स्पेशल रिपोर्ट: ‘चीट इंडिया’ कंपनियों की निवेशकों से लूट का खेल जारी

Update:2019-02-08 12:48 IST

नीलमणि लाल

लखनऊ: कम समय में अमीर बनने की चाहत में मध्यम और निचले तबके के लाखों निवेशक फर्जी चिटफंड कंपनियों के लुभावने सब्जबाग में फंस कर अपनी जमा पूंजी गंवा चुके हैं। लोगों से सैकड़ों-हजारों करोड़ उगाहने के बाद जब पैसों की वापसी का समय आता है तो ये कंपनियां अपनी दुकान बंद कर देती हैं। ‘पीयरलेस’ से ‘सहारा’ तक देश में हजारों ऐसी चिटफंड कंपनियां मेहनत से कमाई करने वालों को लंबा चूना लगा चुकी हैं। रियल स्टेट, बकरी पालन, आलू निवेश, इलेक्ट्रिकल्स, हौलि डे होम्स, मसाला उद्योग जैसे तमाम कार्यों में निवेश के नाम पर जमा रकम को दूना करने के मामले में तमाम कंपनियां सामने आ चुकी हैं। सेबी ने कुछ दिन पूर्व 91 कंपनियों की सूची जारी कर जनता को इनसे सावधान रहने की हिदायत दी थी,लेकिन असलियत में सेबी और रिजर्व बैंक की नजरों से दूर गांव-कस्बों में न जाने कितनी कंपनियां लोगों को लूटने के काम में लगी हुई हैं, इसका कोई सही आंकड़ा नहीं है।

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भारत की पहली चिटफंड कंपनी मानी जाने वाली पियरलेस का जन्म 1932 में ही हो गया था जबकि अधिकृत रूप से सेबी का जन्म 1992 में हुआ। सेबी अपने काम में अभी तक खरी नहीं उतर पाई है। इसका सबूत भारत में चल रही १५ हजार से अधिक चिटफंड कंपनियां हैं। इसकी तस्दीक विकीपीडिया से होती है। कुछ कंपनियों का टर्नओवर इतना है कि हमारे देश के कई राज्यों के सालाना बजट भी उससे कम हैं। छत्तीसगढ़ में ही 400 से अधिक कंपनियां काम कर रहीं हैं। इसी प्रकार उड़ीसा और बंगाल इन चिटफंड कंपनियों का पसंदीदा राज्य है।

चिटफंड है क्या

चिटफंड कंपनियां दरअसल गैरबैंकिंग कंपनियों की श्रेणी में आती हैं। ऐसी कंपनियों को किसी खास योजना के तहत खास अवधि के लिए रिजर्व बैंक और सेबी की ओर से आम लोगों से मियादी (फिक्स्ड डिपाजिट) और रोजाना जमा (डेली डिपाजिट) जैसी योजनाओं के लिए धन जमा कराने की अनुमति मिली होती है। जिन योजनाओं को दिखाकर अनुमति ली जाती है, वह तो ठीक होती हैं, लेकिन अनुमति मिलने के बाद ऐसी कंपनियां अपनी मूल योजना से इतर विभिन्न लुभावनी योजनाएं बनाकर लोगों से धन उगाहना शुरू कर देती हैं।

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अमूमन पांच से सात साल में 10 गुना ज्यादा रिटर्न देने का सब्जबाग दिखाकर कस्बाई और ग्रामीण इलाकों में एजेटों के जरिए करोड़ों की रकम उगाही जाती है। इन तमाम योजनाओं में एक बात आम है, वह यह कि नये निवेशकों के पैसों से ही पुराने निवेशकों की रकम चुकाई जाती है। यह एक चक्र की तरह चलता है। दिक्कत तब होती है जब नया निवेश मिलना कम या बंद हो जाता है।

यूं फंसाती हैं अपने मायाजाल में

आम लोग ऐसी तमाम कंपनियों का फर्जीवाड़ा सामने आने के बावजूद निवेश क्यों करते हैं? इसका जवाब है संबंधित कंपनी के बड़े-बड़े नेताओं और फिल्मकारों के साथ संबंधों को देखकर। कोलकाता के शारदा समूह के मामले में भी यही हुआ। उसने तृणमूल कांग्रेस के सांसद और पत्रकार कुणाल घोष को अपनी मीडिया कंपनी का मुख्य कार्यकारी अधिकारी बना रखा था, तो फिल्म अभिनेत्री व तृणमूल सांसद शताब्दी राय को अपना ब्रांड अंबेसडर। कंपनी के एजेंटों ने पैसे उगाहते समय इस बात का बखूबी प्रचार कर निवेशकों का भरोसा जीत लिया।

पैसा लूटने के बाद कंपनियां बंद

पश्चिम बंगाल की शारदा और रोज वैली चिट फंड घोटाले इस समय एक बार फिर सुर्खियों में हैं। अब इन घोटालों को ममता बनर्जी के साथ जोडक़र देखा जा रहा है। देखा जाए तो पश्चिम बंगाल को सत्तर और अस्सी के दशक से ऐसी चिटफंड कंपनियों ने टारगेट करना शुरू कर दिया था। इनमें ‘संचयिता’, ‘संचयनी’, ‘फेवरेट’, ‘ओवरलैंड’ आदि कुछ प्रमुख नाम रहे।

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ये सभी कंपनियां पोन्जी स्कीम चलाती थीं। कुछ समय तक लोगों से पैसा लूटने के बाद ये सभी कंपनियां बंद हो गईं। ९० के दशक में राज्य में ऐसी चिट फंड कंपनियों ने फिर सिर उठाना शुरू किया। इस बार उनको लेफ्ट फ्रंट के नेताओं का सहयोग मिला था। निवेशकों को ३० फीसदी तक ब्याज, एजेंटों को ३५ फीसदी तक कमीशन, यह सब लुटाया गया। बंगाल ही नहीं, केरल और त्रिपुरा तक में इनका कारोबार खूब फैला और किसी भी सरकार ने कोई सख्त कार्रवाई नहीं की।

पश्चिम बंगाल में 10 लाख करोड़ की लूट

संचयिता, सहारा, शारदा, पल्र्स, रोज वैली जैसी कंपनियां सेबी की मौजूदगी के बाद भी लाखों करोड़ रुपए का टर्नओवर करतीं रहीं। अगर सहारा-सेबी प्रकरण सामने न आता तो लोगों को सेबी के अस्तित्व की जानकारी भी शायद ही हो पाती। सहारा पर भी सेबी की नजर तब पड़ी जब यह कंपनी अपनी योजनाओं के जरिए बाजार से लाखों करोड़ रुपए उठा चुकी थी। सेबी ने तो सहारा की जिन दो कंपनियों पर कार्रवाई की उन्होंने केवल 27 हजार करोड़ रुपए ही मार्केट से उठाया था, जबकि सहारा समेत कई अन्य चिटफंड कंपनियां आज भी बाजार से पूंजी उठाने में जुटीं हुई हैं। सेबी का दावा है कि अकेले पश्चिम बंगाल में ही 64 कंपनियों के मायाजाल में 10 लाख करोड़ रुपए से अधिक फंसा हुआ है।

अब सख्त कानून

पोंजी स्कीम और चिटफंड चलाकर जनता के पैसे लूटने वालों पर नकेल कसने के लिए केंद्र ने ‘दि बैनिंग ऑफ अनरेगुलेटेड डिपॉजिट स्कीम बिल, 2018’ में आधिकारिक संशोधनों के प्रारूप को अंतिम रूप दे दिया है। कानून बनने के बाद जो भी जमा योजनाएं इस कानून के तहत पंजीकृत नहीं होंगी, वे अवैध हो जाएंगी। ऐसी कंपनियों के मालिक, एजेंट और ब्रांड एंबेसडर के खिलाफ भी कार्रवाई होगी।

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