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आगरा: रमजान का पाक महीना शुरु हो चुका है। एक तरफ जहां पश्चिमी यूपी में आए दिन छोटी-मोटी बातों को लेकर सांप्रदायिक झगड़े हो रहे हैं, वहीं आगरा की एक दरगाह ने एकता की शानदार मिसाल कायम की है। इस दरगाह में आने वाले ज्यादातर लोग हिंदू हैं उन्होंने साबित कर दिया है कि राम और रहीम में कोई फर्क नहीं है। भले ही भगवान को मानने का तरीका अलग-अलग हो सकता है, लेकिन इन तरीकों की वजह से आपस में झगड़ना ठीक नहीं है। आपसी मेलजोल और एक-दूसरे के मजहब को इज्जत की नजरों से देखने से ही समाज एकजुट हो सकता है।
अनोखे हैं सर्वधर्म समभाव वाले ये बंदे
आगरा के प्रतापपुरा चौराहे पर दरगाह मरकज साबरी में जमकर भीड़ होती है सुलहकुल की नगरी की इस दरगाह में 80 फीसदी हिंदू आते हैं। ये हिंदू जितनी शिद्दत से नवरात्रि के दौरान व्रत रखते हैं, उतनी ही रमजान में रोजे भी रखते हैं। साथ ही वे अपने मुसलमान भाइयों के साथ नमाज पढ़ने में भी वे पीछे नहीं रहते। हर रमजान की 14वीं तारीख को यहां इफ्तार में सिर्फ शाकाहारी व्यंजन बनते हैं। मुसलमान भाइयों को इफ्तार कराने के लिए हिंदू महिलाएं यहां पूड़ी और सब्जी बनाती हैं। दरगाह के सज्जादानशीन पीर अलहाज रमजान अली शाह चिश्ती साबरी का खाना बनाने की जिम्मेदारी सेना से रिटायर्ड सूबेदार रामकिशोर और उनकी पत्नी कामता देवी ने संभाल रखी है।
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कुरान पढ़ाती हैं विजयलक्ष्मी
दरगाह पर परिवार समेत आने वालों में एनके पांडेय भी हैं। उनके परिवार की विजयलक्ष्मी तीन बार पूरी कुरान पढ़ चुकी हैं। वह और गायत्री देवी बीते 25 साल से रोजे भी रख रही हैं। हालांकि यहां नमाज पढ़ने वाली महिलाओं की संख्या कम है। ज्यादातर अभी सीख रही हैं, लेकिन गायत्री, ममता और विजयलक्ष्मी नमाज अदा कर लेती हैं। बाकायदा कुरआन शरीफ की आयतों को बोलते हुए वे नमाज अदा करती हैं।
पीर को नहीं पसंद था मांसाहार
दरगाह की इंतजामिया कमिटी के सदस्य विजय जैन हैं। वह कहते हैं, 'हमारे पीर खुद भी मांसाहार पसंद नहीं करते थे। पर इसके लिए वह किसी को मना नहीं करते थे, लेकिन उनके बाद से भी कभी यहां मांसाहार नहीं किया गया।' विजय, जैन धर्म को मानने वाले हैं, लेकिन वह खुद 25 साल से रोजा रख रहे हैं। रमजान के दौरान उन्हें तसबीह (इबादत की माला) के मनके गिनते हुए अल्लाह का नाम लेते देखा जा सकता है। तमाम हिंदुओं के साथ विजय भी शाम को नमाज अदा करने के बाद इफ्तार में शरीक होते हैं।
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नहीं पूछा जाता यहां किसी का धर्म
कहते हैं भारत की एकता की पूरी दुनिया में मिसालें दी जाती हैं। शायद इसी बात को इस दरगाह पर आने वाले लोग साबित करते हैं। यहां के सज्जादानशीं बताते हैं कि कभी भी किसी आने वाले से ये नहीं पूछा गया कि उसका मजहब क्या है। ज्यादातर हिंदुओं के परिवार यहां आते हैं, खिदमत करते हैं और कई परिवार ऐसे हैं जो नवरात्रि में व्रत और रमजान में एक महीने तक रोजा रखते हैं।
सब्र रखने का माद्दा रोजा से आता है
दरगाह के सज्जादानशीन पीर अलहाज रमजान अली शाह चिश्ती साबरी कहते हैं, 'रोजा रखने से दिल में चमक पैदा होती है और सब्र करने का माद्दा आता है। रोजा का मतलब है बुराई से खुद को बचाना। हर चीज, यहां तक कि नजरों, हाथ और पैर तक का रोजा होता है। यानी इनको नियंत्रित करना ही रोजा होता है।' उन्होंने कहा कि रोजा इफ्तार करते वक्त रंग-बिरंगा लहलहाता गुलशन दिखता है। महसूस होता है कि जैसे गंगा-यमुना का मिलन होता है। वह कहते हैं, 'गुरु वो महान आत्मा है, जो शिष्यों को सत्य के पथ पर ले चले।'
ख्वाहिश का मतलब सौदेबाजी
दरगाह मरकज साबरी में करीब-करीब रोज आने वाले चंद्रमोहन गौड़ के मुताबिक 40 साल पहले बच्चे की चाहत में यहां उन्होंने सिजदा किया था। फिर रोजे रखना और नमाज अदा करनी शुरू की। उनकी पत्नी शैल गौड़ भी नवरात्रि में व्रत रखती हैं तो रमजान में रोजा रखतीं और नमाज पढ़ती हैं। चंद्रमोहन कहते हैं, 'पीर साहब ने कहा था, अगर इबादत के बदले कोई ख्वाहिश ऊपरवाले से की जाएगी, तो वो सौदेबाजी होगी। बिना लालच के इबादत करोगे तो सबकुछ मिलेगा।' इसी फलसफे पर वह और शैल अब तक कायम हैं।
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