निकाय चुनाव : समस्याओं में भरें शहरों में जवाबदेही अबकी ज्यादा

Update:2017-11-03 13:33 IST

लखनऊ। बात लखनऊ से ही शुरू करते हैं। यहां के महापौर रहे दिनेश शर्मा अब प्रदेश के उपमुख्यमंत्री बन चुके हैं। देश के गृहमंत्री राजनाथ सिंह यहां के सांसद हैं। समाजवादी पार्टी ने आचार्य नरेंद्र देव की पौत्रवधू मीरा वर्धन को महापौर के लिए अपना उम्मीदवार बनाया है। भाजपा के लिए अति प्रतिष्ठापूर्ण इस शहर की हालत बहुत अच्छी तो नहीं कही जा सकती।

नगर निगम कार्यकारिणी भारतीय संवैधानिक व्यवस्था में तीसरी सरकार है, लेकिन महापौर के अधिकार सीमित हैं। अधिकारियों पर अंकुश लगाने की कोई शक्ति नहीं है। हर मामले में शासन की दखलंदाजी है। इसका असर शहर के विकास पर पड़ रहा है। ऐसे में न सिर्फ महापौर का अधिकार बढ़े बल्कि इस बार महापौर की कुर्सी पर ऐसी दृढ़ इच्छाशक्ति वाली महिला बैठे जो यहां के लोगों की तकलीफ को गहराइयों तक समझे और जिसका इस शहर से आत्मिक लगाव हो।

नगर निगम की सबसे बड़ी जिम्मेदारी शहर को साफ-सुथरा रखने की है, लेकिन अधिकारी ऐसी योजनाएं बनाते हैं जिससे व्यवस्था सुधरने के बजाय बिगड़ जा रही है। यही कारण है कि पिछली बार स्वच्छता की रैंकिंग में लखनऊ फिसड्डी साबित हुआ। लखनऊ को 269वां स्थान मिला। झटका लगने के बाद प्रयास तो तेज हुए, लेकिन जो व्यवस्थाएं लागू की जा रही हैं वह पूरी तरह अव्यावहारिक हैं। लखनऊ नगर निगम ने कूड़ा कलेक्शन के लिए इको ग्रीन को अधिकृत किया है। वह बिना झाड़ू लगाए प्रति घर 100 रुपए शुल्क वसूल रहा है।

झाड़ू लगाने के लिए अलग से 100 रुपए का भुगतान करना पड़ रहा है यानी जो काम पहले 50 रुपए में होता था उसके लिए अब लोगों को 200 रुपए खर्च करना पड़ रहा है। हर माह 150 रुपए का अतिरिक्त भार लोगों को अखर रहा है। इसके बावजूद जगह-जगह कूड़े का ढेर लगा पड़ा है। कूड़ा कलेक्शन का शुल्क पहले 40 रुपए था, लेकिन नगर निगम की कार्यकारिणी समाप्त होते ही अधिकारियों ने मनमानी करते हुए जनता पर भार लाद दिया। लखनऊ नगर निगम में अधिकारियों व कर्मचारियों में तालमेल भी नहीं है।

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यहां के मेयर रह चुके दाऊजी गुप्ता एक बार कर्मचारियों के विलम्ब से आने पर धरने पर बैठ गए थे। अगले दिन से सभी कर्मचारी समय से नगर निगम कार्यालय पहुंचने लगे। इस तरह की सक्रियता व कर्मचारियों पर मानसिक दबाव बनाने मात्र से कार्यालय की व्यवस्था पटरी पर आ गई। मौजूदा समय में नगर निगम की व्यवस्था चरमरा चुकी है। ऐसे में कोई बहुत सक्रिय महिला ही इस चरमराई व्यवस्था को पटरी पर ला सकेगी।

मेयर का चयन करने से पहले लोगों को इस बात पर विशेष ध्यान देने की जरुरत है। अतिक्रमण की समस्या के स्थायी समाधान के लिए कोई नीति नहीं बन पा रही है। जल्द ही कोई ठोस नीति नहीं बनाई गई तो यह समस्या विकराल रूप लेगी। हालत यह हो गयी है कि लोगों का सडक़ पर पैदल चलना भी मुश्किल हो गया है।

बनारस में गंदगी का साम्राज्य

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शहर बनारस का तो हाल मत पूछिए। शहर के बीचोबीच कई ऐसी कॉलोनियां हैं जहां सीवर लाइन नहीं है। लोग बजबजाती नालियों के बीच रहने को मजबूर हैं। खासतौर से गलियों की हालत तो सबसे खराब हैं। इसके अलावा आवारा पशुओं पर लगाम लगाने में भी नगर निगम अभी तक पूरी तरह से फेल साबित हुआ है। शहर में जगह-जगह छुट्टा पशु घूमते रहते हैं, लेकिन उन्हें पकडऩे की सुध नगर निगम के अधिकारी नहीं लेते। पूरे शहर की सडक़ों पर जगह-जगह गड्ढे हैं। कहीं भी आना-जाना काफी मुसीबतों भरा है मगर इस पर ध्यान देने वाला कोई नहीं है। सडक़ों पर गड्ढों के कारण काफी धूल भी उड़ती है।

गोरखपुर शहर में फैली गंदगी

गोरखपुर की हालत खस्ता

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के गृह नगर गोरखपुर में पार्कों के रखरखाव और मरम्मत पर 10 करोड़ से अधिक खर्च हुए, लेकिन एक भी पार्क लोगों को सुकून देने की स्थिति में नहीं हैं। नतीजन पार्कों को निजी हाथों में दिया जा रहा है। राप्ती नदी पर दाह संस्कार की दिक्कतों को देखते हुए सपा सरकार ने घाट के लिए करीब 16 करोड़ रुपये जारी किये थे, लेकिन आधे से अधिक रकम खर्च होने के बाद भी श्मशान घाट सिर्फ 30 फीसदी ही बना है।

निगम में भ्रष्टाचार भी बड़ा मुददा है। भ्रष्टाचार का ही नतीजा है कि निगम में जहां खर्च का बजट 250 करोड़ के करीब है तो प्राप्तियां बमुश्किल 30 करोड़ ही है। विकास कार्यों के लिए आने वाले बजट से कर्मचारियों का वेतन दिया जा रहा है। टैक्स और करेत्तर प्राप्तियों से नगर निगम को मुश्किल से 30 करोड़ की आय होती है। यह आय पिछले पांच साल से स्थिर है। इस रकम से नगर निगम कर्मचारियों का वेतन और पेंशन भी नहीं दी जा सकती।

जब भी निगम की आय बढ़ाने का सवाल उठता है तो महापौर से लेकर पार्षद तक खुलकर सामने आ जाते हैं। उन्हें वोट बैंक की चिंता सताने लगती है। नगर निगम को वित्त आयोग, नगरीय सुधार योजना समेत अन्य मदों से करीब 200 से 230 करोड़ की प्राप्तियां होती हैं।

कानपुर में समस्याओं का अम्बार

कानपुर की सबसे बड़ी समस्या बिजली, पानी, सडक़ और खुदी हुई सडक़ें हैं। यह समस्याएं दशकों से चुनावी मुद्दा बनी हुई हैं, लेकिन इनका निराकरण नहीं हो पाया है। 2017 में भी यही मुद्दे सबसे ऊपर हैं। यदि गली-मोहल्लों की बात की जाय तो गंदी नालियां, बरसात में जलभराव, सीवर समस्या आज भी बनी हुई है। सबसे खास बात यह है कि कोई यह बताने वाला नहीं है कि आखिर इन समस्याओं का निराकरण क्यों नहीं हो पाता।

गंगा बैराज से पूरे जिले में पानी की सप्लाई की योजना बनाई गई थी। इसके लिए ठेके पर पाइपलाइन बिछाने का काम हुआ था। जब सप्लाई की टेस्टिंग शुरू हुई तो रोजाना पाइपलाइन में लीकेज सामने आ रहे हैं जिससे लाखों लोगों को पानी की समस्या का सामना करना पड़ रहा है। इस बार का चुनावी मुद्दा खुदी हुई सडक़ें भी हैं।

महानगर में चारों तरफ सडक़ें खुदी पड़ी हैं जिससे लोगों को भीषण जाम का सामना करना पड़ता है। धूल-मिट्टी की वजह से व्यापारियों को व्यापार चौपट हो रहा है। सडक़ें खुद तो जाती हैं मगर उन्हें बनने में महीनों लग जाते हैं। नगर निगम के सभी अस्पतालों की हालत जर्जर है। यहां पहुंचने पर मरीजों को डॉक्टर नहीं मिलते। नगर निगम के अस्पतालों में मात्र कोरम पूरा किया जा रहा है।

आगरा का भी बुरा हाल

वैश्विक पर्यटन को आकर्षित कर राजस्व बटोरने वाले ताज के शहर आगरा में स्थिति बहुत खराब है। आगरा की आबादी का बड़ा हिस्सा जमीन से पानी का दोहन कर अपनी जरुरतें पूरी करता है। दो दशक से लगातार चल रही इस कवायद के कारण तीस फीट के जलस्तर वाले क्षेत्र 150 फीट तक सूख चुके हैं।

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पानी की उपलब्धता का संकट दिन-प्रतिदिन गहराता जा रहा है। स्वच्छता शहर के लिए अहम विषय है। ऐसा नहीं कि आगरा में सफाई नहीं होती या कूड़ा नहीं उठता मगर इनका न तो टाइम टेबल है और न ही इन दोनों कार्य में निरंतरता है। यदि नियमित रूप से सूरज उगने से पहले शहर की सफाई का काम होने लगे तो लोगों को काफी राहत मिलेगी।

स्ट्रीट लाइटों की स्थिति भी खराब है। बहुत से ऐसे क्षेत्र हैं जहां सिर्फ खाली खोल लगे हुए हैं। शहर की लाइफलाइन एमजी रोड से लेकर पॉश कॉलोनियों तक अतिक्रमण का जोर है। मुख्य मार्ग के किनारे आलीशान इमारत खड़ी कर दी जाती है,लेकिन उसमें पार्किंग का कोई प्रावधान नहीं होता। इमारत में आने वालों के वाहन सडक़ की जगह में अवैध रूप से खड़े हो जाते हैं। इससे यातायात काफी प्रभावित होता है।

व्यापारी चाहते हैं कि अतिक्रमण हटाने का कार्य निष्पक्षता से किया जाए। मुगलकालीन शहर में सीवेज का हाल बुरा है। जब आबादी कम थी और तालाबों पर कब्जा नहीं हुआ था, तब सीवेज न होते हुए भी गंदगी और पानी का निस्तारण खाली पड़ी जमीन और ताल-तलैयों में हो जाता था। अब खाली जमीनों पर मकान और मल्टी स्टोरी बिल्डिंग बन गयी। इसलिए गंदगी का निस्तारण नहीं हो पा रहा। सीवेज की व्यवस्था ठीक न होने से सडक़ों का भी बुरा हाल है।

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