Lok Sabha by-election: योगी ने ढहाये सपाई किले, लहराया भाजपाई परचम

Lok Sabha by-election: आज़म का गढ़ व आज़मगढ़ दोनों क़िले ध्वस्त हो गये। ये दोनों संसदीय क्षेत्र सपा के क़िले माने जाते थे। अखिलेश यादव इन किलों को बचाने में कामयाब नहीं हो पाये।

Written By :  Yogesh Mishra
Update: 2022-06-26 14:27 GMT

सीएम योगी-अखिलेश यादव: Photo - Social Media

Lucknow: क्या अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) की समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party) राष्ट्रीय राजनीति के लिए अपनी जगह खो चुकी है? क्या आज़म व अखिलेश के गढ़ दरक चुके हैं? अखिलेश मोदी व योगी की भाजपा (BJP) से लड़ने की स्थिति में नहीं रह गये हैं? क्या यादव मतदाता भी भाजपा की ओर रूख करने लगा है? ऐसे अनगिनत सवाल रामपुर व आज़मगढ़ के लोकसभा चुनाव के नतीजों से अपना उत्तर तलाश रहे हैं? हालाँकि उन उत्तरों को देने से सपाई यह कहना बेहतर समझेंगे कि उप चुनाव हमेशा सत्ता के होते हैं? लेकिन यह निरंतर क्षीण हो रही सपा को लेकर कोई भी सुनहरा ख़्वाब देखने की मंशा वालों को लिए ठीक नहीं है। क्योंकि आज़म का गढ़ व आज़मगढ़ दोनों क़िले ध्वस्त हो गये। ये दोनों संसदीय क्षेत्र सपा के क़िले माने जाते थे।

अखिलेश यादव इन किलों को बचाने में कामयाब नहीं हो पाये। सपा का इकलौता क़िला मैनपुरी (Mainpuri) जो आज महफ़ूज़ है, उसकी वजह अखिलेश नहीं बल्कि मुलायम सिंह यादव (Mulayam Singh Yadav) हैं। भाजपा ने साबित कर दिया कि अगले लोकसभा चुनाव में दो तीन सीटें छोड़ कर सब जीतने की पुख़्ता रणनीति उसने तैयार कर ली है। चुनावी नतीजे योगी के राज व काज पर भी बड़ी मुहर लगाते हैं। क्योंकि अखिलेश वार रूम व पार्टी ऑफिस से बाहर नहीं निकले जबकि योगी ने दोनों लोकसभा क्षेत्रों में सभाओं की बौछार लगा दी। अखिलेश की निरंतर पराजय की वजहों में खुद को योगी आदित्य नाथ से बड़ा नेता समझने की गलती करना भी है।

लखनऊ से हेलिकॉप्टर से सिंबल मँगवाया था आज़म ने

अखिलेश राज में वैसे भी आज़म खान पार्टी के मुस्लिम चेहरे से उतर चुके हैं। पर इसके बाद भी रामपुर की जीत को लेकर यह कहा जा सकता है कि चित व पट दोनों खेलने वाले आजम को यह इलहाम उसी दिन हो गया था जब भाजपा ने घनश्याम सिंह लोधी को उतारा था। यही वजह है कि आज़म ने अपनी पुश्तैनी सीट होने का दावा छोड कर अपने परिजनों की जगह आसिम राजा को उम्मीदवार बनाया था। पर आज़म यह भी नहीं भूल सकते हैं कि घनश्याम लोधी उनके ही रहमों करम पर सियासी पारी खेल रहे थे। दो बार एमएलसी वह आज़म के चलते ही रहे। आज़म से इनकी निकटता को इससे समझा जा सकता है कि एक बार सिंबल आने में विलंब हो रहा था, तब आज़म ने लखनऊ से हेलिकॉप्टर से सिंबल मँगवाया था।

बीते विधानसभा चुनाव में ही घनश्याम लोधी ने आज़म व सपा को छोड़ा । रामपुर सीट पर लोध मतदाताओं की खासी संख्या है। 2019 के लोकसभा चुनाव में जब रामपुर से आजम खान उम्मीदवार थे और सपा बसपा के साथ मिलकर लड़ रही थी तब आज़म को केवल 1.09 लाख वोटों से विजय हासिल हुई थी। उन्हें कुल 559177 वोट मिले थे।

भाजपा के घनश्याम सिंह लोधी 42000 से जीते

जबकि जया प्रदा को 448630 वोट हासिल हुए। यदि लोक सभा चुनावी नतीजों का पोस्टमार्टम करें तो यह सत्य हाथ लगता है कि उस समय भी आज़म की जीत नहीं थी। क्यों कि आज़म को बसपा के वोट भी मिले थे। तब केवल एक लाख के अंतर से जया प्रदा को हरा पाये। उस चुनाव में 63.26 प्रतिशत वोट पड़ा था। उप चुनाव में भाजपा के घनश्याम सिंह लोधी 42000 से जीते। घनश्याम लोधी को 367397 वोट मिले। जबकि आसिम राजा को 325205 वोट। रामपुर के चुनावी नतीजे बताते हैं कि आज़म की भावनात्मक अपीलें भी अनसुनी कर दी गयीं। सपा का मुस्लिम यादव समीकरण भी दरका। चुनावी नतीजे आज़म के साथ हुई कार्रवाई पर भी मुहर लगाते हैं?

आजमगढ़ में भाजपा के दिनेश लाल यादव निरहुआ ने 11212 वोटों से जीते दर्ज करायी। निरहुआ को 2,99,968 मत मिले। जबकि सपा के धमेंद्र यादव को 2,90,835 वोट। बसपा के गुड्डू जमाली को 2,57,572 वोट मिले। आज़मगढ़ में सपा की हार का कारण भले ही बसपा उम्मीदवार गुड्डू जमाली बने हों पर नतीजों ने यह संदेश तो दे दिया कि मुस्लिम मतदाता के सामने केवल सपा विकल्प नहीं है। यह भी संदेश है कि यादवों में भी घोसी, कमरिया, ग्वाल व ढँढोर के बीच विभाजन का दौर शुरू हो गया है। निरहुआ ग्वाल है।

भाजपा में उत्तर प्रदेश के यादव की ज़रूरत

जबकि पूर्वी उत्तर प्रदेश में यादवों के भीतर के विभाजन के हिसाब से अखिलेश यादव परिवार ढँढोर में आता है। यादव लंबे समय तक अखिलेश यादव के इंतज़ार में बैठे रहने को तैयार नहीं है। उसे भाजपा में उत्तर प्रदेश के यादव की ज़रूरत है। यदि भाजपा इसे पूरा करती है तो वह कमल थामने को तैयार हो सकता है। क्योंकि लोकसभा चुनाव में अखिलेश यादव जितने वोट के अंतर से जीते थे। उससे केवल तीस हज़ार ज़्यादा वोट सपा के धर्मेन्द्र यादव पा सके। वैसे भी भाजपा ने नॉन यादव ओबीसी को अपने पाले में खड़ा कर यादवों को अलग थलग छोड़ रखा है। जबकि उत्तर प्रदेश में यादव ओबीसी ग्रुप को लीड करता रहा है। जबकि उसकी संख्या तक़रीबन छह फ़ीसदी है। अब यह जगह इसके आधे से कम हैसियत रखने वाले कुर्मी ने हथिया ली है।

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