'मैं नदिया की धार बनूंगी, तुम मेरे सागर बन जाना'- पढ़ें ये खास कविताएं
प्रियंका अग्रवाल पिछले कुछ वर्षों से कविता लेखन का कार्य कर रही है ,जिसमें अपने हृदयोदगारों एवं समसामयिक परिवेश के बारे में उनकी राय देखने को मिलती है।
प्रियंका अग्रवाल
मैं नदिया की धार बनूंगी
मैं नदिया की धार बनूंगी, तुम मेरे सागर बन जाना।
मैं सपनों के तार बूनूंगी, तुम उनमे आकर बस जाना।
जब जब यूं बादल बरसेंगे, जब जब यूं आंगन महकेंगे,
मैं बनूंगी प्यास तुम्हारी,तुम मेरे चातक बन जाना।
शुद्ध प्रेम मैं,मैं सच्ची हूँ भक्ति,पर तुम मेरे ईष्ठ विधाता,
मैं बनूंगी मीरा तुम्हारी,तुम मेरे कान्हा बन जाना।
ऐसा होगा प्रेम ये अपना और ऐसा होगा यह नाता,
जब भी देखे जगत का प्राणी या फिर देखे जगत विधाता,
मैं बनूंगी अक्स तुम्हारा,तुम मेरे दर्पण बन जाना।
बेटे करें तरक्की
बेटे करें तरक्की उसके, बेटी हो खुशहाल,
माँ के यही कामना करते, कट जाते हैं साल,
गरम-नरम ही खा पाती है,
हिलतें हैं कुछ दाँत,
थक कर अब कमजोर हो गई,
उसकी छोटी आँत,
फिर भी उसके मन में रहती, केवल इतनी बात,
सब बेटों के घर बस जायें, खेले उनमें लाल,
माँ के यही कामना करते, कट जाते हैं साल,
टेड़ी हुई कमर की हड्डी,
छूटे सारे काम,
लकड़ी के बिस्तर पर सोती,
मिलता नही आराम,
फिर भी हाथ जोड़कर के वो कहती है -हे! राम,
कुटुंब रहे सुरक्षित मेरा, दूर रहें भूचाल,
माँ के यही कामना करते, कट जाते हैं साल,
बेटी के हित माँग रही वरदान झुका कर शीश,
पत्थर-पत्थर पूज रही है, मना रही है ईश,
अपने पूरे जीवन श्रम से देती है आशीष,
चार चंद्रमा चमकें बेटी, जा तेरी ससुराल,
माँ के यही कामना करते, कट जाते हैं साल
कूड़े कचरे के ढ़ेरों से
कूड़े कचरे के ढ़ेरों से,
बीन रही थैली इक गुड़िया,
सूने सूने नयन बाँवरे, कौन लगाता उनको काजल,
सूख गया होठों से पानी, सूखा गालों पर आँसू जल,
रोटी के दो टूकों खातिर
भटक रही आंगन की चिड़िया,
कूड़े कचरे के ढ़ेरों से,
बीन रही थैली इक गुड़िया...
कुछ थैली चुन कर रख लेती, कुछ को देती मार वो ठोकर,
कूड़े पर अटकी नजरें ज्योँ, खोज रही पगली कुछ खोकर,
छोटे - छोटे से हाथों से,
ढूँढ रही किस्मत की पुड़िया,
कूड़े कचरे के ढ़ेरों से,
बीन रही थैली इक गुड़िया...
लेकिन थोड़ी देर बाद ही, चीखी वह फिर जोर लगा कर,
अपनी टोली के बच्चों को, बुला रही है हाथ हिला कर,
सीमा नही खुशी की उसकी,
पाया जो इक टुकड़ा खड़िया,
कूड़े कचरे के ढ़ेरों से,
बीन रही थैली इक गुड़िया...
ये कविताएं प्रियंका अग्रवाल द्वारा रचित हैं। प्रियंका अग्रवाल मूलतः भरतपुर, राजस्थान से हैं और पिछले 22 सालों से अपने पति के साथ विभिन्न देशों में रही हैं। विदेशों में रह रहे भारतीयों के बीच अपने देश की सभ्यता, संस्कृति एवं पारम्परिक खान-पान के प्रचार में उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान दिया है। पिछले कुछ वर्षों से वह कविता लेखन का कार्य कर रही है जिसमें अपने हृदयोदगारों एवं समसामयिक परिवेश के बारे में उनकी राय देखने को मिलती है।
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