नामचे के स्नान से हुई तनाव मुक्ति, यकीन नहीं हुआ जब देखी अनोखी गोक्यो लेक की खूबसूरती

Update: 2017-01-16 09:41 GMT

Govind Pant Raju

लखनऊ: जैसे-जैसे हम एवरेस्ट से वापस आ रहे थे रास्ते का रोमांच, उतना ही था, जितना जाते टाइम हमारे चेहरों पर थकावट की कोई शिकन नहीं थी। पिछली यात्रा तो आप पढ़ ही चुके हैं, आइए आपको आगे की यात्रा की ओर ले चलते हैं।

(राइटर दुनिया के पहले जर्नलिस्ट हैं, जो अंटार्कटिका मिशन में शामिल हुए थे और उन्होंने वहां से रिपोर्टिंग की थी। )

लगभग आठ बजे हम नामचे बाजार पहुंचे। रूकना उसी स्नोलैण्ड टी हाऊस में था। जहां हम एवरेस्ट की ओर जाते समय रूके थे। होटल की मालकिन सरिता देवी ने हमेशा की तरह स्नेहिल मुस्कान के साथ हमारा स्वागत किया। गर्म चाय के बाद हमने पहला काम यह किया कि गर्म पानी से जमकर स्नान किया। नामचे बाजार में सौर ऊर्जा से पानी गर्म करने की सुविधा थी और दिन में शायद धूप अच्छी रही होगी।

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इसीलिए नौ बजे रात तक भी पानी खूब गर्म था। सरिता देवी ने हमें आज इस बात की भी छूट दे दी थी कि हमें खाना आठ बजे बाद भी मिल सकता था। इसलिए नहा धो कर तरोताजा होकर हम लोग डाइनिंग हाल में पहुंचे और मनपसंद खाना खा कर पूरी तरह से तृप्ति प्राप्त करने के बाद ही वहां से उठे। नवांग और ताशी नामचे में अपने मित्रों के साथ खाना खाने के लिए कहीं बाहर गए थे। अतः हमने उनका इंतजार नहीं किया। वापस कमरे में पहुंचे। तो अब तक की यात्रा के अनुभवों पर चर्चा शुरू हो गई। सुबह उठने की जल्दी नहीं थी। इसलिए बातचीत का सिलसिला देर रात तक चलता रहा।

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अरूण अपने स्कूली दिनों की स्मृतियों में पहुंच गया। ट्यूशन मास्टर के पैसे से पहली फिल्म देखने और हेमा मालिनी के डांस के लिए एक ही फिल्म को बार-बार देखने के कारण बोर्ड की परीक्षा में 5-7 प्रतिशत नंबर कम आने के अफसोस तक के वो किस्से हमें बड़ी देर तक गुदगुदाते रहे। इस यात्रा में ऐसा पहले भी कई बार हुआ था, जब हम अपनी जिंदगी के पिछले पन्ने एक दूसरे के साथ खोलते रहे थे, लेकिन नामचे बाजार की वो रात इसलिए एक दम अलग थी क्योंकि उस समय हमारे मन में किसी तरह का कोई तनाव नहीं था।

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एवरेस्ट को स्पर्श करने का अपना सपना पूरी तरह पूर्ण हो रहा था। यात्रा का सबसे खतरनाक हिस्सा हम पार कर आए थे और इसके आगे कोई बड़ी मुश्किल नहीं थी। अरूण के रोचक अनुभव और उन्हें सुनाने का उसका अंदाज हमें बड़ी देर तक गुदगुदाता रहा।

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सुबह उठे, तो अरूण की किस्सागोई, गर्म पानी के स्नान, गुनगुनी नींद और आगे की यात्रा को लेकर मन में कोई तनाव बाकी न होने के कारण शरीर भी बहुत हल्का हो गया था। कमरे की खिड़कियों से सुबह की सूर्य किरणों से नहाए हुए हिमालय के रजत शिखर दिख रहे थे। ऊपर मठ से गूंजती घण्टियों की धुन नामचे बाजार की सुबह को अलौकिक बना रही थी।

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नाश्ते के लिए डाइनिंग हाल में पहुंचे। तो वहां गोक्यो लेक की ओर जाने वाले आरोहियों की एक टीम के दो सदस्य हमें मिले। दोनों फ्रांस से आए थे और नामचे बाजार से गोक्यो होकर चो लाॅ पास के रास्ते फैरिचे जाने वाले थे। उनकी टीम के कुछ सदस्य चो लाॅ पास से फैरिचे न आ कर सीधे लोबूचे जाना चाहते थे।

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गोक्यो झीलें एवरेस्ट क्षेत्र में प्रकृति की कलाकारी का एक और अन्यतम नमूना हैं। गोक्यो छह झीलों का एक समूह है। सबसे बड़ी झील थोंक चो है, जो 65 हैक्टयर में फैली है। लेकिन मुख्य झील गोक्यो चो या दूधपोखरी झील है। जो लगभग 43 हैक्टेयर की है। इसी झील के पूर्वी किनारे में गोक्यो गांव है, जो स्थाई बस्ती नहीं है। केवल टूरिस्ट सीजन में यहां बसासत रहती है। ज्यादातर घर टी हाऊस या होटल हैं। अन्य झीलों में नोंगजुम्पा चो 14 हैक्टेयर और ज्ञा जुम्पा 29 हैक्टयर में फैली है।

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तंजुंग चो का क्षेत्रफल करीब 17 हैक्टयर है। यह सभी झीलें एक दूसरे से जुड़ी हैं। कहीं सीधे और कहीं भूगर्भीय रूप से। गोक्यो झीलें एवरेस्ट क्षेत्र में नेपाल के सबसे बड़े ग्लेशियरों में से एक नोंगजुम्पा ग्लेशियर से सिंचित होती हैं। यह ग्लेशियर दूधकोशी के प्रमुख स्रोतों में भी एक है। तुजों ओर लोंगबंगा झीलें भी इसी क्षेत्र के पानी को दूधकोशी तक पहुंचाती हैं। कुल मिलाकर इलाके की यह सारी 19 झीलें भूगर्भीय रूप से एक दूसरे से जुड़ कर इस इलाके में एक अति संवेदनशील जलीय इको सिस्टम का हिस्सा बनती हैं।

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गोक्यो पड़ाव 4790 मीटर पर स्थित है। गांव के एक सिरे पर 5330 मीटर ऊंची गोक्यो री चोटी है। गोक्यो री शिखर से एवरेस्ट का अद्भुत नजारा दिखता है। लोत्से, नूप्त्से, अमा देवलम, थाम शेरकू, मकालू और चो ओयू जैसे शिखरों का भी यहां से विहंगम दृश्य नजर आता है। बहुत से आरोही एवरेस्ट से लौटते समय लोबूचे या फैरिचे से गोक्यो होते हुए नामचे बाजार आते हैं। इसके लिए 5367 मीटर ऊंचे चो लाॅ पास को पार करना होता है।

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एक मार्ग पुंगी थांगा से होकर भी है, जो था कांग होकर जाता है। नामचे से फोर्से, डोल और माचरमा होकर गोक्यो पहुंचा जाता है। पूरा मार्ग रंग बिरंगे बुरांश, भोज (वर्च) वृक्षों और जूनिपर की झाड़ियों से भरा है। गोक्यो बहुत सुंदर स्थान है, लेकिन 1995 में यहां एक बड़ा एवलांच आया था। जिसमें 42 लोग मारे गए जिनमें 24 स्थानीय थे।

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बहरहाल नामचे बाजार में सुबह कुछ खरीददारी करके हम आगे जाने की तैयारी करने लगे। नामचे में इन दिनों ज्यादा भीड़ नहीं थी। ज्यादातर दल और घुमक्कड़ उपर एवरेस्ट की ओर थे। वापसी का सीजन अभी आठ दस दिन दूर था और नीचे से आने वालों की संख्या भी कम होती जा रही थी। इसलिए नामचे बाजार के सारे दुकानदार व्यापार से ज्यादा आराम कर रहे थे। नामचे में ज्यादातर दुकानें इस तरह बनी हैं कि दुकान के पिछले भाग में या ऊपर के हिस्से को घर के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। इससे महिलाओं के लिए घर के साथ कारोबार संभालना भी आसान हो जाता है।

आगे की स्लाइड में जानिएक्या खरीदने की इच्छा हुई थी यात्रा में

नामचे बाजार की मुस्कारती महिला कारोबारियों के लिए वह सुबह रोज जैसी ही थी। कुछ छोटे-छोटे तसलों में कपड़े धो रहीं थी और कुछ ऊन के साथ कारीगरी में जुटी थीं। कुछ छोटे-छोटे झुण्डों में गप लड़ाती भी दिख रही थीं। मगर जैसे ही हम किसी दुकान के अंदर घुसते वैसे ही दुकान की मालकिन सब छोड़ कर दुकान में हाजिर दिखती थी।

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हमने अपने लिए कुछ स्मृति चिन्ह खरीदे। राजेंद्र की इच्छा थी कि वो अपने संग्रह के लिए यहां से याक और ज्यो (याक जैसा भारवाही जो याक और गाय का संकर होता है) के गले में बांधी जाने वाली एक घंटी खरीदना चाहता था। हमने कई दुकानों में मोलभाव किया मगर दाम बहुत अधिक थे। अरूण की व्यवहारिकता भी कुछ काम नहीं आई।

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नवांग की राय थी कि यह घंटियां हमें लुकला या काठमाण्डू में बहुत कम दाम में मिल जाएंगी। इस सलाह के बाद हमने नामचे से घंटी खरीदने का इरादा छोड़ दिया। चलते वक्त नामचे के एकमात्र फोटो स्टूडियो में हमने यादगार के लिए तस्वीर खिंचवाई, मगर उस समय वो ट्रांस्फर नहीं हो पाईं। हमने पैसे चुकाकर अपनी मेल आई डी फोटो स्टूडियो मालिक को दी, उसने हमसे वायदा किया कि वह कम्प्यूटर ठीक होते ही हमारी फोटो हमें भेज देगा और कुछ दिन बाद उसका वायदा पूरा भी हो गया।

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हमारी तस्वीरें हमें मिल गईं। नामचे बाजार की एक अलमस्त सुबह के दोपहर से मिलन से पहले ही हम नामचे बाजार से विदाई ले रहे थे। प्रवेश द्वार के थोड़ा आगे एक बड़ा सा मोड़ आया और नामचे बाजार का समूचा आकार उसके पीछे ओझल हो गया। नाटक की यवनिका के पतन की तरह सब कुछ एक पहाड़ी के पीछे छिप गया।

गोविंद पंत राजू

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