इस व्रत को करने से मिलेगा उत्तम फल, भगवान विष्णु के साथ मां लक्ष्मी भी होगी प्रसन्न

Update: 2018-11-01 03:59 GMT

जयपुर: शास्त्रों में एकादशी का बड़ा महत्व है इस दिन भगवान विष्णु और मां लक्ष्मी की पूजा कर उन्हें प्रसन्न किया जाता है। दिवाली से पहले कार्त‌िक कृष्‍ण एकादशी का बड़ा महत्व है क्योंकि यह चतुर्मास की अंत‌िम एकदशी है। भगवान व‌िष्‍णु की पत्नी देवी लक्ष्मी ज‌िनका एक नाम रमा भी हैं उन्हें यह एकादशी अधिक प्रिय है, इसल‌िए इस एकादशी का नाम रमा एकादशी है। ऐसी मान्यता है क‌ि इस एकादशी के पुण्य से सुख ऐश्वर्य को प्राप्त कर मनुष्य उत्तम लोक में स्‍थान प्राप्त करता है। रमा एकादशी दिवाली के त्‍यौहार के चार दिन पहले आती है। इस वर्ष यह एकादशी 3 नवंबर को है।

महत्व पुराणों के अनुसार रमा एकादशी व्रत कामधेनु और चिंतामणि के समान फल देती है। इसे करने से व्रती अपने सभी पापों का नाश करते हुए भगवान विष्णु का धाम प्राप्त करता है। मृत्यु के बाद उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है।

कथा पौराणिक युग में मुचुकुंद नाम के प्रतापी राजा थे, उनकी एक सुंदर कन्या थी। जिसका नाम था चंद्रभागा था। राजा ने अपनी बेटी का विवाह राजा चंद्रसेन के बेटे शोभन के साथ किया। शोभन शारीरिक रूप से दुर्बल था। वह एक समय भी बिना खाएं नहीं रह सकता था। शोभन एक बार अपनी ससुराल आया हुआ था। वह कार्तिक का महीना था। उसी मास में महापुण्यदायिनी रमा एकादशी आ गई। इस दिन सभी व्रत रखते थे। चंद्रभागा ने सोचा कि मेरे पति तो बड़े कमजोर हृदय के हैं वे एकादशी का व्रत कैसे करेंगे जबकि पिता के यहां तो सभी को व्रत करने की आज्ञा है। जिसके बाद राजा ने आदेश जारी किया कि इस समय उनका दामाद राज्य में पधारा हुआ है अतः सारी प्रजा विधानपूर्वक एकादशी का व्रत करे। यह सुनकर सोभन अपनी पत्नी के पास गया और बोला तुम मुझे कुछ उपाय बताओॆ क्योंकि मैं उपवास नहीं कर सकता।

 

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पति की बात सुनकर चंद्रभागा ने कहा मेरे पिता के राज्य में एकादशी के दिन कोई भी भोजन नहीं कर सकता। यहां तक कि जानवर भी अन्न, जल आदि ग्रहण नहीं करते। यदि आप उपवास नहीं कर सकते तो किसी दूसरे स्थान पर चले जाइए, क्योंकि यदि आप यहां रहेंगे तो आपको व्रत तो अवश्य ही करना पड़ेगा। पत्नी की बात सुन सोभन ने कहा तुम्हारी राय उचित है लेकिन मैं व्रत करने के डर से किसी दूसरे स्थान पर नहीं जाऊंगा, अब मैं व्रत अवश्य ही करूंगा। सभी के साथ सोभन ने भी एकादशी का व्रत किया और भूख और प्यास से अत्यंत व्याकुल होने लगा। दूसरे दिन सूर्योदय होने से पहले ही भूख-प्यास के कारण सोभन के प्राण चले गए। राजा ने सोभन के मृत शरीर को जल-प्रवाह करा दिया और अपनी पुत्री को आज्ञा दी कि वह सती न हो और भगवान विष्णु की कृपा पर भरोसा रखे। चंद्रभागा अपने पिता की आज्ञानुसार सती नहीं हुई। वह अपने पिता के घर रहकर एकादशी के व्रत करने लगी।

उधर रमा एकादशी के प्रभाव से सोभन को जल से निकाल लिया गया और भगवान विष्णु की कृपा से उसे मंदराचल पर्वत पर धन-धान्य से परिपूर्ण तथा शत्रु रहित देवपुर नाम का एक उत्तम नगर प्राप्त हुआ। उसे वहां का राजा बना दिया गया। उसके महल में रत्न तथा स्वर्ण के खंभे लगे हुए थे। राजा सोभन स्वर्ण तथा मणियों के सिंहासन पर सुंदर वस्त्र तथा आभूषण धारण किए बैठा था। गंधर्व तथा अप्सराएं नृत्य कर उसकी स्तुति कर रहे थे। उस समय राजा सोभन मानो दूसरा इंद्र प्रतीत हो रहा था। उन्हीं दिनों मुचुकुंद नगर में रहने वाला सोमशर्मा नाम का एक ब्राह्मण तीर्थयात्रा के लिए निकला हुआ था। घूमते-घूमते वह सोभन के राज्य में जा पहुंचा, उसको देखा। वह ब्राह्मण उसको राजा का जमाई जानकर उसके निकट गया। राजा सोभन ब्राह्मण को देख आसन से उठ खड़ा हुआ और अपने ससुर तथा पत्‍नी चंद्रभागा की कुशल क्षेम पूछने लगा। सोभन की बात सुन सोमशर्मा ने कहा हे राजन हमारे राजा कुशल से हैं तथा आपकी पत्नी चंद्रभागा भी कुशल है। अब आप अपना वृत्तांत बतलाइए। आपने तो रमा एकादशी के दिन अन्न-जल ग्रहण न करने के कारण प्राण त्याग दिए थे। मुझे बड़ा विस्मय हो रहा है कि ऐसा विचित्र और सुंदर नगर जिसको न तो मैंने कभी सुना और न कभी देखा है, आपको किस प्रकार प्राप्त हुआ।

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