पुण्यतिथि विशेष: ‘आजाद’ की 2 ख्वाहिशें अधूरी ही रहीं, क्या आप उनके बारें में जानते हैं

चन्द्रशेखर आजाद को जब गिरफ्तार करने के बाद कोर्ट में पेश किया गया तो उस वक्त कोर्ट रूम में उनसे उनका परिचय पूछा गया। उन्होंने जवाब दिया- मेरा नाम आजाद और पिता का नाम स्वतंत्रता और मेरा पता जेल है।

Update:2021-02-26 16:09 IST
आजाद को एक दिन उनके मित्र सुखदेव राज ने एल्फ्रेड पार्क में मिलने के लिए बुलाया। वो बात कर ही रहे थे कि पुलिस ने उन्हें घेर लिया और फायर करने लगे।

नई दिल्ली: महान क्रांतिकारी और स्वतंत्रता सेनानी चंद्रशेखर आजाद की शनिवार(27 फरवरी) को पुण्यतिथि है। इस दिन चंद्रशेखर ने देश की आजादी के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए थे।

उनकी वीरता की गाथा देशवासियों के लिए प्रेरणा का एक स्रोत है। चंद्रशेखर की सबसे बड़ी ख्वाहिश देश को आजाद कराने की थीं। उनकी ये ख्वाहिश तो पूरी हो गई थी लेकिन उसे पूरा होते देखने के लिए आजाद दुनिया में नहीं थे।

24 साल की उम्र में ही उन्होंने अपनी जान की आहुति दे दी थीं। आजाद के बलिदान के 16 साल बाद देश को आजादी मिली थी। ये बात बेहद कम लोग ही जानते हैं कि चंद्रशेखर आजाद की दो और ख्वाहिशें थीं। जो कि अधूरी ही रहीं।

तो आइए आज हम आपको चंद्रशेखर की उन अधूरी दो ख्वाहिशें और उनके जीवन से जुड़ी कुछ खास बातों के बारें में बता रहे हैं।

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पुण्यतिथि विशेष: ‘आजाद’ की 2 ख्वाहिशें अधूरी ही रहीं, क्या आप उनके बारें में जानते हैं(फोटो:सोशल मीडिया)

23 जुलाई 1906 को ब्राह्मण परिवार में हुआ था जन्म

चंद्रशेखर आजाद का जन्म 23 जुलाई 1906 को हुआ था। उनकी जन्म स्थली मध्य प्रदेश के अलीराजपुर जिले का भाबरा नामक गांव है। उनके पिता का नाम पंडित सीताराम तिवारी था।

वे अकाल के समय यूपी के अपने पैतृक निवास बदरका को छोड़कर पहले कुछ दिनों मध्य प्रदेश के अलीराजपुर रियासत में नौकरी करते रहे, उसके बाद भाबरा गांव बस गए।

यहीं चन्द्रशेखर आजाद का बचपन बीता। चंद्रशेखर ने अपना बचपन आदिवासी इलाके में खेल-कूदकर बिताया था। यहीं पर छोटी आयु में ही निशानेबाजी सीख ली थी।

असहयोग आंदोलन के वक्त सड़कों पर उतरे थे चन्द्रशेखर

जब जलियांवाला बाग में अंग्रेजी हुकूमत ने नरसंहार किया था तो उस वक्त आजाद बनारस में रहकर शिक्षा ग्रहण कर थे। 1921 में महात्मा गांधी ने जब असहयोग आंदोलन चलाया तो आजाद भी सड़कों पर आंदोलन में भाग लेने के लिए उतर गए। उस वक्त उन्हें अरेस्ट भी किया गया था।

उस वक्त उनके मुंह से केवल दो ही शब्द निकल रहे थे एक था ‘बंदे मातरम’ और दूसरा ‘महात्मा गांधी की जय’।

आजाद को जब गिरफ्तार करने के बाद कोर्ट में पेश किया गया तो उस वक्त कोर्ट रूम में उनसे उनका परिचय पूछा गया। उन्होंने जवाब दिया- मेरा नाम आजाद और पिता का नाम स्वतंत्रता और मेरा पता जेल है।

चंद्रशेखर आजाद ने रामप्रसाद बिस्मिल और अन्य साथियों की मदद से ब्रिटिश खजाना लूटने और हथियार खरीदने के लिए ऐतिहासिक काकोरी ट्रेन डकैती की घटना को अंजाम दिया।

9 अगस्त 1925 को हुई काकोरी ट्रेन डकैती की घटना से ब्रिटिश सरकार हिल गई थीं। 10 क्रांतिकारियों ने और ट्रेन लूट को अंजाम दिया था।

इसके बाद फिर 17 दिसंबर, 1928 को एक और बड़ी घटना को अंजाम दिया गया था। लाला लाजपत राय की मृत्यु का बदला लेने के लिए आजाद, राजगुरू और भगत सिंह ने खुफिया प्लान तैयार किया था।

सांडर्स पर दागी थीं गोलियां

17 दिसंबर, 1928 को आजाद, भगत सिंह और राजगुरु ने शाम के समय लाहौर में पुलिस अधीक्षक के दफ्तर को घेर लिया और ज्यों ही जेपी सांडर्स अपने अंगरक्षक के साथ मोटर साइकिल पर बैठकर निकले, तो राजगुरु ने पहली गोली दाग दी। फिर भगत सिंह ने आगे बढ़कर 4-6 गोलियां दागी। जब सांडर्स के अंगरक्षक ने उनका पीछा किया, तो चंद्रशेखर आजाद ने अपनी गोली से उसे भी मार गिराया।

इस घटना को लेकर खूब शोर मचा था। लाहौर में कई स्थानों पोस्टर लगाए गये थे कि लाला लाजपत राय की मृत्यु का बदला ले लिया गया है।

27 फरवरी 1931 को हुए थे शहीद

आजाद को एक दिन उनके मित्र सुखदेव राज ने इलाहाबाद के एल्फ्रेड पार्क में मिलने के लिए बुलाया। वो बात कर ही रहे थे कि पुलिस ने उन्हें चारों तरफ से घेर लिया और फायर करने लगे।

दोनों ओर से जमकर गोलीबारी दागी गई। आजाद ने अपने जीवन में ये सौगंध ले रखी थी कि वो कभी भी जिंदा पुलिस के हाथ नहीं आएंगे। इसलिए उन्होंने 27 फरवरी 1931 को खुद को गोली मारकर देश की आजादी के लिए अपने प्राण की आहुति दे दी।

जिस पार्क में ये घटना हुई थीं। देश की आजादी के बाद इलाहाबाद के उस पार्क का नाम बदलकर चंद्रशेखर आजाद पार्क और मध्य प्रदेश के जिस गांव में वह रहे थे उसका नाम बदलकर आजादपुरा रखा गया।

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पुण्यतिथि विशेष: ‘आजाद’ की 2 ख्वाहिशें अधूरी ही रहीं, क्या आप उनके बारें में जानते हैं(फोटो:सोशल मीडिया)

ये दो ख्वाहिशें रह गई अधूरी

आजाद की पहली ख्वाहिश अपने साथी क्रांतिकारी भगत सिंह को फांसी के फंदे से बचाना था। इसके लिए उन्होंने हर संभव कोशिश की और बहुत लोगों से मिले भी, लेकिन उनकी शहादत के एक महीने के भीतर ही उनके साथी भगत सिंह को भी फांसी दे दी गई।

जबकि उनकी दूसरी ख्वाहिश थीं स्टालिन से मिलने की। देश की आजादी के लिए वह रूस जाकर स्टालिन से मिलना चाहते थे। उन्होंने अपने जानने वालों से यह बात कही भी थी कि खुद स्टालिन ने उन्हें बुलाया है।

लेकिन, इसके लिए 1200 रुपये उनके पास नहीं थे। उस समय 1200 रुपये बड़ी रकम हुआ करते थे। वह इन रुपयों का इंतजाम कर पाते, उसके पहले ही उन्होंने देश की आजादी के लिए अपनी कुर्बानी दे दी।

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