लखनऊ: यूं तो यूपी समेत देश के तमाम शहरों की हवा हमेशा ही प्रदूषित रहती है, लेकिन साल दर साल सर्दियों की आहट के साथ स्थिति विस्फोटक हो जाती है। हवा में जबर्दस्त जहर घुल जाता है। पंद्रह दिन-महीना भर अफरातफरी मची रहती है और फिर सबकुछ सामान्य हो जाता है। सबसे ज्यादा हैरान करने वाली और चिंता की बात ये है कि हेल्दी आबो-हवा सुनिश्चित करने के लिए सरकार के पास न कोई चिंता है और न कोई प्लानिंग।
सूबे के बड़े ही नहीं, छोटे जिले भी प्रभावित
हाल के दिनों में जहरीली हवा ने दिल्ली ही नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश के भी तमाम शहरों को प्रभावित किया है। अब हाल ये है कि कानपुर, वाराणसी,आगरा और राजधानी लखनऊ जैसे बड़े शहरों के साथ ही गोंडा और धौरहरा जैसे छोटे जिलों में भी प्रदूषण का गलाघोंटू शिकंजा कसता जा रहा है। पंजाब, हरियाणा व दिल्ली से चले स्मॉग की चपेट में पूरा उत्तर भारत है। उत्तर प्रदेश के लगभग सभी जिले इससे प्रभावित हैं।
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15 शहरों में प्रदूषण खतरनाक स्तर पर
सरकारी आंकड़े भी यूपी के 15 शहरों में वायु प्रदूषण बुरे और खतरनाक स्तर तक बढऩे की तस्दीक करते हैं। जहरीली हवा में सांस लेने से एलर्जी, खांसी, जकडऩ, गले के संक्रमण जैसी तात्कालिक समस्याएं और कैंसर, दमा, हार्ट अटैक, सीओपीडी (फेफड़े की खराबी) जैसी खतरनाक बीमारियां हो रही हैं। हवा साफ रहे, इसके लिए दावे और दस्तावेजी हुक्म तो बहुत हैं, लेकिन हकीकत में कुछ होता नहीं दिख रहा है। इसी का नतीजा है कि प्रदूषण घटने की बजाय बढ़ता ही जा रहा है। सबसे बड़ी बात यह भी है कि आम नागरिक को इसकी कोई चिंता नहीं है। हर साल दीपावली के बाद ठंड की शुरूआत से यह संकट सामने आ जाता है, लेकिन तमाम कवायदों का मकसद संकट को टालने का होता है उसके समाधान का नहीं। यही कारण है कि समस्या हमेशा जस की तस बनी रहती है और अगले वर्ष फिर इसी संकट से जूझना पड़ता है।
दिन-प्रतिदिन बढ़ रही समस्या
कुछ साल पहले तक धुंध की चादर को जाड़े का कोहरा समझा जाता था। वर्ष 2014 में विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट में बताया गया कि यह कोहरा नहीं बल्कि धूल, धुंए और सूक्ष्म कणों से मिलकर बना स्मॉग है। इस रिपोर्ट के सार्वजनिक होने के बाद सबसे पहले दिल्ली के लोगों को इसका अहसास होना शुरू हुआ। अस्पतालों में इससे होने वाली बीमारियों के मामले दर्ज होने लगे। हो-हल्ला होने के बाद इस आपदा से निपटने के लिए ऑड- ईवन लागू करने जैसे फैसले हुए। इस सरकारी कवायद से समस्या खत्म नहीं हुई। नतीजतन वायु प्रदूषण दिन-प्रतिदिन विकराल रूप धारण करता जा रहा है।
रोक के बावजूद निर्माण कार्य जारी
यूपी में वायु प्रदूषण से निपटने के लिए राज्य, मंडल और जिला तीनों स्तरों पर समीक्षा हो रही है। राज्य सरकार ने प्रदेश में सभी सरकारी व निजी निर्माण कार्यों पर रोक लगाने का आदेश दिया है। यह बात दूसरी है कि निजी ही नहीं बल्कि कई सरकारी विभागों में भी निर्माण कार्य जारी है। सरकारी आदेशों में कूड़ा या पराली जलाने पर रोक के साथ-साथ दंड का भी प्रावधान किया गया है। फिर भी कूड़ा और पराली जलाने की घटनाएं लगातार हो रही है। शहरों में धूल कणों को हटाने के लिए पानी के छिडक़ाव का आदेश भी कुछ इलाकों में ही सीमित होकर रह गया है।
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हालत यह है कि यूपी के अधिकतर शहरों में वायु प्रदूषण का स्तर 300 से 500 के बीच पहुंच गया है, जिसे बुरा और खतरनाक स्तर माना जाता है। बीती पांच नवंबर को लखनऊ प्रदूषित वायु के मामले में पूरे देश में दूसरे स्थान पर तो कानपुर पहले स्थान पर था।
दिलो-दिमाग हो रहा बर्बाद
जहरीली हवा से परेशान हो कर दिल्ली से बड़ी संख्या में लोग बाहर जा रहे हैं। वैसे, हिमाचल प्रदेश व कश्मीर के पहाड़ों पर बर्फबारी व हवाएं चलने से दिल्ली में बुधवार की रात वायु प्रदूषण का लेवल थोड़ा कम हुआ लेकिन अगले ही दिन ये फिर खतरनाक स्थिति में पहुंच गया।
प्रदूषण और हिंसा
जहरीली हवा सिर्फ इनसान का शरीर ही बर्बाद नहीं करती बल्कि मस्तिष्क को भी खराब करती है। अमेरिकी शोधकर्ताओं का दावा है कि प्रदूषण से इंसान हिंसक होता जा रहा है। प्रदूषण के सूक्ष्म कणों की अधिकता और ओजोन इंसानी व्यवहार को प्रभावित करते हैं। दिमाग पर प्रदूषण का असर ये होता है कि इंसान में हिंसक प्रवृत्ति बढ़ जाती है।
कोलारोडो यूनिवर्सिटी और यूनिवर्सिटी ऑफ मिनेसोटा की रिपोर्ट के मुताबिक, पीएम 2.5 और ओजोन के स्तर में बदलाव का हिंसक अपराध पर सीधा असर देखा गया, खासतौर पर ऐसे मामलों में जहां किसी एक शख्स ने आवेग में आकर दूसरे पर हमला किया हो। पीएम 2.5 के स्तर में 10 फीसदी की बढ़ोतरी इस तरह के हमलों में 0.14 फीसदी की बढ़ोतरी से कहीं न कहीं जुड़ती नजर आती है। इसी तरह से ओजोन के स्तर में 10 फीसदी की बढ़ोतरी हिंसक हमलों में 0.3 फीसदी की बढ़ोतरी का कारण बनती दिखती है। शोध से साबित हुआ है कि प्रदूषक तत्व शरीर से रक्त में प्रवेश करते हैं जिससे दिमाग का व्यवहार बदल जाता है।
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यही नहीं, विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, दुनिया भर में हर साल 9 लाख से ज़्यादा लोग वायु प्रदूषण की वजह से फेफड़ों के कैंसर से मरते हैं। कैंसर विशेषज्ञों के अनुसार, प्रदूषित हवा में वही केमिकल होते हैं जो कि एक सिगरेट में होते हैं। आज लोग जिस हवा में सांस ले रहे हैं, उसमें पीएम 2.5 का स्तर ३०० से पांच सौ तक जा रहा है। आज से 20-30 साल पहले तक फेफड़ों के कैंसर से जूझ रहे 100 लोगों में से 80 फीसदी लोग धूम्रपान करने वाले होते थे, लेकिन अब ये आंकड़ा 50-50 फीसदी तक पहुंच गया है।
पराली के अलावा कई अन्य कारणों से प्रदूषण
केवल पराली जलाना ही इसकी वजह नहीं है। घरों में लकड़ी से जलने वाले चूल्हे, वाहनों का धुंआ, कोयला आधारित उद्योग और ईट भट्टïों का धुंआ और निर्माण कार्य के दौरान होने वाली धूल से वायु प्रदूषण बढ़ता है। एनसीआर में कई कोयला आधारित उद्योगों को बंद कराया गया है। शहर में सार्वजनिक परिवहन के लिए इलेक्ट्रिक बसों की संख्या बढ़ाई जा रही है। यूपी में जल्द ही सभी पेट्रोल पंपों पर बीएस-6 मानक का पेट्रोल मिलेगा। फसल कटाई के लिए हार्वेस्टर के बढ़ते इस्तेमाल पर भी अंकुश लगाने पर विचार हो रहा है। आर्टिफिशियल बारिश का विकल्प काफी महंगा है। इसलिए अब ज्यादा धूल वाले स्थानों पर छिडक़ाव किया जा रहा है।
- जेपीएस राठौर, अध्यक्ष यूपी प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड
सबसे बड़ी समस्या वाहनों की बढ़ती संख्या
यूपी में सरकार ने 15 शहरों को वायु प्रदूषण से ग्रस्त माना है। दरअसल पूरे उत्तरी भारत के पीछे बड़े पहाड़ों के होने के कारण प्रदूषित वायु बाहर नहीं निकल पाती है। प्रदूषण के लिए पराली जलाने को सबसे बड़ा कारण मानना गलत है। वायु प्रदूषण में पराली का योगदान केवल 15 से 20 प्रतिशत ही है। सबसे बड़ी समस्या वाहनों की बढ़ती संख्या है। गांवों में आज भी लोग कोयला जला रहे हैं। ईंट-भट्टïे में ईंधन में क्या जल रहा है, यह पता नहीं चल पाता। भवन या सडक़ निर्माण की सामग्री सडक़ पर ही पड़ी रहती है। नगर निगम के कर्मचारी कूड़ा ढोने की बजाय उसे जलाने में ज्यादा रुचि रखते हैं। सरकार हर साल इस मौसम में बड़े-बड़े दावे करती है, लेकिन कोई काम नहीं किया जा रहा। देश में हर चीज का नियम है, लेकिन उसका पालन कोई नहीं करता।
-अंकिता ज्योति, वायु प्रदूषण विशेषज्ञ
वायु प्रदूषण से बढ़े हृदय रोग के मरीज
एक स्टडी से पता चला है कि हृदय रोगों के लिए वायु प्रदूषण भी एक बड़ा कारण है। इस स्टडी में जो मरीज शामिल हैं उनमें आधे की उम्र 40 साल से कम है। ये वे मरीज हैं जो न तो स्मोकिंग करते हैं और न ही इनके माता-पिता में किसी को हृदय रोग की शिकायत रही थी। अब दिल की बीमारी का आयु से कोई लेना-देना नहीं रह गया है। यह बीमारी 25 साल से ऊपर के किसी भी व्यक्ति को हो सकती है।
- डा. कीर्तिमान सिंह, सीनियर कार्डियोलॉजिस्ट