मोदी के इन्द्रजाल में उलझा विपक्ष, चुनावी हार ने तो और किया बेदम

Update:2017-06-23 15:06 IST
मोदी के इन्द्रजाल में उलझा विपक्ष, चुनावी हार ने तो और किया बेदम

Vijay Shankar Pankaj

लखनऊ: यूपी में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) जहां 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए बूथ स्तर तक की तैयारियों में जुटी है, वहीं विपक्ष मोदी के इन्द्रजाल से मुक्त नहीं हो पा रहा है। प्रदेश में अपराध की बढ़ती घटनाएं, विकास तथा अनुभवहीन मंत्रिमंडल की तमाम कमियों को भी विपक्ष जनान्दोलन का मुद्दा नहीं बना पा रहा है।

हालात ऐसे हैं मानो विपक्ष ने जैसे चुनाव से पहले ही हथियार डाल दिए हों। 2014 के लोकसभा और 2017 के विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद विपक्ष ने राजनीतिक विश्वास ही खो दिया है। ऐसे में सत्तारूढ़ बीजेपी की कोई बहुत बड़ी गलती ही विपक्ष को जनविश्वास हासिल करने के लिए कुछ उद्वेलित कर सकती है।

बीजेपी का अति पिछड़ा-अति दलित कार्ड

प्रदेश की राजनीति में विपक्ष की हताशा के पीछे की वजह भी भारी है। साल 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी ने अति पिछड़ा और अति दलित का जो कार्ड खेला था, उसे विपक्ष समय से नहीं समझ पाया। तत्कालीन बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह इस अति पिछड़ी-अति दलित राजनीति के प्रेरक थे। हालांकि, बाद में नरेन्द्र मोदी-अमित शाह की जोड़ी ने राजनाथ सिंह को इस पहल का श्रेय नहीं लेने दिया। बीजेपी की राजनीति में यह वास्तविक तथ्य है कि 2001 -2002 में उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री रहते राजनाथ सिंह ने ही आरक्षण प्रणाली में अति पिछड़ों और अति दलितों का उनका हक दिलाने के लिए कमेटी का गठन कर इसे लागू कराने का प्रयास किया था।

उस समय बीजेपी के ही कुछ प्रभावी पिछड़े नेताओं ने राजनाथ सिंह की इस पहल का विरोध किया था। बाद में हाईकोर्ट के स्थगनादेश और विधानसभा चुनाव में बीजेपी की हार के कारण यह मामला स्थगित हो गया। बीजेपी अध्यक्ष रहते राजनाथ ने जब अति पिछड़े-अति दलित के मुद्दे को आगे बढ़ाया तो पीएम के घोषित प्रत्याशी मोदी को भी यह रास आया और उनका समर्थन करते हुए मोदी ने स्वयं को अति पिछड़ा घोषित किया। बीजेपी के साथ अति पिछड़े एवं अति दलित के समर्थन का ही प्रभाव रहा कि 2014 के लोकसभा चुनाव में पार्टी को वह जनसमर्थन मिला, जिसकी नेतृत्व ने कल्पना भी नहीं की थी।

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राजनीतिक जातीय गणित

लोकसभा चुनाव के बाद बीजेपी की कमान संभालने के बाद अमित शाह ने इस मुहिम को सांगठनिक स्तर पर उतारने का प्रयास शुरू कर दिया। इसी कड़ी में उत्तर प्रदेश के ब्राह्मण नेता लक्ष्मीकांत वाजपेयी को हटाकर पिछड़े वर्ग के केशव प्रसाद मौर्य को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया। यह स्थिति तब रही जबकि वाजपेयी के ही अध्यक्ष रहते प्रदेश में बीजेपी ने सहयोगियों सहित लोकसभा की 73 सीटें जीतीं। प्रदेश प्रभारी के रूप में इसी का श्रेय देकर अमित शाह को राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया गया, जबकि आज पार्टी में वाजपेयी की सुध लेने वाला कोई नहीं है। अमित शाह की 'राजनीतिक जातीय गणित' ने यूपी चुनाव में पार्टी को ऐतिहासिक जीत दिलाई। इन दो चुनावों के बाद विपक्ष यूं हताशा के अवसाद में डूब गया कि अभी तक उबर नहीं पा रहा है।

सोनिया के चुनाव लड़ने के आसार नहीं

प्रदेश के राजनीतिक गलियारे में आजकल चर्चा आम है कि क्या बीजेपी 2014 लोकसभा चुनाव का परिणाम दोहरा पायेगी? इस मसले पर विपक्ष को अपनी एक भी सीट हासिल करने की कोई रूपरेखा नहीं दिखाई दे रही है। सबसे बड़े दल कांग्रेस के लिए भी दो सीटें जिताने की चुनौती यक्ष प्रश्न बनती जा रही है। कांग्रेस में ही यह चर्चा है कि स्वास्थ्य कारणों से पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी 2019 का लोकसभा चुनाव रायबरेली से नहीं लड़ेंगी। ऐसे में कांग्रेसी दिग्गज किसी भी तरह से प्रियंका गांधी को चुनाव लड़ाने पर जोर दे रहे हैं। कांग्रेसियों का मानना है कि सोनिया गांधी चुनाव नहीं लड़ीं तो बगल की अमेठी सीट पर भी राहुल की जीत आसान नहीं होगी। इन दोनों सीटों पर बीजेपी ने विधानसभा चुनाव में जैसा परचम लहराया है, उससे कांग्रेसी खेमे में चिंताएं बढ़ गई हैं।

सपा के हालात भी अच्छे नहीं

कुछ ऐसे ही बदतर हालात समाजवादी पार्टी (सपा) के हैं। सपा संरक्षक मुलायम सिंह यादव अगला लोकसभा चुनाव लड़ने के पक्ष में नहीं हैं। वैसे भी अब आजमगढ़ सीट सपा के लिए 'खतरनाक जोन' बन गई है। यही नहीं, कन्नौज सीट सपा मुखिया अखिलेश यादव की प्रतिष्ठा को आंच पहुंचा सकती है। पिछली बार कन्नौज से अखिलेश की पत्नी डिम्पल को बहुत कम वोटों से जीत मिली थी। यह जीत तब मिली जब अखिलेश प्रदेश के सीएम थे। चर्चा तो यह थी कि अखिलेश ने पत्नी डिम्पल की जीत सुनिश्चित कराने के लिए बीजेपी के कुछ वरिष्ठ नेताओं से सहयोग मांगा था जिसके कारण वहां पर कोई बड़ी जनसभा नहीं हुई। सपा की तीन अन्य लोकसभा सीटों बदायूं, मैनपुरी एवं फिरोजाबाद में सपा सांसदों की हालत बड़ी ही खराब है। ऐसे में सपा के लिए 2014 के लोकसभा चुनाव परिणाम को भी दोहराना टेढ़ी खीर साबित होगा।

बसपा का राजनीतिक ढांचा चरमराया

विद्रोहियों के कारण बसपा का राजनीतिक ढांचा ही चरमरा गया है। मायावती का कार्यकाल मई 2018 में खत्म हो रहा है। ऐसा पहली बार होगा जब वह किसी सदन की सदस्य नहीं रहेंगी। ऐसे हालात में मायावती 2019 का लोकसभा चुनाव भी लड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही हैं। पैसे के आधार पर लोकसभा-विधानसभा का प्रत्याशी चयन करने वाली पार्टी बसपा के हालात यह हैं कि अगले चुनाव के लिए पदाधिकारी भी तैयार नहीं हो पा रहे हैं और न कोई पूंजीपति बसपा के टिकट पर चुनाव लड़ने को तैयार है। मुस्लिम नेता तो बसपा के टिकट पर चुनाव लड़ने की भी बात नहीं कर रहे है।

बसपा ने इन्हें दिया निर्देश

फिलहाल मायावती ने अपने कुछ करीबी विधायकों तथा वरिष्ठ नेताओं को लोकसभा चुनाव की तैयारी करने का निर्देश दिया है। इसमें लालजी वर्मा, सुखदेव राजभर, इन्द्रजीत सरोज आदि के नाम प्रमुख हैं। राष्ट्रीय लोकदल के अजित सिंह-जयंत सिंह के लिए भी किसी सदन का सदस्य होने की चुनौती है। ऐसी स्थिति में फिलहाल भाजपा की बल्ले-बल्ले है। हालात ठीक होते हुए भी बीजेपी तैयारियों की जुटी है जबकि हताश विपक्ष कोमा से बाहर नहीं आ पा रहा है।

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