Kanshi Ram Ki Punyatithi: जब पहली बार मायावती पर की गई थी भद्दी टिप्पणी, तब कांशीराम बने थे मार्गदर्शक
Kanshi Ram Ki Punyatithi: बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के संस्थापक कांशीराम की पुण्यतिथि के मौके पर हम बात करेंगे उनके और मायावती के रिश्ते के बारे में...
Kanshi Ram Ki Punyatithi: साल 2016 की बात है । जब भारतीय जनता पार्टी के नेता दयाशंकर सिंह ने उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती पर अभद्र टिप्पणी की। मायावती के लिए तब तक यह कोई नई बात नहीं रह गई थी। उन्हें राजनीतिक करियर की शुरुआत से ही इस तरह की अमर्यादित भाषा सुनने को मिलती रही है। तो, आज कहानी मायावती और उस शख्स की जिनके रिश्तों को दुनिया अपनी-अपनी नजर से देखती रही। तथ्य हो न हो, लेकिन बातें हुई और खूब हुई। वह शख्स थे, दलित नेता, चिंतक और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के संस्थापक कांशीराम। आज उनकी पुण्यतिथि के मौके पर बातें कांशीराम और मायावती के रिश्ते की।
मायावती को अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत में ही घर छोड़कर दिल्ली के करोल बाग स्थित बामसेफ के दफ्तर में रहना पड़ा था। यह वो दौर था जब बामसेफ के मुखिया कांशीराम थे। मायावती वहां पार्टी दफ्तर के कमरे में रहने लगीं। एक युवा लड़की ऐसे घर छोड़कर, किसी पार्टी दफ्तर में रहने लगे तो बातें और फुसफुसाहट होने लगी। तब उन बातों ने जोर पकड़ा। हालांकि, आज भी समाज तो वही है। और हम जिस दौर की बात कर रहे हैं वो तो 70 के दशक की थी। तो आप सहज ही सोच सकते हैं की, क्या हालात रहे होंगे।
खैर, लोग यह भी भूल गए कि मायावती बामसेफ के दफ्तर के एक कमरे में रहती हैं। जबकि कांशीराम वहां उस जगह नहीं रहते। तब कांशीराम पार्टी के काम से अति व्यस्त जिंदगी में अक्सर टूर पर ही रहते थे। लोग यह भी भूल गए, कि मायावती अकेली नहीं रहतीं, उनका भाई सिद्धार्थ भी उनके साथ रहता रहा।
कांशीराम मार्गदर्शक बने
मायावती के राजनीतिक जीवन और उनके जीवन से जुड़ी ऐसी ही बातों को पत्रकार अजय बोस ने अपनी किताब 'बहन जी: ए पॉलिटिकल बायोग्राफी ऑफ मायावती' में लिखा है। अजय बोस लिखते हैं, मायावती 21 साल की उम्र में ही बामसेफ मूवमेंट में सक्रिय हुई थीं। लोगों को तभी से दिक्कतें होने लगी थी। हालांकि कांशीराम उनके मार्गदर्शक थे। वे उन्हें लगातार उत्साहित करते। कांशीराम, मायावती को मंच संचालन के लिए प्रोत्साहित करते। साथ ही साथ, दलित समाज और उनकी दुर्दशा के लिए जिम्मेदार लोगों के बारे में बताने का काम करते। सानिध्य ही था कि मायावती की बोलचाल, भाषा शैली और भाषणों से अब उन्हें शोहरत मिलने लगी थी। फिर वह दौर भी आया जब माया न तो गांधी को बख्शती थीं और न ही सवर्णों को, इसके पीछे कांशीराम की ट्रेनिंग थी। एक गुरु के रूप में।
'कांशीराम और बामसेफ से मतलब छोड़ना होगा'
अजय बोस अपनी किताब में लिखते हैं, दूसरी तरफ, मायावती के पिता प्रभु दास को बेटी की राजनीतिक सक्रियता बिलकुल भी पसंद नहीं आ रही थी। वह चाहते थे कि मायावती आईएएस की तैयारी करें या अपना घर बसा लें। घर में इस तरह की बातें अब आम हो गई थी। एक दिन पिता-पुत्री में झगड़ा बढ़ गया। उन दिनों मायावती दिल्ली के एक प्राथमिक स्कूल में टीचर थीं। पिता ने उन्हें अल्टीमेटम दे दिया, घर में रहोगी तो मेरे हिसाब से। कांशीराम और बामसेफ से मतलब छोड़ना होगा। बोस लिखते हैं, मायावती ने पिता का घर छोड़ दिया। करोल बाग स्थित बामसेफ दफ्तर आ गईं। उनके साथ अपना कपड़ों से भरा सूटकेस था, कुछ किताबें थीं। बस यही मायावती की जमा पूंजी थी। तब कांशीराम कहीं टूर पर थे। कुछ दिनों में वह वापस लौटे। उन्होंने मायावती को ढांढस दिया। तब मायावती ने कहा था अब मैं अपना जीवन मिशन में लगाना चाहती हूं। न तो मुझे शादी करनी है और न ही परिवार के बंधनों से बंधकर रहना है।
कांशीराम शिष्या के संकल्प से प्रभावित हुए
अजय बोस अपनी किताब में लिखते हैं, कांशीराम को अपनी इस शिष्या का यह संकल्प प्रभावित कर गया। उन्होंने अपनी शिष्या का साथ दिया। दलित राजनीति का ककहरा सिखाया। और उस मुकाम तक पहुंचने में हर संभव मदद दी, जहां मायावती आज खड़ी हैं। मायावती का संघर्ष, लगन और मेहनत अपनी जगह, लेकिन कांशीराम का सानिध्य उन्हें तब नहीं मिला होता तो आज देश को इतनी बड़ी दलित नेता नहीं मिली होतीं। मायावती ने भी कांशीराम के भरोसे को कम नहीं होने दिया। वह सुबह जल्दी उठकर स्कूल जातीं। जब स्कूल से लौटकर आतीं, तो संगठन के काम में जुट जातीं। शाम में कॉलेज जातीं और लॉ की इवनिंग क्लास अटेंड करतीं।
भाई के साथ रहने लगीं
कुछ महीनों के बाद कांशीराम ने मायावती से कहा, दफ्तर के बजाय मेरे घर आकर रह लो। मैं अक्सर पार्टी संगठन के काम से बाहर ही रहता हूं। कांशीराम का घर, पार्टी दफ्तर के पास ही एक किराए का कमरा था। मायावती ने समाज की फिजूल और बकवास की परवाह न करते हुए कांशीराम का प्रस्ताव मान लिया। उनके इस फैसले से समाज और पार्टी में अफवाहें उड़नी शुरू हो गईं। शुरुआती समय में वो इससे बेपरवाह रहीं। मायावती ने कमरे में अपने साथ रहने के लिए अपने सबसे छोटे भाई सिद्धार्थ को भी बुला लिया।
लोगों की फुसफुसाहट जब परेशान करने लगीं
ऐसा कुछ महीने चला। अब, लोगों की फुसफुसाहट मायावती के कानों तक भी पहुंचने लगीं। वो परेशान हो गईं। एक दिन वह गुस्से में कांशीराम के पास पार्टी दफ्तर पहुंची। इस घटना का जिक्र खुद मायावती ने अपनी आत्मकथा में किया है। वह कहती हैं, 'मैंने मान्यवर से कहा, ठीक यह रहेगा कि 'मैं अपनी जमा-पूंजी से एक कमरे वाला मकान खरीद लूं। मुझे कोई किराए पर तो कमरा देगा नहीं।' तब, कांशीराम ने मायावती को समझाया। समाज की औरतों और दलितों के प्रति यही सोच तो हमें बदलनी है।
वर्तमान समय में मायावती देश की सबसे बड़ी दलित नेता हैं। यूपी की चार बार मुख्यमंत्री रहीं। दलितों की स्थिति में बदलाव की वाहक बनीं। मगर लोगों की सोच साफ और दुरुस्त होने में शायद अभी सदियां और लग जाए। लेकिन, मायावती अगर आज डटकर खड़ी रहीं, सफलता के इस मुकाम तक पहुंचीं तो उसके पीछे मार्गदर्शन था दलित नेता, चिंतक कांशीराम का। उन्होंने शिष्य के समर्पण और त्याग को वह दिशा दी, जो एक गुरु ही दे सकता था।