रातों में बिस्तर की सिलवटें बिगड़ती रहती हैं
औरों को क्या दोष दूं मैं,
नींद आती नहीं मुझे, करवटें भी बिना इज़ाजत बदलती रहती हैं
चंद ख़्वाबों ने उसके मुझे किया बर्बाद
तो हुए मुझसे मेरे ही कुछ ख्याल राख
जिसने जैसा ढाला मैं ढलती रही
शक न किया किसी पर बस उम्मीदों में पलती रही
टूटा ऐतमात तो कुछ ऐसा जाना
खुली किताब थी मैं जिसकी जैसी फितरत
उसने मुझे वैसा पढ़ा और वैसा माना