ऐतिहासिक नौचंदी मेले पर लगा कोरोना का ग्रहण, सालों पुरानी परंपरा टूटी
कोरोना वायरस ने उत्तर भारत के ऐतिहासिक नौचंदी मेले की सैकड़ों वर्ष पुरानी परंपरा को तोड़ दिया है। नगर के पूर्वी छोर पर चंडी मंदिर और बाले मियां की मजार पर सांप्रदायिक सद्भाव के प्रतीक के रूप में हर साल होली के बाद एक रविवार छोड़कर लगने वाले इस मेले की परंपरा तो टूटी ही साथ ही
सुशील कुमार
मेरठ कोरोना वायरस ने उत्तर भारत के ऐतिहासिक नौचंदी मेले की सैकड़ों वर्ष पुरानी परंपरा को तोड़ दिया है। नगर के पूर्वी छोर पर चंडी मंदिर और बाले मियां की मजार पर सांप्रदायिक सद्भाव के प्रतीक के रूप में हर साल होली के बाद एक रविवार छोड़कर लगने वाले इस मेले की परंपरा तो टूटी ही साथ ही टूट गई मेला लगने की आस। जो लोग साल भर मेले लगने का इंतजार किया करते थे उनकी भी उम्मीदों पर कोरोना वायरस ने पानी फेर दिया। पहले इस मेले का उद्घाटन 22 मार्च को होना था, लेकिन कोरोना वायरस के कारण लॉकडाउन के चलते मेला 15 मई से शुरू होने की बात कही जा रही है। हालांकि जो हालात दिख रहे हैं उसमें मेला इस बार होना मुश्किल है।
प्रत्येक वर्ष लगने वाला नौचंदी मेला उत्तर भारत की पहचान है। सन् 1672 में नौचंदी मेले की शुरुआत मां नवचंडी के मंदिर से हुई थी। नौचंदी का नाम मां नवचण्डी के नाम पर पड़ा था। नवचण्डी के मंदिर में नारियल, चुनरी चढ़ाने से की परंपरा है। देश के कोने-कोने से व्यापारी आकर यहां भिन्न-भिन्न उत्पाद बेचते आए हैं। एक महीने से ज्यादा लगने वाले इस मेले में हर साल काफी भीड़ रहती है।
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संघर्षों का गवाह बना मेला
स्वतंत्रता सेनानियों के संघर्ष की जहां नौचंदी गवाह बनी। वहीं शहादत के दर्द को भी मेले ने करीब से महसूस किया। अत्याचार और बगावत के सुरों को भी इस नौचंदी ने खूब सुना। यहीं नहीं 1857 का संग्राम देखने का गौरव भी नौचंदी से अछूता नहीं रहा। आजादी की मूरत बनी नौचंदी ने शहर के कई उतार चढ़ाव देखे, लेकिन मेले की रौनक कभी कम न हुई। चाहे शासन मुगलों का रहा हो या अंग्रेजी हुकूमत या फिर स्वतंत्रता संग्राम या सांप्रदायिक दंगे आज तक ऐसा कभी नहीं हुआ कि शहर में नौचंदी के मेले का आयोजन न हुआ है।
मुशायरे होते थे मेले की जान
इंडो-पाक मुशायरा तो इस मेले की जान हुआ करता था। मुशायरे में हिंदुस्तान के साथ पड़ोसी मुल्क के शायरों को भी न्यौता दिया जाता था। शहर के पुराने वाशिंदे ८० वर्षीय शमसुद्दीन बताते हैं कि दिन का मेला देहात का और रात को शहर का होता था। दिन में दूर-दराज के लोग इस मेले में खरीदारी करने आते थे, जबकि रात होते यहां शहरवासियों का जमावड़ा लग जाता था। मेले की रौनक रात नौ बजे के बाद शुरू होती थी और रात बीतने के सात-साथ मेला जवान होता जाता था। अब तो बस एक औपचारिकता भर रह गया है। अधिकांश लोग रात में वहां जाना पसंद नहीं करते। शमसुद्दीन के अनुसार आज तक उन्होंने कभी अपने पुरखों से भी नहीं सुना कि मेला नहीं लगा है। अलबत्ता,पहली बार १९८७ में हुए दंगों के कारण मेले को बीच में ही समाप्त करना पड़ा था।
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पशु मेला भी लगता था
देश के कोने-कोने से व्यापारी आकर यहां तरह तरह के सामान बेचते थे। अंग्रेजी हुकूमत के दौरान यहां बहुत बड़ा पशु मेला भी लगता था जिसमें अरबी घोड़ों का व्यापार किया जाता था। शमसुद्दीन बताते हैं कि सेना अपने घोड़े इस मेले से ही खरीदती थी। कहा तो यह भी जाता है कि शहर में जब-जब सांप्रदायिक दंगे हुए तब-तब नौचंदी मेले ने ही हिन्दु-मुस्लिम के दिलों की कड़वाहट दूर की। लेखक सुनील शर्मा बताते हैं कि नवरात्र के नौवें दिन यहां मेला भरना शुरू हुआ था। धीरे-धीरे मेला बड़ा होता गया और इसका स्वरूप एक दिन से निकल कर दिनों में तब्दील हो गया। जिला नागरिक परिषद के पूर्व सदस्य कुंवर शुजाअत अली मायूसी से कहते हैं, आज तक ऐसा कभी नहीं हुआ कि शहर में नौचंदी के मेले का आयोजन न हुआ हो।
हजरत बाले मियां की दरगाह एवं नवचण्डी देवी (नौचन्दी देवी) का मंदिर एक दूसरे के निकट ही स्थित हैं। जहाँ मंदिर में भजन कीर्तन होते रहते हैं वहीं दरगाह पर कव्वाली आदि होती रहती है। मेले के दौरान मंदिर के घण्टों के साथ अज़ान की आवाज़ एक सांप्रदायिक अध्यात्म की प्रतिध्वनि देती है। नौचन्दी चैत्र मास के नवरात्रि त्यौहार से एक सप्ताह पहले से लग जाता है और एक माह तक चलता है। नौचन्दी मेले के नाम से यहां एक ट्रेन भी चलती है नौचन्दी एक्सप्रेस। यह मेरठ को राजधानी लखनऊ से जोड़ने वाली एकमात्र ट्रेन है। बहरहाल, नौचन्दी मेला इस बार होगा या नहीं यह सब कोरोना वायरस पर निर्भर करता है।