फाकडिंग में जो महसूस की मी पिरूक की तान और मानसून की पहली झड़ी, नहीं भूलेगा कभी
लखनऊ: जैसे-जैसे हम एवरेस्ट से वापस आ रहे थे रास्ते का रोमांच, उतना ही था, जितना जाते टाइम हमारे चेहरों पर थकावट की कोई शिकन नहीं थी। पिछली यात्रा तो आप पढ़ ही चुके हैं, आइए आपको आगे की यात्रा की ओर ले चलते हैं।
(राइटर दुनिया के पहले जर्नलिस्ट हैं, जो अंटार्कटिका मिशन में शामिल हुए थे और उन्होंने वहां से रिपोर्टिंग की थी। )
नामचे बाजार के बीचों-बीच जो पानी की धारा बहती है, उसका एक स्रोत नामचे बाजार को छिपा लेने वाली पहाड़ी के नीचे भी दिखता है। जहां पर यह धारा फूटती है, वहीं पर पत्थरों को बिछा कर कपड़े धोने का इंतजाम किया गया है। भारवाही पशुओं के लिए वहीं पर एक बाड़ा भी है, जिसमें नामचे बाजार में भीड़ होने पर याक व ज्यो और खच्चरों को रात भर बांधने की सुविधा है। यह पानी यहां से नीचे बहता हुआ नामचे बाजार वाली धारा से मिल कर कुछ किलोमीटर नीचे बहने के बाद दूधकोशी में पहुंच जाता है। नामचे बाजार में बहने वाली धारा पूरी बस्ती की पानी की जरूरतों का बड़ा हिस्सा पूरा करती थी। लेकिन अब इस प्राकृतिक जल धारा को टाइल्स बिछा कर नाली का सा रूप दिया जा रहा है।
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सौंदर्यीकरण का यह काम यात्रियों से सगरमाथा नेशनल पार्क लिए जाने वाले शुल्क की रकम में से करवाया जा रहा है। कई स्थानीय लोगों को यह लगता है कि यह एक तरह की फिजूलखर्ची है और इसके जरिए खर्च की जा रही रकम को लेकर भ्रष्टाचार भी हो रहा है। सौंदर्यीकरण के बाद पानी की धारा का बहाव बढ़ जाएगा और इसके प्रवाह से धर्म चक्र भी घुमाए जाएंगे। लेकिन कुल मिलाकर नामचे की प्राकृतिक सुंदरता के बीच में जल धारा के साथ किया जा रहा टाइल्स का यह प्रयोग मखमल में टाट का सा पैबंद लगता है।
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नामचे से लगभग दो सौ मीटर नीचे सगरमाथा नेशनल पार्क का चेक पॉइंट है। ऊपर आते समय हम जब यहां पहुंचे थे, तो बुरी तरह से थके हुए थे। मगर वापसी में हम एकदम तरोताजा थे। यहां अपने दस्तावेज चेक कराए और सगरमाथा नेशनल पार्क तथा एवरेस्ट के प्रमाण पत्र प्राप्त किए। यह प्रमाण पत्र हमारे लिए हमेशा एक यादगार स्मृति चिन्ह बनते रहेंगे। यहां से देवदार का घना जंगल शुरू हो जाता है। इस इलाके में देवदार प्राकृतिक रूप से उगता है।
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लेकिन सगरमाथा नेशनल पार्क की स्थापना के बाद स्थितियां काफी सुधर गई हैं क्योंकि इसके बाद अनियंत्रित वन कटान पर भी रोक लगी है और वृक्षारोपण के जरिए देवदार के नए पौधे भी सफलता पूर्वक लगाए गए हैं। हालांकि देवदार का वृक्षारोपण बहुत आसान नहीं है। इसलिए यह एक शानदार सफलता कही जा सकती है। वैसे यह इलाका प्राकृतिक रूप से भूस्खलन प्रभावित इलाका है। चिकनी मिट्टी वाला, जो गर्मियों में सूख कर सफेद धूल बन कर घुमक्कड़ों को खूब सताती है क्योंकि याक और खच्चरों के चलने से रास्ते में छह-छह इंच तक सफेेद धूल जमा हो जाती है।
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करीब 300 मीटर और नीचे पहुंच कर हम व्यू पॉइंट में पहुंच गए। व्यू पॉइंट ऐसी जगह है, जहां लुकला से एवरेस्ट की भव्यता की पहली झलक मिलती है। नेपाल पर्यटन विभाग ने यहां पर पीने के पानी का इंतजाम किया है और शौचालय भी बनवाए हैं। बैठने के लिए पत्थरों के चबूतरे भी बने हैं। नामचे बाजार आने वाले लोग धूप और चढ़ाई में थक कर यहां पर थोड़ी देर रूकते जरूर हैं। इसी तरह वापस लौटने वाले लोग भी एवरेस्ट की झलक का आखिरी आनंद हासिल करने के लिए यहां पर रूकते जरूर हैं। घने जंगल के बीच इस जगह पर नामचे बाजार की एक दो महिलाएं सेब, चाकलेट, फ्रूट ड्रिंक और बिस्कुट के पैकेट लेकर छोटी सी दुकानदारी भी चला रही थीं।
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हम फिर खुश किस्मत थे कि एवरेस्ट पर मौसम साफ था और हमें जी भर कर एवरेस्ट को निहारने का यह आखिरी मौका भी मिल गया। इसके बाद इस मार्ग में हमें अब एवरेस्ट की झलक नहीं दिखने वाली थी। राजेंद्र ने हम सबकी अलग अलग तस्वीरें खींची और मैंने उसकी। जहां से एवरेस्ट दिखता था वहां पर बड़ी भीड़ थी। वे लोग इस समय फाकडिंग से आ रहे थे और वे सब एवरेस्ट की पहली झलक पा कर दीवाने हुए जा रहे थे। हमने उन्हें बताया कि नामचे से उन्हे और बेहतर नजारा मिल सकेगा।
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अब नवांग सबसे पीछे और ताशी सबसे आगे नामचे की चढ़ाई जितनी कष्टप्रद थी। इस ढलान में उतरना भी उतना ही परेशान करने वाला। फिर एवरेस्ट मार्ग के सबसे ऊंचे और लंबे लोहे के खतरनाक रोप ब्रिज को पार करके हम जब अपेक्षाकृत समतल हिस्से में पहुंचे, तो दूधकोशी के तीव्र गति से बहते जल का स्पर्श करने का एक अवसर हमारे सामने था और हमने उस अवसर का भरपूर लाभ उठाया।
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अरूण और मैंने मुंह धोया और दूध कोशी के ठंडे पानी को पीने का भी प्रयास किया। नवांग हमें रोकता रहा और हम जल्द ही ऊपर को आ गए। दो बार दूधकोशी को पार करके हमने जोरसिली में एक जगह चाय पी। हम नामचे से उतरते समय थक गए थे, इसलिए चाय पीते हुए हमने अपने घुटनों को आराम दिया।
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हल्की बारिश के बीच हम मोंजो पहुंचे। टी हाऊस के डाइनिंग हाॅल की बड़ी-बड़ी खिड़कियों से हम बारिश का मजा लेते रहे। नीचे खेतों में हरियाली सिर उगा रही थी, तो कहीं सरसों के फूल बसंती गलीचों की तरह बिछे दिख रहे थे। मोजो में बहुत से परिवार स्थाई रूप से रहते हैं। नदी तट के करीब होने के कारण यहां दूधकोशी का शोर बहुत तेज रहता है।
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मगर घुमक्कड़ों को यह बहुत अच्छा लगता है इसलिए यहां के कुछ टी हाऊस इस तरह बनाए गए हैं कि उनकी खिड़कियों से दूधकाशी की हुंकार और गति दोनों का आनंद मिलता है। मोंजो से दिन का खाना खा कर आराम से चढ़ते उतरते हुए साढे़ तीन बजे तक हम फाकडिंग पहुंच गए। फाकडिंग में भी हमें वहीं रूकना था, जहां हम पहले दिन रूके थे।
आगे की स्लाइड में जानिए कौन है वहां के टी हाऊस का मालिक
पार्वती दीदी का यह टी हाऊस बहुत बड़ा नहीं है। मगर बहुत कुशलता से संचालित किया जाता है। पार्वती के पति भी पर्वतारोही शेरपा हैं और अब काठमाण्डू में रहते हैं। पार्वती इस टी हाऊस को करीब 20 साल से चला रही हैं। अच्छे स्वभाव के कारण उनके देश-विदेश में बहुत सारे दोस्त हैं। एक बेटी टेक्सास, अमेरिका में पढ़ रही है। बेटा भी बाहर पढ़ रहा है।
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स्वयं अनपढ़ रही पार्वती यह भी नहीं जानतीं कि उनकी बेटी क्या पढ़ाई कर रही है। पावती का स्वभाव इतना अच्छा है कि राजेंद्र ने एवरेस्ट की ओर जाते समय ही हम सबकी ओर से उन्हे दीदी संबोधन दे दिया था, पार्वती दीदी! बेहद सरल, स्नेहिल और मृदुभाषी होते हुए भी पार्वती दीदी का स्वभाव उनके कारोबार के आड़े नहीं आता।
आगे की स्लाइड में जानिए फाकडिंग में किस्से हुई हमारी मुलाक़ात
फाकडिंग में हमारी मुलाकात इंग्लैण्ड में रह रही भारतीय मूल की बसंती हीरानन्दानी से हुई। 45 वर्षीय बसंती 20 साल पहले ‘मेरा पीक‘ और ‘आइलैण्ड पीक‘ आरोहण अभियान के लिए इस इलाके में आई थीं। अपने दल में अकेली महिला आरोही होने के कारण वो पुरूष आरोहियों के व्यवहार से परेशान थीं। दल के कुछ सदस्य भी मनमुटाव के कारण बीच से ही वापस चले गए थे।
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उस मौके पर पार्वती के शेरपा पति ने बसंती की इतनी मदद की कि दोनों के बीच भाई बहन का रिश्ता बन गया और बसंती पार्वती की दोस्त बन गई। यह दोस्ती आज भी बरकरार है और समय के साथ साथ ज्यादा मजबूत होती जा रही है। पार्वती को इस दोस्ती पर गर्व है।
आगे की स्लाइड में जानिए फाकडिंग में किसने खींचे टीम का ध्यान
बसंती तब से हर साल इस इलाके में आती हैं। पार्वती के यहां रहती हैं। इलाके के गरीबों के लिए भोजन व अन्य जरूरतों का इंतजाम करती हैं। कुछ स्वास्थ्य कार्यक्रम भी चलाती हैं। पर्वतारोहण और पहाड़ों से प्रेम का मजा भी ले रहीं हैं और बहुत सारे लोगों की मदद भी कर रही हैं। उनके पहाड़ प्रेम को पार्वती के पति के सहयोग ने मानवीय संबंधों में बदल दिया था और अब बसंती इंग्लैण्ड से चैरिटी के जरिए सोल खूम्भू की मदद करके उस संबंध को मजबूत कर रही हैं।
जब हम फाकडिंग पहुंच रहे थे, तो एक चिड़िया की सुरीली तान ने हमारा ध्यान खींचा था। नवांग के मुताबिक इसका नाम ’मी पिरूक‘ (डप् च्प्त्न्ज्ञ) है और यह मानसून के आगमन की सूचना देती है। जब हम फाकडिंग पहुंचे, तो तेज बारिश ने हमारा स्वागत किया। यानी ‘मी पिरूक’ की भविष्यवाणी सच साबित हो रही थी। बारिश देर तक होती रही और हम सब नेपाल के उस पहाड़ी इलाके में बरसते बादलों के साथ डूबती सांझ के गवाह बनते रहे।
गोविंद पंत राजू