 2 बार मुख्यमंत्री रहीं वसुंधरा राजे सिंधिया। 2003 से लगातार जीतती आयी वसुंधरा राजे सिंधिया इस सीट की लगभग पर्याय बन गयी हैं। झालरापाटन को आम भाषा में वसुंधरा की सीट बोला जाने लगा है। परन्तु 2018 के चुनावों में वसुंधरा को इसी सीट के लिए नए सिरे से टक्कर मिलने की उम्मीद थी। इसी सीट से वसुंधरा को टक्कर देने के लिए काँग्रेस ने मानवेन्द्र सिंह जसोल को टिकेट दिया था।

कौन है मानवेन्द्र सिंह जसोल?

मानवेन्द्र सिंह जसोल की, राजनीति में अपनी एक अलग पहचान है। भाजपा के संस्थापक सदस्य एवं अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में क़द्दावर नेता और मंत्री रहे जसवन्त सिंह जसोल के बेटे हैं मानवेन्द्र, जो भाजपा से बाग़ी हो कर कांग्रेस में चले गए। ये मुकाबला इसलिए भी ज्यादा दिलचस्प हुआ क्योंकि आम जनता इसको "रानी के मुक़ाबले बागी" और "भाजपा के मुकाबले भाजपा" का मुकाबला कहने लगी थी। पिछले 3 चुनावों में लगातार बड़े मार्जिन से जीतती आयी वसुंधरा राजे ने इस सीट और क्षेत्र के लिए बढ़ चढ़ के काम किया। यही वजह रही कि झालरापाटन की इस सीट को राजस्थान का सैफ़ई भी कहा गया।

झालावाड़, अब तक वसुंधरा का एकल वर्चस्व

इस सीट को जीतना, वसुंधरा राजे के गढ़ को भेदने जैसा है। हमेशा से ही वसुंधरा को इस सीट से हराना मुश्किल माना जाता रहा है पर अब ये मुश्किल ही नहीं नामुमकिन जैसा हो गया है। 2018 के चुनावों की टक्कर वसुंधरा के लिए ज़्यादा मुश्किल थी। जिसकी वजह थी, भाजपा के बागी ही भाजपा का काम बिगाड़ने में लगे थे। दिल्ली में बैठे भाजपा आलाकमान तक को नाको चने चबवाने वाली वसुंधरा राजे सिंधिया को इस सीट से टक्कर देना बडी हिम्मत का काम रहा है। अपने सुंदर किलों, तालाबों एवं मंदिरों की वजह से जाना जाने वाला झालवाड़ हमेशा की तरह इस बार राजस्थान की सियासत का केंद्र बना हुआ है।

वसुंधरा की लोकप्रियता की वजह?

कोई समय था जब राजनैतिक दृष्टिकोण से झालावाड़, राजस्थान के अनाथ जिलों की गिनती में आता था। पर अब इस पूरे क्षेत्र की कायापलट का श्रेय वसुंधरा राजे को जाता है। अब चाहे पीने के पानी की व्यवस्था हो या घर - गाँव तक बिजली पहुंचने की बात हो, बच्चों के पढ़ने के लिए स्कूल, कॉलेज से लेकर, अस्पताल तक झालावाड की झोली में आ गए हैं। इतना ही नहीं झालवाड़ का हवाई अड्डा, रेलवे कनेक्टिविटी, झालवाड़ का गौरव पथ, टेक्निकल विश्वविद्यालय, उद्योग कारख़ाने जैसी विकास की रौशनी महारानी ने अपनी प्रजा तक पहुंचाई है। पूरे कार्यकाल के दौरान रानी ने अपनी प्रजा की पूरी सुध ली। इसी क्रम में वसुंधरा के नेतृत्व में 17 हज़ार करोड का बजट झालवाड़ के विकास के लिए मिला। इन्ही वजहों से झालवाड़ की गिनती राजस्थान के शीर्ष जिलों में होने लगी और वसुंधरा के सुशासन की चर्चा पूरे देश में।

वसुंधरा जीतीं, पर भाजपा नहीं, ऐसा क्यों?

2018 के चुनाव के समय जनता की नाराजगी वसुन्धरा के प्रति खुल के सामने आयी। "भाजपा तुझसे बैर नहीं, वसुंधरा तेरी खैर नहीं" यह वो नारा था जिसने राजस्थान में भाजपा की नींव को हिला कर रख दिया था। वैसे एक वजह ये भी मानी जाती रही है कि 2018 के चुनाव से पहले भाजपा आलाकामन के राजस्थान के जितने दौरे होने थे वो नहीं हुए। आलाकमान से वसुंधरा की दूरियाँ बढती हुई सभी को नज़र आ रही थी। मोदी-शाह की जोड़ी ने राजस्थान में नाम मात्र की रैलियां की, क्योंकि अमित शाह के साथ वसुंधरा की कलह लम्बे समय से चल रही थी और इसी कारण भाजपा को राजस्थान से सत्ता गवानी पड़ी। हालांकि वसुंधरा अपनी सीट बचाने में कामयाब रही और उन्होंने मानवेन्द्र सिंह को 35000 से ज्यादा के अंतर से हरा दिया। झालरापाटन की प्रजा ने अपनी रानी के प्रति पूरी वफादारी निभाई।

झालरापाटन में पिछले 10 चुनावों में कब - कौन जीता?

1977 के चुनाव से शुरुआत करें तो, इस चुनाव में जनता दल के नेता निर्मल कुमार ने अपनी जीत दर्ज की थी। इसके बाद 1980 में फिर से चुनाव हुए, जिसमें भाजपा ने अनंग कुमार को मैदान में उतारा। अनंग कुमार ने इस सीट पर पहली बार भाजपा की जीत का ध्वज लहराया। 1985 के चुनाव में भाजपा के अनंग कुमार को टक्कर देने के लिए कांग्रेस ने ज्वाला प्रसाद को उम्मीदवारी सौंपी। ज्वाला प्रसाद कांग्रेस को जीत दिलाने में कामयाब भी हुए। 1990 और 1993 के चुनावों में फिर से अनंग कुमार ही भाजपा की तरफ से प्रत्याशी रहे और दोनों ही चुनावों में जीत गए। इसके बाद झालरापाटन की जनता ने इस सीट की सत्ता एक बार फिर कांग्रेस के हाथ में सौंपी। 1998 के चुनाव में मोहनलाल ने अपनी जीत का परचम लहराया, पर कांग्रेस की इस सीट पर यह आखिरी जीत थी। इसके बाद 2003 के चुनाव में रानीसा यानी वसुंधरा राजे ने दावेदारी पेश की जबकि कांग्रेस की तरफ से सचिन पायलेट की माँ रमा पायलट मैदान में थीं। फिर भी 27 हज़ार से ज्यादा वोटों से रमा पायलट को हार का सामना करना पड़ा और तब से लेकर 2008, 2013 और 2018 के चुनावों में जीत हासिल की। 2018 में वसुंधरा की जीत में वोटों में कटौती करने में जसोल कामयाब जरुर हुए, पर गद्दी हासिल नहीं कर पाए। 2013 में जहां वसुंधरा राजे को कुल मतदान के 63 प्रतिशत वोट हासिल हुए थे वहीं 2018 में जसोल ने कटौती कर वसुंधरा के हिस्से मात्र 54 प्रतिशत वोट ही जाने दिए।

आलाकामन वसुंधरा पर फिर से खेल सकता है दांव!

राजस्थान में हर 5 वर्ष बाद सरकार बदलने का चलन पिछले कुछ दशकों से रहा है। दिसम्बर 2023 में राजस्थान में चुनाव होने हैं। अभी सत्ता कांग्रेस की है और अशोक गहलोत मुख्यमंत्री हैं। कांग्रेस की आपसी लड़ाई भाजपा की जीत का प्रतिशत बढ़ा रही है परन्तु भाजपा की आंतरिक गुटबाजी इस चुनाव को और मुश्किल बना रही है। चाहे सतीश पूनियां हो, गुलाबचंद कटारिया, राजेन्द्र राठौड़, गजेंद्र सिंह शेखावत या वसुंधरा राजे, सब अपनी अपनी ढपली अपना अपना राग आलापते दिखाई दे रहे हैं। हालाँकि वसुंधरा के रहते किसी की दावेदारी के बारे में सोचना भी संभव नहीं लग रहा है।

कांग्रेस अपना दावेदार रिपीट करेगी?

अब एक सवाल ये भी है कि क्या कांग्रेस आलाकमान इस बार भी वसुंधरा राजे के सामने मानवेंद्र सिंह जसोल को ही मैदान में उतारेगी? काँग्रेस के राजस्थान प्रभारी रंधावा ने जो संकेत दिए हैं उस हिसाब से नए चेहरों पर दाव खेला जाएगा। राहुल गांधी ने भी राजस्थान में भारत जोड़ो यात्रा के दौरान जितने बयान दिए उनमें यही कहते नज़र आए कि, "छोटे नेताओं की सुनो, उन्हें मौका दो।" इस हिसाब से कांग्रेस किसी स्थानीय उम्मीदवार पर दांव खेल सकती है। पर वसुंधरा राजे की झालावाड़ में गहरी नींव को हिलाने के लिए किसी मजबूत दावेदारी की जरुरत कांग्रेस को होगी।

आम आदमी पार्टी बिगाड़ सकती है चुनावी गणित?

आम आदमी पार्टी किस जोश के साथ चुनाव लड़ती है ये तो आने वाला चुनाव बताएगा, परन्तु झालावाड में वसुंधरा राजे की सीट को नुकसान पहुंचाने जितना कद अभी राजस्थान में आम आदमी पार्टी का नहीं बना है। ये क्षेत्र वसुंधरा को रानी की तरह ही मानता है। झालरापाटन की सीट से वसुंधरा राजे की टिकट काटना न तो आलाकमान के बस में नज़र आ रहा है और ना ही वसुंधरा के किले में घुस कर जीत दर्ज करने लायक दूसरा कोई दावेदार अभी दिखाई दे रहा है।

भारत जोड़ो यात्रा ने बढाई वसुंधरा की मुसीबतें!

राजस्थान की राजनीति में बड़ी उछाल लाने वाली राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के रूट में झालावाड भी आया। इस इस बार भारत जोड़ो यात्रा को बड़ा फैक्टर माना जाए तो वसुंधरा के लिए मुसीबतें बढती नज़र आ रही हैं। झालावाड़ में भी यात्रा में विशाल जनसमूह शामिल हुआ। इस हिसाब से रानी के किले में सेंध मारी जा चुकी है। दूसरी बड़ी परेशानी वसुंधरा के लिए आलाकामन है। जिससे लगातार बढ़ रही दूरियों का नतीजा भी वसुंधरा को आगामी चुनावों में भुगतना पड़ सकता है। भाजपा में आंतरिक कलह के चलते सीटों के समीकरण का अनुमान लगाना भी मुश्किल काम नज़र आता है। अब देखना ये होगा कि आलाकमान किस पर दयादृष्टि रखती है।

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