स्वर्ग का तो पता नहीं, लेकिन यहां है जहन्नुम का दरवाजा, आते ही कांप उठेगी रूह
जयपुर:जीवन जीने का मजा तभी आता है जब उस जगह का वातावरण संतुलित और मानव सम्मित हो। बहुत ज्यादा सर्दी या ज्यादा गर्मी जिंदगी को परेशान कर देती है। खासकर ऐसी जगहों पर जीवनयापन करना कठिन होता हैं जहां हमेशा प्राकृतिक विपदाओं का सामना करना पड़े। किसी जगह पर ज़िंदगी के पनपने के लिए गर्मी, सर्दी, हवा, पानी सभी का होना लाज़मी है. बहुत ज़्यादा सर्दी या गर्मी होने पर ज़िंदगी का पनपना लगभग ना के बराबर है. अब इस जगह को जहन्नुम ना कहें तो क्या कहें ।ऐसी ही एक जगह के बारे में बता रहे हैं जिसे दुनिया का जहन्नुम कहा जाता हैं और इस जगह का नाम है दानाकिल डिप्रेशन। ये वो जगह है जिसकी कोख में धरती की तीन कॉन्टिनेंटल प्लेट आपस में टकराती हैं।
पूर्वी अफ्रीका के इथियोपिया में एक जगह ऐसी है जहां आग बरसती है। इसे दुनिया का सबसे गर्म ठिकाना कहा जाता है. इस जगह का नाम है दानाकिल डिप्रेशन। ये वो इलाक़ा है जिसकी कोख में धरती की तीन कॉन्टिनेंटल प्लेट आपस में टकराती हैं। यहां धरती से लावा और एसिड बाहर आते हैं। दानाकिल डिप्रेशन में साल भर औसत तापमान 45 डिग्री सेल्सियस रहता है। इसे इलाके के लोग इसे ‘जहन्नुम का दरवाजा’ भी कहते हैं। यहां जिंदगी के निशान मिले हैं। ये समुद्र की सतह से करीब 330 फुट नीचे है।
यहां दो ऐसे ज्वालामुखी हैं जो अक्सर सक्रिय रहते हैं। इसमें से एक है ‘इरता अले’। इस ज्वालामुखी की चोटी में लावा खौलता रहता है। आस-पास तेजाब के तालाब हैं। जहां से हर समय भाप उठती रहती है। इस ज्वालामुखी के मुहाने को ‘डालोल’ कहते हैं। समुद्र का खारा पानी जब ज्वालामुखी से निकलने वाले खनिजों और लावा के साथ मिलता है, तो कई तरह के चमकीले रंग पैदा करता है। तेजाब के तालाब में जब सल्फर और नमक एक दूसरे के साथ मिलते हैं तो चमकीला पीला रंग दिखाई देता है। इसी तरह जब ये तांबा नमक के साथ मिलता है तो चमकीला फिरोजी रंग तैयार होता है।
साल 2013 से पहले तक दानाकिल के बारे में दुनिया को बहुत ज्यादा मालूम नहीं था। लेकिन साल 2013 में ‘यूरोप्लांट’ की टीम ने इस इलाके में रिसर्च करना शुरू किया। यूरोप्लांट रिसर्च संस्थाओं और कंपनियों का एक संघ है। जिसका काम धरती के ऐसे इलाकों पर तजुर्बे करना है, जिससे मंगल ग्रह पर रिसर्च करने में मदद मिले। इस बारे रिसर्चर्स का मानना है कि इस इलाके तक पहुंचना आसान काम नहीं है। साल 2012 में यूरोप के कुछ रिसर्चर यहां आए थे, लेकिन उन्हें अगवा कर लिया गया था। यहां तक पहुंचने के लिए इस देश के फौजी साथियों की मदद की दरकार होती है।
इस इलाके की हवा में क्लोरीन और हाईट्रोजन सल्फाइड गैस अधिक मात्रा घुली है। इसीलिए यहां आने वाले रिसर्चर्स को गैस मास्क का सहारा लेकर ही आना पड़ता है। एक रिसर्चर के अनुसार ये पता होना बेहद जरूरी है कि किस जगह पर जमीन के भीतर ज्यादा हलचल मची है। गलती से भी अगर उस जगह पर पैर रख दिया या गिर गए तो जलने से आपको कोई नहीं बचा सकता।
रिसर्चर्स ने साल 2013 में यहां काम शुरू किया था, इसके बाद साल 2016 में नमूने जमा किए और साल 2017 में बहुत से नमूनों के साथ लौटे। अच्छी बात ये रही कि रिसर्चर्स की मेहनत बेकार नहीं गई। जिस काम के लिए वो वहां गए थे उसमें सफल हुए। यहां से लिए गए नमूनों में उन्हें कुछ बैक्टीरिया मिले जिससे जिंदगी होने के सबूत मिले। दो अलग अलग जगह के नमूनों में अलग अलग तरह के बैक्टीरिया पाए गए।