अगर आप भी जा रहे हैं एवरेस्ट की ख़ूबसूरती का लेने मजा, तो जरूर रखें 'लू प्रोटोकॉल' का ख्याल
लखनऊ: अपने अब तक के पर्वतारोहण के बहुत शुरूआती अनुभवों के सिवा हमने हमेशा इस बात का ध्यान रखा है कि हम प्रकृति की गोद में जाकर उसका आनंद तो लें, लेकिन अपने प्रयासों में वहां किसी प्रकार की गंदगी न होने दें। हालांकि भारत के अनेक प्राकृतिक पर्यटन स्थलों और ट्रैकिंग के लोकप्रिय इलाकों में प्रकृति को स्वच्छ बनाए रखने पर बहुत ज्यादा संवेदनशील रवैया नहीं अपनाया जाता। भीड़ के कारण भी प्रकृति पर दबाव बढ़ रहा है और नतीजा प्रकृति की दुर्गति के रूप में दिखता है।
(राइटर दुनिया के पहले जर्नलिस्ट हैं, जो अंटार्कटिका मिशन में शामिल हुए थे और उन्होंने वहां से रिपोर्टिंग की थी। )
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राजेंद्र भी हिमालय में गंदगी करने का घोर विरोधी रहा है और अरूण भी अपने अनेक साझा अभियानों में हम तीनों ने इस बात का हमेशा प्रमुख रूप से ध्यान रखा है। संयोग से इस एवरेस्ट अभियान के हमारे दोनों अन्य साथी नवांग और ताशी भी हिमालय की गंदगी को लेकर हमारी तरह ही संवेदनशील थे।
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इसलिए एक टीम के रूप में भी हम खुद को हिमालय से दोस्ती करने का सुपात्र मानने का अधिकारी समझ सकते थे। वैसे भी हिमालय और एवरेस्ट क्षेत्र की गंदगी पर्वतारोहियों को अक्सर अप्रिय लगती रही है।
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पश्चिमी पर्वतारोही भी एवरेस्ट क्षेत्र में मानव मल मूत्र की समस्या से बहुत विचलित हैं। ज्यादातर पश्चिमी देशों में प्राकृतिक सौंदर्य वाले इलाकों में मलमूत्र त्याग के लिए ‘लू प्रोटोकाॅल’ को अपनाया जाता है। इसके तहत मलमूत्र विसर्जन के लिए विशेष व्यवस्थाएं हैं। इसी तरह दुनिया के सबसे साफ महाद्वीप अंटार्कटिका में अंटार्कटिका संधि के तहत मलमूत्र त्याग के लिए विशेष नियम बने हैं।
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इनके तहत वहां जाने वाले सभी लोगों को मल मूत्र त्याग के लिए विशेष प्रकार के शौचालयों का इस्तेमाल करना होता है और ऐसे हर टाॅयलेट में कुछ लोगों के इस्तेमाल के बाद जमा मल को विशेष प्रक्रिया के अनुसार जला दिया जाता है। इस राख और मूत्र को विशेष कंटेनरों में भर कर वापस लाया जाता है और 60 डिग्री अक्षांश से ऊपर आकर समुद्र में डाला जाता है। लेकिन एवरेस्ट में बेस कैंप और उससे ऊपर मल त्याग के लिए नियम बहुत स्पष्ट नहीं हैं।
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कुछ वर्षों से अब बेस कैंप में स्थापित होने वाले शिविरों में दल की सदस्य संख्या के मुताबिक 2-3 या उससे अधिक टायलेट टेंट भी लगाए जाने लगे हैं। इन टेंट्स में कमोड को एक खास तरह के ड्रम से जोड़ दिया जाता है और अभियान द्वारा पूरा होने के बाद ये ड्रम वापस नीचे लाये जाते हैं।
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ऊपर के कैंपों के लिए भी बहुत से अभियान दल अब ह्यूमन वेस्ट को वापस लाने के लिए विशेष प्रकार के ‘वेस्टटाप बैेग्स’ का इस्तेमाल करते हैं। कुछ पर्वतारोही दल डिस्पोजल टेवल टायलेट बैग्स का भी इस्तेमाल करते हैं। लेकिन इस सब के बावजूद एवरेस्ट पर मानव मल मूत्र के कारण प्रदूषण बढ़ रहा है, यह बात सभी मानते हैं।
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हालांकि बेस कैंप से ऊपर ह्यूमन वेस्ट के लिए अभी भी स्पष्ट नियम नहीं बने हैं, लेकिन सामान्य कचरे के लिए नेपाल सरकार ने कुछ नियम जरूर बना दिए हैं। इनके तहत एवरेस्ट पर किसी भी अभियान की इजाजत के साथ ही 4000 डालर की राशि भी स्वच्छता के नाम पर जमा कराई जाती है। यदि अभियान दल सारा कचरा वापस नीचे ले आता है, तो उसे यह रकम वापस कर दी जाती है।
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लेकिन व्यवहारिक रूप में यह व्यवस्था भी बहुत कारगर नहीं है क्योंकि अनेक बार व्यावसायिक नजरिए से एवरेस्ट आरोहण करने वाले दल सफलता के बाद इन नियमों की परवाह नहीं करते। वैसे अब नए नियम के तहत एवरेस्ट आरोहण करने वाले हर सदस्य को 8 किलो कूड़ा और निष्प्रयोज्य सामग्री बेस कैंप तक वापस लाना अनिवार्य कर दिया गया है।
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एवरेस्ट में प्रदूषण के बारे में एक सकारात्मक पक्ष यह है कि स्थानीय शेरपा व अन्य भारवाही इसके प्रति जागरूक भी हैं और संवेदनशील भी। सगरमाथा नेशनल पार्क के पर्यावरण नियमों के कारण भी यह जागरूकता बढ़ी है। स्थानीय पड़ावों में जहां नियमित शौचालय नहीं हैं। वहां भी खास तरह के शुष्क शौचालय बनाए गए हैं, जिनमें कमोड के छेद के नीचे एक गहरा खुला गढ्ढा होता है।
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कमोड के बड़े छेद से मलमूत्र काफी नीचे गिर जाता है और फिर इसके ऊपर भूसा, सूखी घास या लकड़ी के छिलके आदि डाल दिए जाते हैं और यह धीरे-धीरे खाद में बदलता रहता है।
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बहरहाल तमाम समस्याओं के बावजूद एवरेस्ट यात्रा मार्ग काफी साफ-सुथरा है। पर्वतारोहियों की भीड़ के बावजूद इस तरह की सफाई एक सुखद अहसास देती है। हम सभी सहयात्री इसी अहसास का आनंद लेते हुए धीरे-धीरे आगे बढ़ते जा रहे थे। राजेंद्र का दर्द अब भी असह्य था। लेकिन क्योंकि आज हम धीरे-धीरे नीचे उतरते जा रहे थे। इसलिए मनोवैज्ञानिक तौर पर यह अहसास ही उसे काफी राहत दे रहा था। अरूण को भी इस वजह से जोश था कि एक दो दिन में हम फिर से ऐसी जगह पर पहुंचने वाले थे। जहां से हम सबसे मोबाइल संपर्क में हो सकते थे।
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नवांग को भी काठमांडू में अपने परिवार से मिलने की आतुरता थी और ताशी इसलिए उतावला हो रहा था कि काठमाडू पहुंचते ही वो अपने मोबाइल को ठीक करवा सकेगा। लोबुचे तक पहुंचने में हमें ज्यादा वक्त नहीं लगा क्योंकि ठंड के कारण हमारी चाल तेज थी और घने बादलों के कारण धूप की भी समस्या नहीं हो रही थी। हमारी निगाहें जमीन पर थीं और उस जमीन पर बिखरे हुए थे एवरेस्ट के दीवानों और प्रकृति प्रेमी आरोहियों के अनगिनत पद चिन्ह, जो हमें भी लगातार प्रेरित करते जा रहे थे।
गोविंद पंत राजू