लौटते हुए हमने फाकडिंग में सजोई न भूलने वाली अक्षुण स्मृतियां, जानें शेरपा लॉज की खूबियां

Update:2017-01-12 16:30 IST

Govind Pant Raju

लखनऊ: जैसे-जैसे हम एवरेस्ट से वापस आ रहे थे रास्ते का रोमांच, उतना ही था, जितना जाते टाइम हमारे चेहरों पर थकावट की कोई शिकन नहीं थी। पिछली यात्रा तो आप पढ़ ही चुके हैं, आइए आपको आगे की यात्रा की ओर ले चलते हैं।

(राइटर दुनिया के पहले जर्नलिस्ट हैं, जो अंटार्कटिका मिशन में शामिल हुए थे और उन्होंने वहां से रिपोर्टिंग की थी। )

फाकडिंग में हमारी शाम बहुत यादगार रही। देर रात तक बंसती हीरानंदानी अपने अनुभव हमारे साथ बांटती रहीं। वे कहती थीं कि अगर पार्वती के पति ने उस समय मेरी मदद नहीं की होती, तो शायद मेरा पर्वतारोहण का शौक ही खत्म हो गया होता। मैं सोच रहा था कि पार्वती के पति ने नेपाल के शेरपाओं की परंपरा को ही प्रदर्शित किया था। अचानक मुझे शेरपा सुंग्दोरे का स्मरण हो आया।

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1989 में पांच बार एवरेस्ट आरोहण का रिकॉर्ड बना चुके पेंगबोचे गांव के इस शेरपा ने 1979 में अपने पहले सफल एवरेस्ट आरोहण के दौरान शिखर से वापसी के समय हालत बिगड़ने पर अपनी मृतप्राय महिला पर्वतारोही साथी हैनोल्ट स्मेट्ज को पांचवे कैंप से कुछ ऊपर अकेला छोड़ देने के बजाय रात भर वहीं रूकने का निर्णय किया। जबकि स्मेट्ज की हालत इतनी खराब थी कि कुछ ही देर में उनकी मौत हो गई। लेकिन सुंग्दोरे ने फिर भी साथ नहीं छोड़ा।

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बाद में फ्राॅसबइट के कारण सुंग्दोरे की अगुलियां और पैर का पंजा सदा के लिए खराब हो गया था। लेकिन इसके बाद भी सुंग्दोरे ने 4 बार और एवरेस्ट पर सफल आरोहण कर उस समय सबसे अधिक बार एवरेस्ट आरोहण करने का कीर्तिमान स्थापित किया।

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1989 में अपने गांव में एक छोटे से नाले में गिर कर मृत्यु होने के समय तक सबसे अधिक 5 बार एवरेस्ट आरोहण का रिकॉर्ड सुंग्दोरे के ही नाम था। कुछ वर्ष बाद स्मेट्ज का शव एवरेस्ट से नीचे लाने के लिए 1984 में आयोजित अभियान के दो सदस्यों इंस्पेक्टर योगेन्द्र बहादुर थापा और आंग दोरजी शेरपा की एक दुर्घटना में मौत हो गई और वह अभियान रद्द कर दिया गया।

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फाइडिंग में हमें मनपसंद खाना भी मिला था और गर्मागर्म बिस्तर भी। मोटे थर्मल कम्बलों में हमें बढ़िया नींद आई, मगर सुबह जब नींद टूटी। तो पता चला कि रात भर वर्षा होती रही थी और हमारे सामने की पहाड़ियों पर ताजा हिमपात भी हो चुका था और हल्की-हल्की सफेदी भी साफ दिख रही थी। हमें पार्वती दीदी का अतिथ्य छोड़ कर आगे रवाना होना था। इसलिए हमने खाने-पीने का बचा हुआ सामान अपने दो स्थानीय साथियों सौंप दिया और दीदी और उनकी पूरी टीम से विदाई लेकर लुकला की ओर चल पड़े।

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हल्की बूंदाबादी अभी भी चल रही थी, हम रास्ते के पत्थरों की फिसलन और कीचड़ से बचते बचाते हुए आगे बढ़ रहे थे। रास्ते में जहां-जहां पर मणी वाल (ऐसी दीवारें जिन पर पत्थरों में उकेर कर बौद्ध मंत्र लिखे होते हैं) थीं, वो सब बर्फ से घुल कर और चमकदार हो गई थीं। उन पर लिखे मंत्र साफ होकर अधिक आकर्षक दिखने लगे थे।

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एवरेस्ट अभियान में हमारी पैदल यात्रा आज अंतिम दिन था। फाकडिंग से लुकला के बीच का मार्ग बहुत अच्छा है। अब तो इस इलाके में मोटर सड़क का भी काम शुरू हो रहा है। लुकला से कुछ किलोमीटर आगे तक सड़क का काम शुरूआती चरण में है, जो फाकडिंग तक होना है। इस पूरे इलाके में थोड़ी-थोड़ी दूरी पर गांव हैं। कहीं-कहीं टी हाउस या होटल आदि भी बने हुए हैं और सोलखुम्भू इलाके की आबादी का बड़ा हिस्सा इसी इलाके में बसता है। इलाके के गांवों में सब्जियों की खेती होती है।

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थोड़े समय के टूरिस्ट सीजन के दौरान इन सब्जियों की खपत भी स्थानीय स्तर पर हो जाती है। सगरमाथा नेशनल पार्क के प्रतिबन्धों के कारण पशु पालन की कठिनाइयां बढ़ती जा रही हैं। गैस का दाम तो कम है। मगर ढुलाई बहुत महंगी है। लेकिन लोग किसी न किसी रूप से पर्यटन से जुड़ कर अपना कष्ट पूर्ण जीवन शांति के साथ जी रहे हैं। जहां स्कूली शिक्षा का विस्तार एडमंड हिलेरी के स्कूलों के साथ शुरू हुआ था और अब भी स्कूली शिक्षा विदेशी स्वयंसेवी संगठनों पर ही अधिक निर्भर है।

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2015 के भूकंप ने भी स्कूलों को बहुत नुकसान पहुंचाया था। जो धीरे-धीरे अब पुनर्निर्मित हो रहे हैं। लेकिन इस इलाके में बिजली की उपलब्धता दिखाई ठीक-ठाक देती है। कई स्थानों पर छोटे माइक्रो हाइडिल प्रोजेक्ट बने हैं, जो ज्यादातर विदेशी सहयोग से बने हैं। पाइपों के जरिए पानी के प्रवाह को इन बिजलीघरों तक लाया जाता है और बनने वाली बिजली स्थानीय स्तर पर ही काम में आ जाती है, खास कर टी हाऊस और होटलों में।

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रास्ते में हमें खाना खाने के लिए एक स्थान पर रूकना पड़ा क्योंकि वर्षा तेज होने लगी थी। वहां पर ऐसे स्प्रिंकलरों के जरिए हमने सब्जियों के खेत में सिंचाई होती देखी। जो पानी के प्राकृतिक प्रवाह से चल रहे थे। लाही, सलाद पत्ता, पत्ता गोभी जैसी सब्जियां इन खेतों में जहां तहां दिख रही थीं। कहीं वहीं सेव और आडू के इक्का दुक्का पेड़ भी मौजूद थे।

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चार बजे के आस पास हम लुकला की आखिरी चढ़ाई पार करके बाजार में पहुंच गए थे। बाजार के प्रवेश द्वार पर पासांग लामू शेरपा की स्मृति में एक गेट बना हुआ है। पासांग लामू नेपाल की प्रथम एवरेस्ट विजेता महिला थीं। 22 अप्रैल 1993 को उन्होने 5 पुरूष शेरपाओं के साथ एवरेस्ट पर सफल आरोहण किया। लेकिन वापसी में 22 अप्रैल को ही एक दुर्घटना में उनका देहांत हो गया। पासांग लामू को नेपाल का सर्वोच्च सम्मान ‘नेपाल तारा’ दिया गया। उनकी आमदकद प्रतिमा की भी स्थापना की गई।

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उनके नाम पर 7315 मीटर ऊंचे जसम्बा शिखर को पासांग लामू पीक का नाम दिया गया। गेहूं की एक नई प्रजाति को पासांग लामू व्हीट का नाम दिया गया। उन पर एक डाक टिकट भी जारी हुआ और त्रिशूली राज मार्ग को भी उनका नाम मिला। एवरेस्ट में अंतिम सांस लेकर वे नेपाल की महिला पर्वतारोही और महिलाओं की प्रेरणास्रोत बन कर अमर हो गईं।

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लुकला में बहुत अच्छे स्तर के होटल भी हैं, जो काठमाण्डू से संचालित होते हैं। बड़े अभियान दल इनका इस्तेमाल करते हैं और अमीर घुमक्कड़ भी। कभी-कभार फिल्मों के निर्माता भी अपनी टीमें लेकर यहां आते हैं। बाजार में हम दो चार तस्वीरें खींच ही सके थे कि फिर बारिश की झड़ी शुरू हो गई। हमने तेजी से अपने होटल की राह पकड़ी। ‘शेरपा लॉज’ नाम के इसी टी हाऊस में हमने जाते समय चाय पी थी और नाश्ता किया था।

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एवरेस्ट क्षेत्र के दूसरे ज्यादातर टी हाऊसों की तरह ही इसका संचालन भी एक अध्यवसायी महिला कर रही हैं। मालकिन सिरी के पति माउण्टेनियर थे। अब काठमाण्डू में रहते हैं। दो बच्चे हैं। एक बेटी काठमाण्डू के एक बड़े स्कूल में पढ़ती है। इंटर की परीक्षा देकर छुट्टियों में मां का हाथ बंटाने लुकला आई है। भाई काठमाण्डू में ही पढ़ाई कर रहा है। पासांग डाक्टर बन अपनी मां का सपना पूरा करना चाहती है। मगर यहां लुकला में अपने होटल में वह वेटर भी बन जाती है, बार टेंडर भी और मैनेजर भी। कई भाषाओं पर उसकी पकड़ है और उसे कोई भी काम करने में किसी तरह की झिझक नहीं है। यही गुण शेरपाओं की खूबी है। इन दिनों पासांग के पास बहुत काम है।

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शेरपा लॉज में लगभग 50-60 पर्यटक रूके हैं। सबके भोजन की पसंद अलग-अलग है। मेन्यू में बहुत कुछ है और यहां लुकला में उसमें से ज्यादातर चीजें उपलब्ध हैं। बार का काम भी शाम को बहुत बढ़ जाता है। फिर शेरपा लॉज के जिम्मे डाक का काम भी है और कुछ विमान सेवाओं के लिए टिकट भी यहीं मिलते हैं। कारगो का काम भी इन दिनों खूूब होता है। शेरपा लाॅज की खूबी यह है कि इसका प्रवेश द्वार लुकला एयर पोर्ट के मुख्य गेट से चार मीटर से भी कम दूरी पर है। सुबह काठमाण्डू से पहली फ्लाइट के आने के साथ-साथ लुकला की जिंदगी में हलचल शुरू हो जाती है और दिन में दो ढाई बजे तक अंतिम उड़ान ही वापसी तक यहां के लोगों का काम बहुत बढ़ जाता है। उसके बाद शाम सात बजे तक उपर से आए या यहां रूके लोगों का खाना-पीना निपटने के साथ ही फिर सब कुछ शांत हो जाता है।

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हमारी उड़ान सुबह 7 बजे की थी मगर हम खाना खाने के बाद भी गर्म डाइनिंग हाल में बैठ कर टीवी पर युरोपियन फुटबाल का मजा लेते रहे। सुबह साढ़े पांच बजे हम नाश्ता करके तैयार हो चुके थे। सात बजे से जहाजों का आना शुरू हो गया क्योंकि मौसम कुछ ठीक हो गया था। सुरक्षा जांच के बाद 9 बजे हम गोमा एयर के 15 सीटर जहाज में काठमाण्डू के लिए उड़ रहे थे। रात सूर्या और दिनकर हमसे विदा ले चुके थे। वे आज अपने गांवों में पहुंच जाएंगे। काठमाण्डू पहुंच कर ताशी और नवांग भी अपनी राह पकड़ लेंगे।

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एक दो दिन में दिल्ली पहुंच कर हम तीनों राजेंद्र, अरूण और मैं भी अलग-अलग दिशाओं में निकल पड़ेंगे। एवरेस्ट ने हम सातों को जोड़ा था और अब एवरेस्ट की स्मृतियों हमें बांधे रहेंगी। नेपाल के पश्चिमी इलाके की पहाड़ियों में हमारा जहाज एवरेस्ट की ऊंचाइयों का मुकाबला कर रहा था और नीचे दूर कहीं एवरेस्ट का पानी एवरेस्ट की हस्ती बखान करता नदियों की शक्ल में बहता जा रहा था। चरैवति, चरैवति!

गोविंद पंत राजू

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