Mahakumbh Mela Ka Itihas: 1966 का प्रयाग का अद्भुत महाकुम्भ! ऐसा कुंभ फिर नहीं देखा
Maha Kumbh History 1966: प्रयागराज में गंगाजी की धारा हमेशा परिवर्तित हुआ करती है। फलस्वरूप वहां 1966 में बांध के नीचे गंगाजी के इस पार स्थान की काफी कमी हो गई थी।;
Maha Kumbh History 1966: गृहनगर इलाहाबाद में 2 नवम्बर, 1961 को पत्रकारिता में आने के बाद मैंने वहां आयोजित प्रत्येक महाकुम्भ एवं कुम्भ की जितनी गहन एवं व्यापक कवरेज की, उतनी किसी भी पत्रकार के लिए सम्भव नहीं हो सकती थी। उस कवरेज के लिए मैंने बड़े पापड़ बेले थे। अतिकठोर परिश्रम किया था। तब स्कूटर का भी जमाना नहीं आया था। मेरे पास साइकिल थी, जिस पर मैंने बेहद विराट कुम्भ नगर एवं शहर के दूसरे छोर पर लगी विशाल विश्व-प्रदर्शनी की जबरदस्त रिपोर्टिंग की थी। वैसे तो पहले भी प्रयागराज के महाकुम्भ एवं कुम्भ से शुरू से मेरा निकट सम्बंध रहा है, किन्तु पत्रकार के रूप में मुझे 1966 के महाकुम्भ की रिपोर्टिंग करने का सुअवसर मिला। उस समय मेरी उम्र 25 वर्ष थी। मैं अतिउत्साह एवं अदम्य जोश से भरा हुआ था। उसके बाद मैंने प्रयागराज के समस्त महाकुम्भों एवं कुम्भों की रिपोर्टिंग की, किन्तु 1966 में मैंने वहां का जो महाकुम्भ देखा, वैसा विलक्षण महाकुम्भ फिर देखने को नहीं मिला।
प्रधानमंत्री के रूप में इंदिरा गांधी ने अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए हर चीज का राजनीतिकरण कर दिया था। यहां तक कि उन्होंने ‘पद्म’ अलंकरणों का स्तर भी बहुत गिरा दिया था। उसी क्रम में उन्होंने अपने कार्यकाल में प्रयागराज के कुम्भ का भी राजनीतिकरण कर दिया था। उसका चुनावी फायदे के लिए इस्तेमाल किया। लेकिन 1966 के महाकुम्भ में दूर-दूर तक ऐसी कोई बात नहीं थी। वह महाकुम्भ शुद्ध रूप से पूरी तरह आध्यात्मिक रंग लिए हुए था। उसकी गरिमा एवं आनंद बेजोड़ थे।
प्रयागराज में गंगाजी की धारा हमेशा परिवर्तित हुआ करती है। फलस्वरूप वहां 1966 में बांध के नीचे गंगाजी के इस पार स्थान की काफी कमी हो गई थी। अतएव अधिकांश कुम्भ मेला गंगाजी के उस पार झूंसी क्षेत्र में आयोजित हुआ था, जिसका क्षेत्र बहुत दूर तक फैला हुआ था। इस पार से झूंसी क्षेत्र तक आने-जाने के लिए पीपे के अनेक पुल बनाए गए थे तथा सेना ने भी बहुत अच्छे पुलों का निर्माण किया था। उस समय पूरे मेला क्षेत्र में बड़े से बड़े एवं छोटे से छोटे पंडालों व शिविरों में दिन-रात जो रौनक विद्यमान थी, उसका मुझे आज भी स्मरण है। महाकुम्भ में देहरादून के प्रसिद्ध वरिष्ठ संत स्वामी गोविंद दास जी का विशाल शिविर लगा हुआ था, जहां रहकर मेरी मां कल्पवास कर रही थीं। मुझे रात में बहुत देर हो जाती थी तो मैं घर जाने के बजाय मां के साथ उसी शिविर में रुक जाता था।
मेला क्षेत्र में ऋषिकेश के प्रसिद्ध संत महामंडलेश्वर स्वामी वेदव्यासानंदजी महाराज का शिविर भी लगा था, जो विस्तृत क्षेत्र में फैला हुआ था। स्वामी वेदव्यासानंदजी महाराज प्रकाण्ड विद्वान तो थे ही, कठोर परिश्रमी भी थे। उस समय मैंने ‘रंगभारती’ द्वारा प्रयाग हिन्दी साहित्य सम्मेलन में बहुत बड़े पैमाने पर संत-साहित्यकार सम्मेलन का आयोजन किया था, जिसकी अध्यक्षता वरिष्ठ संत महामंडलेश्वर स्वामी प्रकाशानंदजी महाराज ने की थी। मुख्य अतिथि महान साहित्यकार महादेवी वर्मा थीं। उस सम्मेलन में बहुत बड़ी संख्या में ख्यातिप्राप्त संतों एवं साहित्यकारों ने भाग लिया था। उसी सम्मेलन में मैंने सरकार के लिए एक मांगपत्र तैयार किया था, जिसमें इलाहाबाद का नाम बदलकर ‘प्रयागराज’ किए जाने की मांग की गई थी। वह प्रस्ताव सम्मेलन में महामंडलेश्वर स्वामी वेदव्यासानंदजी महाराज ने प्रस्तुत किया था, जो सर्वसम्मति से स्वीकार हुआ था।
भयंकर ठंड में रात में ग्यारह बजे के लगभग जब मैं मेला-क्षेत्र के भ्रमण से लौटने लगता था तो स्वामी वेदव्यासानंदजी महाराज के शिविर में आरती होती रहती थी, जिसमें इस भजन की बड़ी हृदयग्राही धुन सुनाई देती थी -‘अब सौंप दिया इस जीवन का हर भार तुम्हारे हाथों में’। स्वामी वेदव्यासानंदजी महाराज के शिविर के पास विश्वगुरु स्वामी मनीषानंदजी महाराज का शिविर भी लगा हुआ था। उस समय वह शिविर अत्यंत छोटे रूप में था, जो आगे के महाकुम्भों एवं कुम्भों में वृहत आकार लेता गया। अंत में उसका बड़ा विशाल रूप हो गया। ऋषिकेश में एक छोर पर स्वामी वेदव्यासानंदजी महाराज का विराट आश्रम स्थित था, तो दूसरे छोर पर स्वामी मनीषानंदजी महाराज का विशाल आश्रम था। उनके यहां आश्रम में योग-साधना के लिए एक बहुत बड़ा हॉल था, जहां बड़ी संख्या में आश्रम में रुकनेवाले विदेशीजन साधना किया करते थे। 1966 के महाकुम्भ में स्वामी मनीषानंदजी महाराज के शिविर में मैंने एक पत्थर का प्रदर्शन देखा था, जो पानी में डूबता नहीं था।
राजस्थान के आबू पर्वत में ‘ब्रम्हाकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय’ का अत्यंत विशाल मुख्यालय है, जहां पूरे वर्ष बड़े-बड़े आयोजन होते हैं। 1966 के महाकुम्भ में ब्रम्हाकुमारी का छोटा-सा पंडाल लगा हुआ था। उस समय कल्पना नहीं की जा सकती थी कि भविष्य में उनका बहुत विराट रूप हो जाएगा। उस महाकुम्भ में सतपालजी महाराज का भी छोटा शिविर लगा था, जो क्रमश: अन्य महाकुम्भों एवं कुम्भों में विशाल होता गया। उसी महाकुम्भ में पहली बार सौरऊर्जा संयंत्र का प्रदर्शन मैंने देखा था। तभी मुझे प्रेरणा मिली थी कि हमारे देश में जितनी अधिक सौरऊर्जा है, उतनी विश्व में कम स्थानों पर है, अतः यदि उसका समुचित उपयोग किया जाय तो हमारा देश बिजली के बिना भी तरक्की के शिखर पर पहुंच सकता है।
1966 के महाकुम्भ में एक से एक पहुंचे हुए एवं चमत्कारिक साधु-संतों व महात्माओं के दर्शन हुए थे। अधिकांशतः वे लोग ऐसी-ऐसी जगहों पर सामान्य रूप में निवास कर रहे थे कि कोई उनकी शक्तियों का अनुमान नहीं लगा सकता था। उस मेले में मुझे दो बार रास्ते में ऐसे महात्माओं के दर्शन हुए थे, जो कुछ देर में मेरे सामने ही अदृश्य हो गए थे। मस्तक देखकर अतीत एवं भविष्य की बातें बता देनेवाले महात्मा भी मिले थे। उसी कुम्भ के दौरान 11 जनवरी को प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री की रूस में हत्या होने का समाचार मिला था, जिससे सर्वत्र विशाद छा गया था। लालबहादुर शास्त्री को देश का ‘पहला भारतीय प्रधानमंत्री’ कहा जा रहा था। उन्होंने अपनी ईमानदारी, सादगी एवं साहस से मात्र 18 महीने में अपार लोकप्रियता हासिल कर ली थी। मेले में कलकत्ता के एक सज्जन से मेरी काफी आत्मीयता हो गई थी। उनका नाम सम्भवतः चंडीप्रसाद शास्त्री था। मैं उन्हें सामान्य व्यक्ति समझता था, किन्तु बाद में आभास हुआ कि वह ज्योतिष शास्त्र के अतिप्रकाण्ड विद्वान हैं। उस समय उन्होंने मेरे बारे में भविष्य की जो-जो बातें बताई थीं, वो सभी सत्य निकलीं। उस महाकुम्भ के ऐसे अनगिनत अनुभव हैं, जिन्हें सोचकर अभी भी आश्चर्य व रोमांच होता है।
1966 के महाकुम्भ के बाद मैंने साधु-संतों में क्रमश: सामाजिक विचारों में परिवर्तन होते देखा। उस महाकुम्भ में महात्माओं में जातिवाद का व्यापक प्रभाव दिखाई देता था। लेकिन धीरे-धीरे बाद के महाकुम्भों एवं कुम्भों में जातिवाद का वह असर कम होता गया तथा फिर तो ऐसी स्थिति भी देखने को मिली कि तमाम संत-महात्माओं ने हिन्दू समाज की एकता के लिए जातिवाद का विरोध करना शुरू कर दिया। इसी प्रकार संत-महात्मा नारी शिक्षा एवं अन्य तमाम सामाजिक सुधारों पर भी बहुत बल देने लगे। उनके यहां पंडालों में होने वाले प्रवचनों में धार्मिक बातों के साथ कुरीतियों के उन्मूलन पर भी जोर दिया जाने लगा। वैसे, सुधारवादी विचारों की हल्की झलक 1966 के महाकुम्भ से आरंभ हुई थी, भले ही उसका रूप अदृश्य सरस्वती-जैसा था।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)