बिहार चुनावः तो इस बार मंडल कमंडल को जगह नहीं, ये होंगे मुद्दे

पिछले 30 सालों में पहली बार बिहार में ऐसा चुनावी माहौल बनता दिख रहा है, जिसमें मंडल और कमंडल की राजनीति बहुत पीछे छूट गई है। अयोध्या राम मंदिर की भी बात यहां कोई नहीं कर रहा है। जात-पात का मुद्दा भी हाशिये पर ही नजर आ रहा है।

Update:2020-09-16 14:27 IST
पिछले 30 सालों में पहली बार बिहार में ऐसा चुनावी माहौल बनता दिख रहा है, जिसमें मंडल और कमंडल की राजनीति बहुत पीछे छूट गई है।

नीलमणि लाल

लखनऊ: पिछले 30 सालों में पहली बार बिहार में ऐसा चुनावी माहौल बनता दिख रहा है, जिसमें मंडल और कमंडल की राजनीति बहुत पीछे छूट गई है। अयोध्या राम मंदिर की भी बात यहां कोई नहीं कर रहा है। जात-पात का मुद्दा भी हाशिये पर ही नजर आ रहा है। हर बार से अलग इस बार दोनों गठबंधनों द्वारा विकास, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी के मुद्दे ही उछाले जा रहे हैं।

विकास को भुनाने की रणनीति

जदयू और भाजपा की एक ही रणनीति है-लालू के परिवार को भ्रष्ट और राजद राज को अपराध राज के रूप में दिखाना और नीतीश राज को विकास का राज साबित करना। इसी रणनीति के तहत जदयू और भाजपा नेता 2005 के बिहार की तस्वीर जनता के सामने पेश करते हैं। अब जाति की जगह सामाजिक गोलबंदी की रणनीति बनाई जा रही है तथा विकास पर बहस हो रही है।

जमीनी टास्क की बात करें तो जदयू और भाजपा ने वरिष्‍ठ नेताओं को गांव-गांव जाकर जनसमर्थन जुटाने का काम दिया है। भाजपा ने तो 60 हजार ‘सप्त ऋषियों’ को तैयार किया है जो गाँव गाँव में जन समर्थन जुटाएंगे और मोदी की उपलब्धियों का प्रसार करेंगे। ये सप्त ऋषि वास्तव में प्रचार कार्यकर्ता ही हैं।

यह भी पढ़ें...बिहार चुनावः पोस्टर, बैनर, भोंपू की जगह हाईटेक पिच, बदल गया सीन

जदयू की यूएसपी हैं सिर्फ नीतीश

जदयू ने पार्टी के तीन सीनियर नेताओं–संजय झा, अशोक चौधरी और ललन सिंह को पार्टी की रणनीति और प्रचार अभियान तैयार करने के काम में लगाया है। इस बार किसी बाहरी प्रोफेशनल की मदद नहीं ली जा रही है। जदयूं के पास फोकस करने के लिए नीतीश कुमार ही हैं और पार्टी का अपूरा अभियान नीतीश को केंद्र में रख कर तैयार किया जा रहा है। पार्ट्री का सन्देश यही है कि बिहार का विकास नीतीश की लीडरशिप में ही हुआ है। प्रचार के स्लोगन भी इसी तरह के हैं–‘न्याय के साथ तरक्की-नीतीश की बात पक्की’, 'नीतीश में विश्वास और बिहार में विकास।'

भाजपा की आक्रामक रणनीति

भाजपा ने बिहार चुनाव के लिए सबसे आक्रामक रणनीति बनाई है। ‘आत्मनिर्भर बिहार’ नामक अभियान के तहत राज्य के दो करोड़ घरों में सम्पर्क साधा जाएगा। वालंटियर्स घर घर जायेंगे और लोगों से पूछेंगे कि बिहार को आत्म निर्भर कैसे बनाया जा सकता है। इन सुझावों के आधार पर भाजपा का चुनाव घोषणा पत्र तैयार किया जाएगा और यही पार्टी के अगले पांच साल का विज़न होगा। कुल मिला आकार रणनीति ज्यादा से ज्यादा लोगों से संपर्क करने और कनेक्टिविटी बनाने की है। इस काम में सोशल मीडिया का भी भरपूर इस्तेमाल किया जाएगा। रणनीति है कि लोगों को एम्पावरमेंट का अहसास कराया जाए। ये बताया जाये कि पार्टी राज नहीं बल्कि जनसहयोग और जन भागीदारी से शासन करेगी। बिहारियों की अस्मिता, आत्म सम्मान और गौरव को इससे जोड़ा जाएगा।

यह भी पढ़ें...लालू यादव: कभी बिहार से दिल्ली तक बोलती थी तूती, आज जी रहे ऐसी लाइफ

लोजपा की जातीय रणनीति

पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी बिहार की टाइम टेस्टेड जातीय राजनीति को अपनी रणनीति का हिस्सा बनाये हुए है। लोजपा के पास असल में बताने, साबित करने और दिखाने के लिए कुछ है भी नहीं सो जाति की चुनावी रणनीति उसे सबसे ज्यादा सूट कर रही है। इसके अलावा लोजपा अपना खेल बनाने के साथ दूसरों का खेल बिगाड़ने में भी दिमाग लगाये हुए है।

राम विलास पासवान ने चुनाव रणनीति और प्रचार की कमान बेटे चिराग के हाथों में दे दी है। लोजपा अध्यक्ष चिराग पासवान ने जिस तरह से नीतीश कुमार को लेकर सख्त रुख अपनाया हुआ है उससे अनुमान लगाया जा रहा है कि वह बिहार विधानसभा चुनाव नीतीश कुमार के नेतृत्व में नहीं लड़ना चाहते। ऐसा भी दिखाई पड़ रहा है कि चिराग पासवान अपने पिता के 16 साल पुराने राजनीतिक फॉर्मूले के तौर पर अपने कदम बढ़ा सकते हैं। उस समय यूपीए में राजद और लोजपा दोनों शामिल थे।

यह भी पढ़ें...बिहार चुनाव: सीटों के बंटवारे में उलझा महागठबंधन, सबकी अपनी-अपनी दावेदारी

फरवरी, 2005 में राम विलास पासवान ने कांग्रेस नेतृत्व वाले यूपीए का हिस्सा होते हुए भी बिहार चुनाव में राजद के खिलाफ अपने प्रत्याशी उतारे थे, लेकिन कांग्रेस प्रत्याशियों के खिलाफ ऐसा नहीं किया। पासवान ने कांग्रेस प्रत्याशियों को समर्थन किया और राजद के सियासी समीकरण को बिगाड़ दिया। इसके चलते राजद सरकार में नहीं आ सकी थी। बिहार में किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिल सका था। जिसके बाद राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ गया। इसके कुछ महीने बाद दोबारा चुनाव हुए तो नीतीश कुमार पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाने में सफल रहे थे।

बदली रणनीति

लोकसभा चुनाव में तेजस्वी यादव ने लालू के सामाजिक फॉर्मूले पर चलते हुए खुद को आजमा लिया है। तेजस्वी ने इस बार अपनी रणनीति बदली है। इस बार वह सबको साथ लेकर चलने की बात कर रहे हैं। राजद की यात्राओं और चुनावी मंचों से तेजस्वी ऐसी अब कोई बात नहीं करते, जिससे विवाद खड़ा हो और विभाजन की झलक दिखे। राजद की ओर से पिछले 15 साल की सरकार की कमियां-खामियां गिनाई-दिखाई जा रही हैं।

दोस्तों देश दुनिया की और खबरों को तेजी से जानने के लिए बनें रहें न्यूजट्रैक के साथ। हमें फेसबुक पर फॉलों करने के लिए @newstrack और ट्विटर पर फॉलो करने के लिए @newstrackmedia पर क्लिक करें।

Tags:    

Similar News