लखनऊ: भारतीय जनता पार्टी के नए प्रदेश अध्यक्ष डॉ.महेंद्र नाथ पांडेय जब यह कहते हैं कि सरकार और संगठन के बीच समन्वय, सामंजस्य और संवाद मेरी पहली प्राथमिकता है तो यह बात अपने आप प्रकट हो जाती है कि संगठन और सरकार के बीच कुछ न कुछ गड़बड़ जरूर है, जिसे ठीक करने के लिए ही उन्हें भेजा गया है। साफ है कि संगठन और सरकार के बीच संवादहीनता के साथ सामंजस्य में कमी है। इसकी वजह सरकार और संगठन के शीर्ष पदों पर बैठे लोगों को ही माना जा रहा है।
जब सरकार के काम में संगठन के एक अहम पदाधिकारी का दखल इस हद तक बढ़ गया हो कि उसके दो कारिंदे फाइलें लेकर रोज मंत्रियों की टेबल तक पहुंचते हों, संगठन के मुखिया सरकारी फाइलों के बोझ तले दबते जा रहे हों और सरकार के मुखिया इतने दबाव में हों कि हाईकोर्ट में सैकड़ों सरकारी वकीलों की सूची रद्द करनी पड़े, ऐसे में समन्वयकारी और अनुभवी नेता की जरूरत थी। भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने इसी नजरिये से महेन्द्र नाथ पांडेय को प्रदेश भाजपा की कमान सौंपी है। लेकिन उत्तर प्रदेश में जब पार्टी इतने खांचों में नजर आ रही हो, तब उसके सारे लोगों को एकजुट करते हुए आगे की चुनौतियों का मुकाबला उनके लिए किसी महाचुनौती से कम नहीं।
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आते ही चुनौतियों का पहाड़
छात्र राजनीति से तपकर संगठनात्मक और संसदीय राजनीति तक का सफर तय करने वाले महेंद्र नाथ पांडेय का रणनीतिक कौशल ही उन्हें डेढ़ साल बाद होने वाले लोकसभा चुनाव में 80 सीटें पार्टी की झोली में डालने के कड़े इम्तहान को पास करने की ताकत दे सकता है। उनके स्वागत समारोह में निवर्तमान अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य ने कहा कि 2014 में हमने 73 सीटें और 2017 में 324 सीटें जीतकर एक रिकार्ड बनाया है। अब पांडेय जी के जिम्मे 80 सीटों का लक्ष्य है, जिसे कार्यकर्ताओं के सहयोग से पूरा किया जाएगा।
मौर्य ने अपने इस भाषण में संकेत दिया कि पांडेय के सामने चुनौतियों का पहाड़ खड़ा है। सबको पता है कि सियायत में 100 प्रतिशत लक्ष्य निर्धारण असंभव सा होता है। वह भी उत्तर प्रदेश जैसे बड़े सूबे में जहां तीन पार्टियां पहले से अपनी-अपनी रणनीति बनाने में जुटी हैं। उत्तर प्रदेश के 2017 विधानसभा चुनाव परिणामों ने सभी को चौंकाया। स्वयं भाजपा ने भी अपना लक्ष्य 265 सीटों का रखा था और उसे मिशन-265 का नाम दिया था। उसे भी यह अनुमान नहीं था कि वह 312 सीटें और 39.9 फीसद वोट हासिल करेगी। इस वोट बैंक को बचाने की चुनौती है। बीते विधानसभा चुनावों में ऐसा प्रदर्शन इसके पूर्व केवल दो बार हुआ है।
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एक बार 1952 में जब कांग्रेस को 390 सीटें और 47.9 फीसद वोट मिले और 1977 में आपातकाल के बाद जनता पार्टी को 352 सीटें और 47.8 फीसद वोट मिले। इससे पहले 2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने प्रदेश में 71 सीटें जीतीं और उसके सहयोगी अपना दल ने दो सीटें। इससे राजग-गठबंधन ने कुल 81 में 73 सीटें जीतकर नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में देश में मजबूत सरकार बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। लोकसभा में भाजपा गठबंधन को 337 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त हासिल थी और इस बार 325 सीटें जीत कर पार्टी लगभग वहीं खड़ी दिखाई दे रही है।
ऐसे में 2019 के चुनाव में पार्टी की साख का सवाल कम बड़ा नहीं है। महेंद्र नाथ पांडेय शायद इसी दिशा में काम करेंगे कि जो साख बनी है, वह बची रह जाए। पहले ही भाषण में तगड़ा संदेश बहरहाल मौर्य के भाषण से पांडेय भी कई बातें ताड़ चुके थे। इसीलिए जब उनकी बारी आई तो वे संदेश देने में नहीं चूके। कहा, सरकार संगठन से है, सरकार से संगठन नहीं होता। संगठन समॢपत कार्यकर्ताओं से मजबूत होता है। इसलिए कार्यकर्ता से बड़ा कोई नहीं। कार्यकर्ता की बात सबको सुननी होगी क्योंकि सरकार कार्यकर्ताओं के बल पर बनी है। जाहिर है कि कार्यकर्ता पिछले पांच महीने से अपनी उपेक्षा महसूस कर रहे हैं। वह कई मौकों पर मंत्रियों से भिड़ रहे हैं तो कई बार अपमानित हो रहे हैं। इसकी शिकायत दिल्ली तक पहुंच चुकी थी।
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सरकार भी कुछ गिनती के लोगों की ही बात सुन रही है। अलग-अलग दलों से आए मंत्री मनमानी कर रहे हैं। भाजपा के मूल कार्यकर्ता उनकी प्राथमिकता में नहीं हैं। उनके अपने समर्थक ही सत्ता के गलियारों में टहलते घूमते देखे जा रहे हैं।इसलिए भेजे गए मुख्यमंत्री बनने के बाद योगी आदित्यनाथ ने जिस तरह से सरकार चलाई, जिस तरह की गैरसरकारी नियुक्तियां कर रहे हैं, ब्यूरोक्रेसी में जिस तरह फेरबदल किया, उसका संदेश न तो कार्यकर्ताओं के बीच अच्छा गया और न ही संगठन के उन लोगों के बीच जो इन चीजों को समझते हैं।
इसी बीच रायबरेली में पांच ब्राह्मणों की हत्या कर दी गई और मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य ने हमलावर पक्ष का जिस अंदाज में बचाव किया, उससे ब्राह्मणों के बीच संदेश गया कि यह सरकार तो उन्हीं को दरकिनार कर रही है। खबरें दिल्ली के शीर्ष नेताओं तक पहुंची कि ब्राह्मण नाराज हो रहे हैं। यह नाराजगी आने वाले चुनावों में भारी पड़ सकती है।
पांडेय को सूबे की कमान सौंपने की मूल वजह यही बनी ताकि एकतरफा दौड़ते दिख रहे सरकार के घोड़ों पर लगाम लगाई जा सके। इसके साथ ही उन कार्यकर्ताओं को सहेजना और एकजुट रखना होगा जो जमीनी तौर पर काम करते हैं, पुराने हैं और उपेक्षित किए जा रहे हैं। उन सभी जातियों को साधना होगा, जो भाजपा परंपरागत रूप से भाजपा को वोट देती रही हैं। खासतौर पर अगड़ी जातियों को जिन्हें जाने-अनजाने महसूस होता है कि भाजपा उनकी ही पार्टी है।
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मजबूती
- नए प्रदेश अध्यक्ष को लेकर अगड़ी जातियों में खासा उत्साह है। वह एकजुटता के साथ भाजपा के लिए काम करेंगी।
-समन्वय और संवाद की समस्या खत्म हो जाएगी। सरकार और संगठन के बीच तालमेल कायम होने की उम्मीद बढ़ी है।
-जमीनी कार्यकर्ता किसी भी जाति या समुदाय के हों, पांडेय पर भरोसा करते हैं। वे मानकर चल रहे हैं कि नए प्रदेश अध्यक्ष उनकी बात सुनेंगे, समझेंगे और उचित फैसला लेंगे।
कमजोरी
- वह अच्छे संगठक तो हैं मगर प्रदेश के भारी भरकम छवि वाले नेताओं के दबाव में नहीं आएंगे, ऐसा नहीं माना जा रहा है।
- वह मृदुभाषी तो हैं, लेकिन फैसला लेने में समय लेते हैं। अकेले फैसला लेने में संकोच करते हैं।
- क्षेत्रीय जनों के प्रति खास लगाव रखते हैं। ऐसे में यह आशंका भी बलवती हो रही है कि इससे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गलत संदेश न चला जाए।
पूर्व अध्यक्षों की राय
वह अच्छे इंसान और कुशल राजनेता हैं। पार्टी जो भी फैसला करती है, अच्छा करती है और सोच समझकर करती है। मेरा मानना है कि उनके प्रदेश अध्यक्ष बनने से पार्टी में गतिशीलता आएगी। -लक्ष्मीकांत बाजपेयी