लखनऊ के लालः इस वजह से यहां से था बाबूजी का खास नाता
लालजी टंडन लखनऊ के चहेते नेता थे। लखनऊ के जानकार होने के साथ साथ वे लखनऊ की सरजमीं की पहचान भी थे। लालजी टंडन लखनऊ के चौक इलाके या यूं कहें पूरे पुराने लखनऊ के घर-घर, गली-गली में जाने जाते थे।
लखनऊ: लालजी टंडन लखनऊ के चहेते नेता थे। लखनऊ के जानकार होने के साथ साथ वे लखनऊ की सरजमीं की पहचान भी थे। लालजी टंडन लखनऊ के चौक इलाके या यूं कहें पूरे पुराने लखनऊ के घर-घर, गली-गली में जाने जाते थे। लखनऊ और लालजी टंडन एक दूसरे में समाये हुए थे। अपने चौक स्थित घर के दरवाजे हमेशा लोगों के लिए खुले रहते थे। मैं भी जब उनसे मिलने गया वो हमेशा बड़ी आत्मीयता से मिलते और बातें करते। हमेशा उनसे मिलने वालों का तांता लगा रहता था। हर पार्टी में उनके अच्छे संबंध रहे। सब उनके अपने थे कोई पराया नहीं था, हर पार्टी में उनके अच्छे संबंध रहे।
लालजी टंडन लखनऊ पश्चिम विधान सभा सीट से जीतते थे और ये सीट भाजपा की स्थाई सीट मानी जाने लगी थी। शहरी विकास मंत्री रहते हुए उन्होंने पुराने लखनऊ के विकास के लिए बहुत काम किया। सडकें चौड़ी की गयीं, सुन्दरीकरण हुआ, साफ़ सफाई रहने लगी।
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बाबू जी, लोग उन्हें स्नेह से इसी नाम से बुलाते थे क्योंकि वो थे भी सबके बाबूजी के सामान। मैंने हमेशा पाया कि जो भी उनसे मिलने जाता था वो अपने परिवार के मुखिया की तरह उनको देखता था, एक बड़े बुजुर्ग और गाइड की भांति।
लालजी टंडन को लखनऊ से बहुत प्रेम था, उनका दिल यहीं की मिट्टी में बसता था। लखनऊ की असली कहानी और असली इतिहास को वो लोगों के सामने पेश करना चाहते थे। उनका कहना था कि इतिहासकारों और लखनऊ के ही लोगों ने लखनऊ को मात्र नवाबों की रंगीनियों और परीकथाओं तक सीमित करके रख दिया है। इसी लिए लालजी टंडन ने एक किताब भी लखनऊ पर लिखी थी। 'अनकहा लखनऊ' शीर्षक वाली इस किताब का विमोचन लालजी टंडन ने नवाब वाजिद अली शाह के शेर - हम इश्क के बंदे हैं...मजहब से ना वाकिफ - से किया था।
किताब पर विवाद
इस किताब पर काफी विवाद भी हुआ था क्योंकि इसमें उन्होंने लिखा था कि पहले लखनऊ का नाम लक्ष्मणपुर था और बाद में लखनऊ हो गया। और टीले वाली मस्जिद का निर्माण एक मंदिर के ऊपर हुआ है है। पहले लखनऊ का नाम लक्ष्मणपुर था और बाद में लखनऊ हो गया। उन्होंने कहा था कि जो सच है वो सच ही रहेगा।
लालजी टंडन ने कहा था कि लखनऊ अवध (अयोध्या) का हिस्सा है। राम ने अयोध्या में रामराज स्थापित करने के बाद अपने भाई लक्ष्मण के जरिए इसे बसाया था। लेकिन लखनऊ के इतिहासकारों ने यहां का इतिहास पिछले 100 साल तक सीमित कर दिया। उनका कहना था कि अगर टीले वाली मस्जिद के टीले की खुदाई की जाए तो बहुत से साक्ष्य मिल जायेंगे।
माया के धर्मभाई
लालजी टंडन की एक खासियत थी कि सभी राजनीतिक दलों और नेताओं से उनकी अच्छे सम्बन्ध थे। ये उनके मिलनसार स्वाभाव के कारण था। बसपा सुप्रीमो मायावती से तो उनका धर्मभाई का रिश्ता था। दरअसल, लखनऊ गेस्ट हाउस कांड के दौरान टंडन जी ने मायावती को सुरक्षित करवाने में काफी मदद की थी। बाद में यूपी में बसपा और भाजपा के गठबंधन में भी उनका बहुत बड़ा योगदान था। मायावती और उनके बीच बहुत अच्छे रिश्ते थे। मायावती ने उन्हें धर्मभाई बनाया था और हर वे रक्षा बंधन पर राखी बंधवाने जरूर मायावती के यहाँ पहुंचते थे। भाजपा और बसपा गठबंधन सरकार में मायावती लालजी टंडन का सबसे ज्यादा सम्मान करती थीं। गठबंधन में भाजपा के मंत्रियों में सबसे ज्यादा टंडनजी की ही चलती थी। वे हमेशा कोशिश करते थे कि सौहार्दपूर्ण संबंध बने रहें। सबसे सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध रखना उनकी मूल आदत में शुमार था।
अटल के खास
अटल बिहारी वाजपेयी से लालजी टंडन का ख़ास रिश्ता था। स्वतं सेवक संघ से जुड़ने के दौरान ही लालजी टंडन अटल बिहारी वाजपेयी के संपर्क में आये। धीरे-धीरे वह अटलजी के बहुत करीब आ गए। जब अटल जी ने लखनऊ से पहली बार चुनाव लड़ा था तो लालजी टंडन उनके मुख्य कार्य प्रबंधक थे। तभी से ये रिश्ता मजबूत होता चला गया। एक समय ऐसा आया कि लालजी टंडन वाजपेयी जी के उत्तराधिकारी माने जाने लगे। 2009 के लोकसभा चुनाव में जब अटल बिहाई वाजपेयी ने सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया तो लालजी टंडन को लखनऊ लोकसभा सीट से उम्मीदवार बनाया गया। उस वक्त चुनाव प्रचार के दौरान हमेशा वह कहते थे कि मैं तो अटलजी की चरण पादुका लेकर चुनाव लड़ रहा हूं।
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पोलिटिकल टाइमलाइन
- लालजी टंडन ने अपना राजनीतिक करियर 1960 से शुरू किया।
- वह दो बार सभासद चुने गए।
- 1978 से 1984 तक और फिर 1990 से 96 तक विधानपरिषद के सदस्य रहे।
- 1996 से 2009 तक लगातार तीन बार विधायक का चुनाव जीते।
- 1997 में वह नगर विकास मंत्री रहे।
- 2009 में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के बाद लखनऊ की लोकसभा सीट खाली हुई तो लालजी टंडन ने यहां से चुनाव लड़ा।
- 2018 में उन्हें उन्हें बिहार का राज्यपाल और फिर बाद में मध्य प्रदेश का राज्यपाल बनाया गया।
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