लखनऊ: सन संतावन में चमक उठी वो तलवार पुरानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी... इन पंक्तियों से जोश भरने वाली कवियत्री सुभद्रा कुमारी चौहान किसी परिचय की मोहताज नहीं है।भले ही वो हमारे बीच नहीं है, लेकिन उनकी लिखी पंक्तियों से हमारे बीच उनकी उपस्थिति सदैव रहेगी।समय की सीढ़ियों पर चढ़ते जाने कितने वर्ष व्यतीत हो गए। सुभद्रा जी की पूण्यतिथि पर पं. प्रफुल्लचन्द्र ओझा 'मुक्त ने अनुभव को साझआ करते हुए कुछ संस्मरण लिखे है।
अविस्मरणीय यादें
एक दिन अकस्मात् मुझे सुभद्रा बहन का एक पत्र मिला। उन्होंने लिखा था कि पटना विश्वविद्यालय के स्वर्णजयंती समारोह में सम्मिलित होने के लिए मैं पटना आ रही हूँ। ठहरने का प्रबंध तो कहीं हुआ है, लेकिन तुम वहां आकर जरूर मिलो। तुमसे बहुत-सी बातें करनी हैं।इसी आशय का पत्र भाई बच्चन ने भी लिखा था। वह तो हमेशा मेरे ही यहां ठहरते थे, लेकिन इस बार उन्हें यूनिवर्सिटी से अवकाश नहीं मिला था।ना।
यथासमय मैं पहले बच्चन के पास, फिर उन्हें साथ लेकर, सुभद्राजी के यहां पहुंचा। दोनों ने मेरे घर चलने का आग्रह किया। मेरा घर वहां से प्रायः 12 किलोमीटर दूर था। घर में उन दिनों परिवार का कोई व्यक्ति नहीं था। मैं नौसिखिया ड्राइवर किसी तरह गाड़ी चलाकर उनके पास पहुंचा, लेकिन मेरी इन तमाम दलीलों को उन दोनों ने नामंजूर कर दिया। लाचार, मैं उन्हें लेकर घर की ओर चला।घर पहुंचकर वे लोग उतनी ही देर वहां रुके, जितनी देर में मैंने गाड़ी मोड़ी। सुभद्राजी ने घर को प्रणाम किया, बच्चन ने तुलसी की दो पत्तियां तोड़कर मुंह में डालीं, और हम वापस चल पड़े। बिना रोशनी की गाड़ी भगाये जा रहा हूं। मैं इस कदर घबरा गया था कि हर सीटी के बाद एक्सेलेटर पर मेरा पांव कुछ और कस जाता था। ख़ैरियत हुई, बिना किसी दुर्घटना के हम समय पर यूनिवर्सिटी पहुंच गए, और आश्चर्य, मेरा चालान भी नहीं हुआ।उस रात मैं घर नहीं लौटा। आधी रात तक बच्चन और सुभद्राजी के साथ मंच पर बैठा रहा, फिर बच्चन को ट्रेन पर बिठाकर ही मैं वापस लौटा था।
सुभद्राजी से वही मेरी अंतिम भेंट थी। फिर मौत ने उनको हमसे छीन लिया।कुछ लोग संघर्ष करने के लिए ही इस संसार में आते हैं। सुखी, संतुलित जीवन उन्हें रास नहीं आती। सुभद्रा बहन भी इसी श्रेणी की थीं। उन्होंने लम्बे समय तक अभावों से संघर्ष किया, वह आजादी की लड़ाई में जूझती रहीं, परिवार और राजनीति के द्लदल में पड़ी रहीं। जब देश को आजादी मिली, वह चुनाव जीतकर विधान-सभा पहुंचीं। जीवन कुछ व्यवस्थित-संतुलित होने लगा तो एक दिन भोपाल जाते हुए कार-दुर्घटना में उनकी मौत हो गई, और एक संघर्षरत जीवन की कहानी अधूरी रह गयी।
यह विरोधाभास है कि सुभद्राजी सक्रिय राजनीति में रहीं, लेकिन उन्हें प्रसिद्धि साहित्य ने ही दिया। राजनीति में आज उनका कोई नामलेवा भी नहीं है। साहित्य उन्हें आज भी आदर से स्मरण करता है। और मेरा विश्वास है, आगे भी उनकी स्मृति संजोये रहेगा।...