Lucknow Chikankari: लखनवी चिकनकारी व जरदोजी कसीदाकारों की बदहाल जिंदगी

Lucknow Chikankari: सरकारी आकड़ों कि बात करें तो लगभग 4 हजार करोड़ का सालाना कारोबार है। चिकनकारी, आरी जरदोजी की बात करें तो ये तकरीबन 2 अरब रुपए का विदेशी धन पैदा करता है।

Report :  Rakesh Mishra
Published By :  Shashi kant gautam
Update: 2022-04-24 10:38 GMT

लखनवी चिकनकारी और जरदोजी: Photo - Social Media

Lucknow: यूपी की राजधानी लखनऊ चिकनकारी (chikankari) और आरी जरदोजी (Zardozi) का हब है। सालाना हजारों करोड़ का कारोबार होता है। आज हम आपको इसके कारीगरों की दुनिया से रूबरू कराएँगे। सरकारी आकड़ों कि बात करें तो लगभग 4 हजार करोड़ का सालाना कारोबार (Annual turnover of 4 thousand crores) है। चिकनकारी, आरी जरदोजी की बात करें तो ये तकरीबन 2 अरब रुपए का विदेशी धन पैदा करता है। ये रकम आपको बहुत बड़ी दिख रही होगी। लेकिन कसीदाकारों के पास इतना पैसा भी नहीं होता कि वो परिवार को एक अच्छी जिंदगी दे सकें। हमने ऐसे ही एक कसीदाकार रईस अहमद से बात कर ये जानने की कोशिश की कि कैसे बीतता है कसीदाकारों का जीवन।

कारीगरों की दुनिया

रईस बताते हैं कि कसीदाकारों के बच्चों को जन्म के बाद से मुंदराजी जाजी, सिद्दौर जाली, बुलबुल चश्म जाली, बखिया नुकीली मुर्री, मुर्री, फनदा, कांटा, तेपची, पंखड़ी, लौंग जंजीरा, राहत तथा बंगला जाली याद हो जाते हैं। ये टांको के नाम है जो सुई और धागे से लगाए जाते हैं।

उन्होंने बताया कि हमें हफ्ते में एक बार एजेंट से पैसे मिलते हैं। हम हफ्ते भर हर दिन 16 घंटे काम करते हैं। जिसे दो नफरी कहा जाता है। एक नफरी 8 घंटे की होती है। जिसके बदले में 120 रु मिलते हैं। इसतरह हमें 240 रु मिलते हैं 16 घंटे काम करके। परिवार में पत्नी भी काम करती है। हम दोनों साड़ी, पर्स और सूट पर कसीदाकारी करते हैं। इनकी कीमत हजारों रु में होती है।

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पूरा पैसा नहीं मिलता

रईस बताते हैं कि माल हमें एजेंट देते हैं। हम हफ्ते भर कसीदाकारी करते हैं। इसके बाद शनिवार को जब माल जमा करने जाते हैं तो हिसाब होता है। हर बार यही होता है कि पूरा पैसा नहीं मिलता मेरे और पत्नी के काम को मिला कर भी हमें एजेंट मुश्किल से ढाई हजार थमा देता है। बाकी का पैसा अगली बार देने का कहता है।

डिजाइन के अनुसार दाम भी एजेंट ही का ज्यादा तय करते हैं। परिवार का खर्च बड़ी मुश्किल से चलता है। बच्चों को पढाना चाहते हैं। लेकिन क्या करें पहले पेट भरना है। इसलिए मजबूरी में बच्चों को भी काम सिखाते हैं। ताकि कुछ ज्यादा पैसे मिल सकें। महीन काम होने की वजह से कसीदाकारों की नजरें कमजोर हो जाती हैं। मुस्तफा का कहना है कि हमें इतना पैसा नहीं मिलता की बच्चों को अच्छी जिंदगी दे सकें लेकिन कुछ और सिखा नहीं तो मज़बूरी है ये काम करना।

रुकैया भी कसीदाकारी करती हैं। उनका कहना है कि घर के काम निपटने के बाद हम हर दिन 6 घंटे कसीदाकारी करते हैं। जिसके बदले में महीने भर बाद पांच सात सौ ही मिल पाते हैं। क्योंकि महीन काम होता है और ऐसा नहीं की जल्दबाजी में कर के निपटा दें। क्योंकि पैसे देने से पहले एजेंट काम देखता है। और ये ज़रा सा भी गलत होता है तो मजदूरी तो जाती ही है साथ ही वो कपडा भी हमारे पल्ले बांध दिया जाता है।

हमारे काम पर भी चीनियों की नजर

कयूम बताते हैं कि हमारे काम पर भी चीनी नजर लगा चुके हैं। वहां के कारीगर 50 रु नफरी पर काम करते हैं। हमारे पास इतने पैसे नहीं होते कि बीमार होने पर अच्छे डॉक्टर से दवा ले सकें। मज़बूरी में झोलाछाप डॉक्टर के पास जाना पड़ता है।

शबाना शादी से पहले से कसीदाकारी करती आ रही है। उनका कहना है कि पहले ऐसा नहीं था अच्छे पैसे नहीं मिलते थे। लेकिन पिछले 10 साल से सब बदल गया है। कई बार 15 दिन में पैसे मिलते हैं। इससे घर खर्च चलाना मुश्किल हो गया है। मेरे शौहर ई रिक्शा चलाने लगे हैं। वो शाम तक 300 रु कमा लेते हैं इससे अब थोड़ा अच्छा हो गया है।

सरकार! भला हम गरीबों की क्यों सुनेगी

तैयब को सरकार से नाराजगी है। उनका कहना है कि सरकार ने कभी हमारे लिए कुछ नहीं किया। सब के लिए योजना लाती है लेकिन हम उनके लिए अछूत हैं। हमारी कारीगरी वाले कपडे हजारों लाखों कि कीमत में बिकते हैं। लेकिन हमें क्या मिलता है। सरकार को क्या पता नहीं है, सब पता है उनको लेकिन क्यों सुनेंगे भला हम गरीबों की।

मुसाहिब कहते हैं, अगर ये एजेंट बीच से हट जाते हैं तो हमें भी अच्छा पैसा मिल सकता है। हमें भी नफरी के 500 रु मिलने लगेंगे क्योंकि ये एजेंट ही हमारा हक के पैसे मारते हैं। सरकार कुछ ऐसा कर देती कि ये एजेंट हमारा हक न मार पाते।

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कैसे होती है कसीदाकारी

सबसे पहले कपडे पर डिजाइन छापी जाती हैं। फिर फ्रेम (इसे अड्डा कहते हैं) में टांक कर कढ़ाई शुरू होती है। कसीदाकारी में सूती धागा प्रयोग में लाया जाता है। इसके साथ ही सोने चांदी के भी धागे का प्रयोग किया जाता है। मुकेश और मिरर वर्क का भी प्रयोग होता है।

ये भी जानिए

चिकनकारी या कसीदाकारी मुगल बादशाह जहांगीर (Mughal Emperor Jahangir) की बेगम नूरजहां (Begum Noorjahan) को काफी पसंद थी। उनके समय में ही ये ईरान देश में आई। लखनऊ और आसपास के इलाके में लगभग 2 लाख परिवार कसीदाकारी से जुड़े हैं। कसीदाकारी सिल्क, जॉर्जेट, शिफॉन फैब्रिक पर की जाती है।

तो देखा आपने बड़े बड़े शोरूम्स में जो कसीदाकारी आपका मन मोह लेती है। जिसके लिए आप हजारों लाखों खर्च करते हैं। उसे बनाने वाले अपना और बच्चों का पेट भी सही से नहीं भर पाते।

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