अनोखा SUNRISE देखने के लिए लगाई हमने अर्जी, पर जिद्दी मौसम ने चलाई अपनी ही मर्जी

Update: 2016-10-23 09:43 GMT

Govind Pant Raju

लखनऊ: गोरखशेप की वह रात अंतहीन होती जा रही थी। न हम सो पा रहे थे और न स्लीपिंग बैग से बाहर आने का मन हो रहा था। पूरी तरह बंद और दोहरी दीवारों वाले कमरे में भी स्लीपिंग बैग से बाहर निकलते ही मुंह ठंड से जमता हुआ लग रहा था। चार बजे किसी तरह उठ कर कमरे के बाहर के गलियारे की खिड़की से बाहर देखने की कोशिश की, तो कुछ भी दिखाई नही दिया। नीचे जाकर देखा, तो वहां भी वही हाल था।

(राइटर दुनिया के पहले जर्नलिस्ट हैं, जो अंटार्कटिका मिशन में शामिल हुए थे और उन्होंने वहां से रिपोर्टिंग की थी।)

किचन में अभी कोई हलचल नहीं थी। मुख्य दरवाजा खोल कर मैं बाहर आया, तो चारों ओर बादल भरे हुए थे। नीचे जमीन पर हल्की सफेदी जमी हुई थी यानी रात में थोड़ी बर्फ गिर चुकी थी। मौसम का यह रूप हमारे लिए बहुत निराशाजनक था। दरवाजा बंद कर मैं वापस अपने कमरे में आ गया और फिर से स्लीपिंग बैग में घुस गया।

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थोड़ी ही देर में गलियारे में खटपट शुरू हो गई। इसका मतलब था कि काला पत्थर जाने वाले दूसरे लोग भी जगने लगे थे। पांच बजने के बाद हम लोग भी उठ कर तैयार हो गए। मगर मौसम बहुत खराब हो चुका था। बाहर निकलना भी मुश्किल था, मगर हमने सोचा कि हम ऐसे ही मौसम में ऊपर काला पत्थर की ओर रवाना हो जाएं। लेकिन टी हाऊस में मौजूद सभी लोग इस बात का समर्थन नहीं कर रहे थे।

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इसमें दो तरह के रिस्क थे। पहला यह कि अगर हम ऐसे मौसम में ऊपर काला पत्थर तक चले भी जाएं, तो वहां जाकर हमें कुछ भी दिखने वाला नहीं था क्योंकि नीचे जमीन की सतह तक बिछ चुके बादलों के कारण चार फिट से ज्यादा दूर कुछ दिखाई ही नहीं दे रहा था। एकदम व्हाइट आउट की सी स्थिति थी। इस लिए ऊपर पहुंच कर भी हमें कुछ दिखने वाला नहीं था।

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दूसरा खतरा यह था कि अगर हमारे ऊपर पहुंचने के बाद मौसम और खराब हो जाता, तो हम बुरी तरह फंस सकते थे। इसलिए नवांग और ताशी से सलाह करने के बाद हमने तय किया कि जब अभी ऊपर जा कर सूर्योदय दिखना ही नहीं है, तो हमें मौसम सुधरने का इंतजार करना चाहिए। इसलिए हमने तय किया कि हम मौसम ठीक होने तक टी हाऊस में ही रूकेंगे। अरूण ने डाइनिंग हाॅल में हमारी पुरानी वाली सीट पर फिर कब्जा जमा लिया था। करीब दो घंटे तक वहीं बैठकर हम खिड़की के बाहर मौसम के बिगड़ते मिजाज को इस उम्मीद से देखते रहे कि शायद मौसम हम पर कुछ दयालु हो जाए।

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राजेंद्र ने कुछ तस्वीरें भी खींची और मैं लगातार चाय पीता रहा। करीब साढ़े आठ बजे तक यह लगने लगा था कि मौसम ठीक होने वाला नहीं। डाइनिंग हाॅल में बैठे एक जापानी दल के लोग काला पत्थर को लेकर जारी मौसम पूर्वानुमान की रिपोर्ट देख रहे थे, जिसमें अगले तीन दिन के बारे में मौसम खराब रहने की सूचना थी। हमने जापानी दल के गाइड से पूछा तो उसने बताया कि मौसम खराब रहने की जानकारी के बाद जापानी दल ने वापस लौटने का मन बना लिया है क्योंकि इस दल के दो बुजुर्ग सदस्यों की तबीयत खराब हो गई है। उन्हें यहां से हेलीकॉप्टर के जरिए लुकला वापस भेजा जा रहा है।

यह जानकारी भी उत्साह बढ़ाने के बजाय हमारे लिए हतोत्साहित करने वाली ही थी। साढ़े आठ बजे तक भी मौसम में सुधार नहीं हुआ। तब हमने आपस में परामर्श करके यह तय किया कि हम अभी और एक घंटे तक रूक कर मौसम ठीक होने का इंतजार करते रहेंगे। अगर मौसम ठीक हो जाता है तो हम ऊपर काला पत्थर जाएंगे और वहां से वापस लौट कर रात को लोबूचे में रूकेंगे। लेकिन अगर मौसम ठीक नहीं होता, तो हम एक घंटे बाद लोबूचे के लिए रवाना हो जाएंगे। ऐसी स्थिति में हम रात तक फैरिचे पहुंचना चाहते थे।

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इस बीच जापानी दल की परेशानी काफी बढ़ गई थी क्योंकि उनकी टीम के सदस्यों की तबीयत लगातार खराब होती जा रही थी और बीमारों को नीचे भेजने के लिए हेलीकॉप्टर इतने खराब मौसम में आ नहीं पा रहे थे। खराब मौसम के कारण गोरखशेप में मौजूद कई अन्य दल भी नीचे लौटने की तैयारियां करने लगे थे। वैसे हमारे रकसैक तो पहले से ही पैक हो चुके थे, मगर हमने यह उम्मीद अभी भी नहीं छोड़ी थी कि मौसम जल्द ही ठीक हो जाएगा। देखते ही देखते साढ़े नौ भी बज गए।

मैने राजेंद्र की ओर देखा। अपनी तमाम पीड़ाओं के बावजूद उसका हौसला अब भी बरकरार था। दूसरी ओर अरूण की बेचैनी इस वजह से बढ़ती जा रही थी कि कई दिन से सही मोबाइल सिग्नल न मिलने के कारण उसका घर वालों से ठीक-ठाक संपर्क नहीं हो पा रहा था। इसलिए वह जल्द से जल्द ऐसे पड़ाव तक पहुंचना चाहता था जहां नेपाल की मोबाइल सेवा ‘एन सेल’ के सिम कार्ड को रिचार्ज करवाया जा सके।

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ताशी तटस्थ सा था जबकि नवांग का कहना था कि मौसम अब अगले कुछ दिन तक सुधरने वाला नहीं। इसलिए हमने काफी विचार-विमर्श के बाद यह तय किया कि मौसम की अनिश्चितता के कारण आज अब ऊपर गोरखशेप तक जाने की कोई भी उपयोगिता नहीं है। एक और दिन गोरखशेप में एक कर मौसम ठीक होने का इंतजार करना भी बेकार था क्योंकि मौसम कल ठीक हो जाएगा, इसकी भी कोई गारंटी नहीं थी और मौसम पूर्वानुमान तथा स्थानीय लोगों का पूर्व अनुभव भी इसका समर्थन नहीं कर रहा था।

लुकला से आगे के हमारे कार्यक्रम की पहले से तय तारीखों के कारण हम और एक दिन से ज्यादा इस इलाके में रूक भी नहीं सकते थे। इसलिए हमने तय कर लिया कि अब एवरेस्ट के आंगन से वापसी के सिवा और कोई विकल्प हमारे पास बचा नहीं है।

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यह फैसला थोड़ा कड़वा फैसला था, मगर पृकृति का आनंद भी तभी लिया जा सकता है जब पृकृति की सहमति हो। हमें भी भारी मन से यह स्वीकार करना पड़ रहा था कि काला पत्थर से एवरेस्ट दरबार की सूर्योदय के साथ होने वाली अठखेलियों को फिर से देख पाना इस बार हमारे हिस्से में नहीं था। इसलिए गोरखशेप छोड़ कर निचले पड़ावों की ओर जाने वाले दूसरे दलों की तरह हमने भी नीचे की ओर जाने का फैसला कर लिया।

गोरखशेप की आत्मीयता को, पवित्रता को और वहां होकर आने जाने वाले एवरेस्ट विजेताओं की अनुभूतियों को अपने भीतर आत्मसात करके हमने लोबूचे की राह पकड़ ली।

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अब तक मौसम और खराब हो चुका था। हल्का हिमपात होने लगा था और हमारे पावों के निशान जमीन पर बिछी बर्फ की पतली तह पर साफ साफ छपने लगे थे। विजिविलिटी एकदम कम हो गई थी। बस हम एक-दूसरे के बूटों के निशान देखते हुए कदम आगे बढ़ा रहे थे। बार-बार बर्फ के फाहे हमारे चश्मों में चिपक जाते और बार-बार हमें अपने कपड़ों को झाड़ना पड़ता तथा अपने चश्मों को साफ करना पड़ता।

मौसम अब उतना ही भारी हो चुका था, जितने भारी उस वक्त हमारे मन थे। मगर मौसम अपने मर्जी से चल रहा था और हम मौसम की मर्जी से।

गोविंद पंत राजू

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