थ्‍यांगबोचे मठ में मिलती है शांति अपार, दोस्तों के साथ की चढ़ाई लगातार

Update:2016-07-28 17:50 IST

लखनऊ: जीवन के हर पल को ख़ुशी से बिताओ, बाधाओं को जीवन से बाहर कर हर पल मुस्कुराओ,

लाख रोके उम्र तुम्हारे कदम, भूल कर हर मुश्किल बस आगे बढ़ते जाओ

नामचे बाजार में घूमने के बाद मेरे और मेरे दोस्तों के अंदर एक नया जोश सा जाग गया था। आगे का सफर हम तीन गुने ताकत और ऊर्जा के साथ शुरू किए। नामचे बाजार में एक दिन एक्लेमेटाइजेशन के लिए रूकने के बाद हम सुबह 7 बजे थ्यांगबोचे के लिए रवाना हुए।

सुबह की धूप चारों ओर के हिमशिखरों पर अपनी स्वर्णिम आभा बिखेर कर अब पूरे नामचे बाजार को गुनगुना कर रही थी। हम व्यू पाइंट से आगे बढ़ रहे थे। यहां से आगे करीब 4 किमी तक का रास्ता लगभग सीधा सा है। कभी 100 मीटर ऊपर तो कभी सौ मीटर नीचे।

रास्ते में कहीं कहीं स्मृति स्तम्भ और छोटे-छोटे स्तूप भी बने हैं। एक स्तूप तेनजिंग को भी समर्पित है। हल्के घने जंगल को सगरमाथा नेशनल पार्क के अधीन वन विभाग के लोग वृक्षारोपण के जरिए घना बनाने के प्रयास कर रहे हैं। हालांकि इस ऊंचाई पर वृक्षों के पनपने की रफ्तार बहुत धीमी होती है, फिर भी अनेक स्थानों पर इसके संतोषजनक नतीजे दिखते हैं। इस इलाके में ठण्ड के कारण बुरांश के फूलों का रंग तीखा गुलाबी न होकर हल्का सा गुलाबी या एकदम सफेद हो जाता है।

उत्तराखण्ड के सफेद बुरांश की तुलना में यहां के सफेद बुरांश के पेड़ ज्यादा बड़े दिखते हैं। अप्रैल के अंतिम सप्ताह में यहां गर्मी के कारण ज्यादातर झाड़ियों और वृक्षों में हर ओर अलग-अलग रंगों के फूल दिखाई दे रहे थे। दूधकोशी नीचे करीब 2 हजार मीटर गहराई में बह रही थी और हम अपने साथ गुजर रहे भारवाही पशुओं के गले की घण्टियों की धुन सुन-सुन कर आनंदित हो रहे थे।

रास्ते में एक स्थान पर रूककर हमने चाय पी। यहां से हमें लगातार ढलान पर उतरना था और नीचे नदी के संगम स्थल तक पहुंचना था। जहां से फिर लगातार ऊपर चढ़कर हम थ्यांगबोचे पहुंच सकते थे। इस इलाके में जंगल काफी घना था। इतना घना कि कई स्थानों पर तो सूरज की रोशनी भी नीचे नहीं पहुंच पा रही थी। बिल्कुल नदी के पास तक उतर कर हमने एक बार फिर पुल पार किया और फुंकी नाम के एक छोटे से गांव में खाना खाने के लिए रूक गए। दूध कोशी के किनारे बसे इस गांव से हमें थ्यांगबोचे के लिए लगातार चढ़ाई चढ़नी थी। हालांकि इसके आधे भाग में जंगल था, फिर भी तेज धूप के कारण यह चढ़ाई हमारे लिए मुश्किल पैदा करने वाली थी।

करीब एक घंटा यहां पर रूकने के बाद हमने धीरे-धीरे ऊपर चढ़ना शुरू किया। अरूण आज कुछ अधिक फिट लग रहा था, मगर राजेन्द्र रोज की तरह अपनी सदाबहार रफ्तार में ही था। चूंकि ढलान वाले मार्ग की तुलना में चढ़ाई वाले हिस्से में फोटोग्राफी करने में ज्यादा सुविधा रहती है। इसलिए इस करीब ढाई घंटे की चढ़ाई में हमने अपने कैमरों का खूब इस्तेमाल किया।

राजेन्द्र के तो एक कैमरे की बैटरी तक खत्म हो गई। करीब ढाई बजे हम थ्यांगबोचे के इतने करीब पहुंच गए थे कि हमें वहां के मोबाइल टावर पर बंधी झण्डियां दिखने लगी थीं। वास्कोडिगामा को भारत के समुद्र तट पर बने उस जमाने के लाइट हाऊस को देख कर जितनी खुशी हुई होगी उससे कहीं ज्यादा हमें इन झण्डियों को देख कर हुई।

दरअसल हम किसी भी तरह शाम चार बजे से पहले थ्यांगबोचे पहुंचना चाहते थे क्योंकि हमें बताया गया था कि शाम चार बजे बाद मठ बाहरी लोगों के लिए बंद हो जाता है। थ्यांगबोचे मठ नेपाल में खुम्भू घाटी के सबसे बड़े और पुराने मठों में से एक है। इसका बहुत महत्व है। हालांकि वर्तमान इमारत बहुत पुरानी नहीं है। मूल इमारत का भूकंप और आग के कारण अब तक कम से कम तीन बार पुर्ननिर्माण हो चुका है।

अप्रैल 2015 के विनाशकारी भूकंप से मठ की बाहरी इमारतों को नुकसान पहुंचा था। हमने वहां पहुंचने के बाद अपने रहने की व्यवस्था करने से पहले मठ में दर्शन करना उचित समझा और जहां तक अनुमति थी हम तस्वीरें खीचते रहे। मठ काफी उंचाई पर बना है। मुख्य हाल काफी बड़ा है। लकड़ी के फर्श वाले प्रार्थना हाल (दो खांग) में शाक्यमुनि बुद्ध की एक बड़ी प्रतिमा है जिसके सामने प्रार्थना करने वाले लामाओं के बैठने के लिए लकड़ी के बड़े और ऊंचे आसनों की दो कतारें हैं। खुम्भू घाटी में बौद्धधर्म लगभग 350 वर्ष पूर्व तिब्बत से आया।

तिब्बत के कुछ प्राचीन ग्रंथों में खुम्भू घाटी को बहुत पवित्र स्थलों के रूप में वर्णित किया गया है। यहां बौद्ध धर्म प्रवर्तक के रूप में लामा सांग्वा दोर्जी का नाम सबसे प्रमुख माना जाता है। थ्यांगबोचे मठ के मुख्य हाल के बाहर एक बहुत बड़ी चट्टान का टुकड़ा रखा हुआ है, जिसमें पांव के निशान बने हैं।

कहा जाता है कि ये निशान लामा सांग्वा के पैरों के निशान हैं, जब वे ध्यान में इतने लीन हो गए थे कि उनके पैरों से पत्थर पर ऐसे निशान बन गए। हालांकि यहां पर मठ काफी बाद में लामा की पांचवी पीढ़ी के नवांग तेनजिंग नोर्बू के समय स्थापित हुआ था। नवांग ने ही तिब्बत में प्रसिद्ध रोंगबूक मठ की भी स्थापना करवाई थी। दावा चोलिंग गोम्पा के नाम से भी जाना जाने वाला यह मठ वर्तमान स्थान पर 1916 में स्थापित किया गया था।

थ्यांगबोचे मठ का एवरेस्ट अभियानों के लिए भी अलग महत्व है। 1953 के तेनजिंग, हिलेरी वाले अभियान दल के लीडर जान हंट ने अपने सहयोगियों के साथ यहां पर विशेष प्रार्थना की थी। बाद के अभियानों में भी यही सिलसिला जारी रहा और अभी भी जारी है। प्रार्थना हाल में काफी देर मंत्रोत्चार के बीच अपार शांति की अनुभूति के बाद जब हम बाहर वापस लौटे तो हमें अपने भीतर नई ऊर्जा का अनुभव हो रहा था।

गोविन्द पंत राजू

 

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